
पंखुरी सिन्हा हिन्दी और अंग्रेजी की सुपरिचित लेखिका हैं। उनके तीन हिंदी कथा-संग्रह, 8 हिंदी कविता-संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह प्रकाशित हैं और कई किताबें प्रकाशनाधीन हैं। कई संग्रहों में भी उनकी रचनाएं संकलित हैं। वे कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं, जिनमें प्रमुख हैं- सी वी रमन विज्ञान-कथा प्रतियोगिता 2022 में पहला पुरस्कार, कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का 2016 का पहला पुरस्कार, कुमुद टिक्कू कथा पुरस्कार 2020, मथुरा कुमार गुंजन स्मृति पुरस्कार 2019, प्रतिलिपि कविता सम्मान 2018, राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, पहले कहानी संग्रह, ‘कोई भी दिन’ को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, ‘एक नया मौन, एक नया उद्घोष’, कविता पर 1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1993 में CBSE बोर्ड कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान। उन्होंने ‘कोबरा: गॉड ऐट मर्सी’, डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन भी किया है, जिसे 1998-99 के यू जी सी फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला। हाल में, अंग्रेजी लेखन के लिए रूस, रोमानिया, इटली, अल्बेनिया और नाइजीरिया देशों द्वारा सम्मानित हुई हैं, जिसमें चेखोव महोत्सव, याल्टा, क्रीमिया में कविता-कहानी दोनो को मिले पुरस्कार और 2021 में इटली में प्रेमियो बेसियो स्पैशल जूरी अवार्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 2021 में ही इटली की ‘गैलेतियो कविता प्रतियोगिता’ में चौथे कविता संग्रह ‘ओसिल सुबहें’ की एक कविता द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित हुई है। आप 2023 में इटली द्वारा ‘मेलेतो दी गुईज़ानो’ सम्मान से सम्मानित हुई हैं। आपकी कविताओं का देश और दुनिया की सत्ताइस से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। आप हंगरी और बुल्गारिया में राइटर इन रेजीडेंस रह चुकी हैं और स्वीडन के ट्रानस साहित्य महोत्सव २०२२ में कविता पाठ और साक्षात्कार के साथ शामिल हो चुकी हैं।
‘सबद’ पर प्रस्तुत पंखुरी सिन्हा की ताज़ा कहानी ‘नोटिस’ एक पहाड़ी ग्रामीण कस्बे के परिदृश्य पर केंद्रित होते हुए भी समूचे भारत के समकालीन यथार्थ को हमारे सामने नुमायाँ करती है। बिना किसी शोर शराबे के यह कहानी मौजूदा हालात के एकदम भीतर प्रवेश करते हुए उसकी त्रासदियों को भी हमारे सामने रखती है और धीमी और मंद ही सही ‘आशा’ को भी।
ए फोर साइज़ के सफ़ेद कागज़ पर, काले अक्षरों की साफ़ और आसानी से पढ़ी जा सकने वाली लिखावट में लिखा था, ”मुसलमान इस गाँव को छोड़ दें. इस गाँव की धरती पर उनका कोई अधिकार नहीं। उनके यहाँ होने का कोई इतिहास भी नहीं। यह राम सेवक हनुमान और विष्णु के वाहन जटायु की भूमि है. यहीं वह जगह है जहाँ जल-कटकर गिरे थे सम्पाति के पर! पवित्र स्थल यहाँ एक नहीं अनेक हैं. यह बद्री केदार का इलाका है. कैलाश वासी शिव की तपोभूमि! यहीं से शुरू होती है सती के पार्वती रूप में प्रकट होने की कथा. पर्वत पुत्री पार्वती के प्रांगण की यही है सीमा रेखा! इसका उल्लंघन घोर पाप है. राजनैतिक शब्दों में कहें तो देश की सीमा रेखा के उल्लंघन से कम नहीं। इसलिए दुबारा कहा जाता है, मुसलमान गाँव छोड़ दें. सलामती चाहते हैं तो जैसा कहा जाता है वैसा करें।”
बिस्मिल्लाह खां गाता गुनगुनाता ऊपरी पहाड़ की ढ़लान पर फिसलता, अगले नल्ले की ओर मुड़कर सीधा अपने घर की शार्ट कट लेने ही वाला था कि उसकी नज़र चौराहे पर टंगे कागज़ पर पड़ी, और उत्सुकतावश वह जाकर उसके आगे खड़ा हो गया. चौराहे के बीचो बीच गाँधी की धूलि-धूसरित एक मूर्ति के चारो ओर ज़रा सी रूखी सूखी घास के गोल घेरे को घेरे लोहे की ऊँची सलाखें थीं. उन्हीं सलाखों पर चिपका था कागज़। बिस्मिल्ला खां के पाँव अपने आप उस ओर मुड़ गए. फौरन उसे याद नहीं आ रहा था कि ऐसा कोई कागज़ उसने पहले देखा था या नहीं। लिखाई पढ़ी तो बिस्मिल्लाह खां सन्न अवाक! लगा जैसे होश उड़ गए. पहला ख्याल तो यह आया कि कागज़ ही उखाड़ फेंके। लेकिन फिर अचानक उसे लगा जैसे कई जोड़ी आँखें उसपर टिकीं हों, गड़ी हों उसकी पीठ पर!
बिजली की गति से वह मुड़ा और तेज़ कदम चलने लगा अपनी तयशुदा राह पर, कि जैसे उसने कुछ देखा ही न हो! पर देखा कैसे नहीं, देखा तो था, देखा तो है! ऐसी बात कभी देखकर भुलाई जा सकती है क्या? ऐसी बात को देखकर किया जा सकता है नज़र अंदाज़!? बिल्कुल अनदेखा नहीं करना चाहिए, देखा हुआ ऐसा कोई कागज़! तो क्या वह बताएगा …….. सबको? अब्दुल चाचा, करीम भाई, और सबको? हमें तो भाई निकलने की नोटिस लगा दी है सरेआम चौक पर! नाक कट गयी है अपनी! कैसे बचाएं? बताएं ही न! लेकिन बात बढ़ गयी तो कहेंगे पहले क्यों न बताया ? जैसे जैसे घर के करीब आता, उसके दिल की धड़कन तेज़ होती जाती! उससे भी ज़्यादा सर पर हथौड़े की तरह बजता आक्रोश, बेसंभाल होता जाता। सारे जोशियों, नैथानियों, बिष्टों और गढ़वालियों के घर के आगे से गुज़रता बिस्मिल्ला एक अलग नज़र से उन्हें देख रहा था. क्या यही थे मूल निवासी यहाँ के बस? क्या उनकी जगह नहीं थी यह? क्या ये पहाड़ पिता समान नहीं थे उसके? उसकी मां नहीं थी यह धरती?
ठीक है, उनके मोहल्ले अलग थे, पर वो तो हर कहीं थे, सदा से थे, फिर भी शहर दोनों का था. ये क्या बात हुई कि शहर किसी एक का हो जाए? उसकी तो सात पुश्तें यहाँ के लोगों को तीर्थ कराने में लगीं हैं! वह खुद बचपन से घोड़े लिये केदार तक आ और जा रहा, इसके अलावा और कुछ किया ही नहीं उसने! यहाँ से गया तो करेगा क्या? लेकिन सवाल ये नहीं, इससे बड़ा है! इन चिनारों, देवदारों, नज़ारों में बसती है उसकी रूह! वह कहीं नहीं जाना चाहता इन्हें छोड़ कर! इन चिनारों, देवदारों, नज़ारों के आगे फीका है कश्मीर भी! वो तो कश्मीर तक नहीं गया। और जाए भी क्यों? केदार उसे मक्के मदीने से भी ज़्यादा प्यारा है, उसका भी तीर्थ ही है मानो! बचपन के स्कूल के रास्ते की तरह जानता है वह केदार तक की दुर्गम चढ़ाई!।कहाँ जाएगा वह? कैसे यह सब छोड़ कर चला जाएगा? लेकिन सोच भी क्यों रहा है वह कहीं और जाने के बारे में?
वह तो लौट भी रहा है पहाड़ों में ही लगभग रात बिताकर! रास्ते में पड़ने वाले हर गाँव में उसके दोस्त हैं! कुछ ही देर रुकता है वह किसी दोस्त के घर बिस्तर पर! वर्ना अपने प्यारे घोड़े की पीठ पर, अस्तबल में, लेकिन सबसे ज़्यादा राह में! बनाये ढलानों से दिखती घाटियों का सिरहाना, बतियाता खिलते, झरते, कलियाँ देते बुरांस से! उसे तो केसर से भी ज़्यादा प्यारे हैं बुरांस! कितने सैलानी आते हैं जब फूलता है बुरांस! उसे तो लगता है पागल हो जाएगा ऐसी मद्धम लाल आंच में दहक उठती है पूरी हरी घाटी! उसने सुना है, कहते हैं, जब पलाश खिलता है, आग लग जाती है जंगल में! उसे तो पलाश से भी ज़्यादा प्यारे हैं बुरांस!
घुमक्क्ड़ दिल का, चुप्पा किस्म का शख्स था. लेकिन आज करनी होगी बात उसे! मस्जिद में! हाँ, मस्जिद में! जहाँ होती हैं एक से एक बातें! होने के बारे में, एक मुसलमान! एक भारतीय मुसलमान! आजतक उसने कभी नहीं सोचा इस तरह इतना ज़्यादा! होने के बारे में भारतीय अथवा मुसलमान! दोनों एक साथ अथवा अलग अलग! कितना साथ, कितना अलग! पर क्यों अलग? उसे ऐसे सवालों और जवाबों के लिए टाइम नहीं मिला कभी! बचपन से घुड़ सवारी, घुड़ दौड़ का शौक रहा! घोड़े ज़रूर अरबी थे उसके! लेकिन दिल तो अपना हिन्दुस्तानी है, फ़क्र से छाती ठोककर कहता वह! दिन में चार बार वज़ू कर नमाज़ पढ़ने वाला मुसलमान वह कभी नहीं रहा. अलबत्ता, ईद बकरीद का उसे साल भर इंतज़ार रहता! लेकिन उतनी ही श्रद्धा से वह हिन्दुओं के तीर्थ करवाता! “अपनी तो रोज़ी रोटी है, ऊपर से पुण्य अलग कमाते हैं! आप जितना आते रहें, अपनी उतनी चांदी है.” घोड़े की लगाम थामे, हँस हँस कर कहता वह सैलानियों से! उसकी ज़िंदादिली से खुश होते सैलानी भी!
घर पहुँचते पहुँचते अब्बू दूर से ही दरवाज़े पर टहलते दिख गए.
“अब्बू! क्या हम मूल बाशिंदे नहीं हैं यहाँ के? मतलब खालिस यहाँ के रहने वाले? कहीं और से आये हैं?”
“अरे मुझे पता है मूल बाशिंदे का मतलब! लेकिन क्या वाहियात सवाल है!? तू भी क्या क्या सोचता रहता है! लगता है तेरी संगत ठीक नहीं! किनके बीच उठना बैठना……”, अब्बू आदतन भड़क उठे, लेकिन उनके ज़्यादा दूर जाने से पहले, बिस्मिल्ला उन्हें थामता हुआ सा बोला, “अब्बू, चौक पर नोटिस लगी है, मुसलमान गाँव छोड़ दें!”
“हाँ, तो लेकिन इससे ये कैसे साबित होता है कि मूल बाशिंदे हम नहीं? ये सवाल भी क्योंकर खड़ा होता है मूल बाशिंदे वा….. ला…?”, अब्बू अचानक अपनी रौ में बोलते बोलते रुक गए! फिर अपनी भरपूर नज़र बिस्मिल्ला की आँखों में डालते हुए गहरे अविश्वास से पूछा, “नोटिस लगी है? मुसलमान
गांव छोड़ दें? पर क्यों? ये नहीं लिखा?”, अब्बू टहलते टहलते एकदम से कुर्सी में निढाल हो गए! बिस्मिल्लाह फौरन भीतर दाखिल हो गया.
चाय, नाश्ते के साथ आराम फर्मा कर लगभग दो घंटे बाद, बिस्मिल्ला जब बाहर निकला तो अब्बू और भौंचक वहीँ कुर्सी पर बैठे थे. उसे देखते ही उठ खड़े हुए.
कहने लगे,”बिस्मिल, ज़रा मुझे भी नोटिस दिखा! मैं भी तो देखूं क्या खुराफात है!? लेकिन जो भी हो, सवाल तेरा वाजिब नहीं! मूल बाशिंदे से क्या फर्क पड़ता है? हो सकता है सात पीढ़ी पहले हमारे पुरखे आये हों कहीं और से? कहीं से भी आएं हों, हरयाणा, पंजाब, पूरब, पश्चिम, उत्तर दक्षिण, जगहों की कमी है क्या, उठकर चले आने के लिए कहीं बेहतर? फिर ये सरहद है क्या? राज्यों की सीमा? कोई आये जाए कहीं, कोई कौन होता है टोकने वाला? नासपिटे कहीं के! सुन बिस्मिल, ज़रा मुझे भी दिखा नोटिस! मैं भी तो समझूँ माजरा क्या है? और फिर मुझे मस्जिद छोड़ देना बेटे!”, अब्बू ने अजीब सी एक निगाह उसपर जमा दी, जिसमें स्नेह के साथ साथ और क्या था बिस्मिल फौरन तय न कर सका! लेकिन उसे जल्दी थी. सवारी लेकर ऊपर पहुंचना था. अब्बू को साथ ले जाएगा तो अपनी चाल की आधा क्या, चौथाई गति में चलेगा। लेकिन अगर आज भी न ले गया अब्बू को, तो घोड़े दौड़ाने से फायदा क्या?
तो आधे घंटे की दूरी पूरे एक घंटे में पूरी कर, जब अब्बू बेतहाशे हाँफते नोटिस के सामने खड़े हुए तो उनके आश्चर्य और बिस्मिल्लाह की खीझ की सीमा न थी. बिस्मिल्लाह के मन में उस वक़्त नोटिस लगाने वालों के लिए बद से बदतर शब्द और भाव एकसाथ छलक रहे थे. उन्हीं की वजह से वह पहली बार काम पर लेट से पहुँचने वाला था. “लाहौल विलाकूबत!” साँसों के ज़रा सा सँभलते ही अब्बू ने कहा. नोटिस उन्होंने काफ़ी इत्मीनान से सर एकबार ऊपर, एकबार नीचे कर पढ़ी और बिस्मिला पर गहरी नज़र डाल कर कुछ बोलने को हुए पर रुकते हुए सिर्फ इतना ही बोले, “अब ज़रा मुझे मस्जिद भी छोड़ ही दे बेटा!” बिस्मिल्ला को एक किस्म की राहत हुई कि अब बस मस्जिद ही छोड़ना है! उसे डर था कि नोटिस पढ़ने के बाद अब्बू कहीं चौक में ही हंगामा न करें!
अपनी सोच में इतना गुम था बिस्मिल्ला कि अपनी पदचाप तक न सुनाई दे रही थी! लेकिन अपनी ही गली में मुड़ते, उसे किसी और की तेज़, करीब आती पदचाप सुनाई पड़ी! खुद ब खुद, उसकी गति तेज़ हो गयी! लेकिन पीछे वाला तो दौड़ लगाने पर आमादा था! उससे भी तेज़ चलने लगा! यह ठीक उसके घर से एक घर पहले हुआ कि पीछे वाले ने उसे ऐसे ही ओवरटेक कर लिया जैसे एक फ़िल्मी दृश्य में अमिताभ बच्चन मौसमी चैटर्जी को ओवरटेक करते हैं! अपने ही घर के आगे, सन्न खड़ा रह गया बिस्मिल्ला!
मस्जिद पहुँचते पहुँचते बाहर इकट्ठी भीड़ और उसके तेवर से बिस्मिल्ला समझ गया कि नोटिस पढ़ ली गयी है. इसलिए अब्बू को इकट्ठे लोगों के नज़दीक छोड़ता हुआ वह फौरन वापस मुड़ गया. फिर जो चढ़ाई पर उसने दौड़ना शुरू किया तो सीधा घोड़े की पीठ पर पहुंचकर दम लिया। फिर उसे भगाता हुआ, लगभग दो घंटे की देरी से जब वह टूरिस्ट पिक अप पॉइंट पहुंचा, जहाँ उसके बाकी घोड़े भी बंधे थे तो मारे चिंता के उसका हलक सूख रहा था. हैरान परेशान, वह सोच रहा था सैलानियों को क्या जवाब देगा? लेकिन ख़ैरियत थी कि सैलानियों की बस लेट हो गयी थी और बिस्मिल्ला ही पहले पहुंचा था. पूरी तरह से खुद को संभाल कर, संयत होकर बिस्मिल्ला स्वागत की मुद्रा में आ चुका था, जब थके हारे, बस की गोल गोल चढ़ाई से उकताए सैलानी
आगे की यात्रा के लिए उतरे। लेकिन बिस्मिल्ला की खुश मिजाज़ आव भगत ने उन्हें जल्दी ही तरो ताज़ा कर दिया। हर मोड़, हर कटाव, हर पेड़, हर पत्थर, हर ऊंचाई, हर तराई की लगभग
सुनाता कहानियां, करता हंसी ठिठोली, बिस्मिल्ला उन्हें उनके तीर्थ के पास के ठिकाने तक छोड़ आया. हमेशा की तरह ढेर सारी बक्शीश उसके झोले में थी.
अगली सुबह जब वह घर पहुंचा, अब्बू बाहर बैठे बड़बड़ा रहे थे. अम्मी हमेशा की तरह काम में जुटी थीं. बहनें दोनों कॉलेज गयीं हैं, उनकी भी निपटानी हैं शादियां! वैसे निपटाना शब्द पसंद नहीं उसे बहनों के लिए, लेकिन सर पर ज़िम्मेदारी सी दिखती हैं. अभी अभी बड़ी बहन को धूम धाम से ब्याहा है पड़ोस के गांव में! बिस्मिल्ला को देखते ही, अब्बू उठ खड़े हुए, मुखातिब हुए उससे और लगे गंभीरता पूर्वक मस्जिद की बात करने! “सुन बिस्मिल! कुछ पंडित आये हैं कश्मीरी! वही भागे, खदेड़े हुए! आये तो हैं बसने लेकिन खराब कर रहे हैं पूरे गांव का माहौल! ऐसा ही जोश चढ़ा है तो खुलेआम चौक में करें मीटिंग, माइक लगाकर ताकि सब सुन तो सकें आप क्या कह रहे हैं?! पर नहीं! बंद घर में बैठक कर रहे!” अब्बू खुद पूरे जोश में बोलते ही चले जा रहे थे.
“आसिफा के लिए किसी ने एक लड़का बताया है, दो गाँव छोड़कर। लाख से कम न लेंगे, निकाह का खर्च ऊपर से अलग.” बिस्मिल्ला ने ध्यान भटकाने के लिए कहा, लेकिन अब्बू भड़क गए, “अमां बरखुरदार, यहाँ जान की आफत है तुम्हें निकाह की पड़ी है! निकाह तो तब होगा न जब आसिफा बचेगी और हम बचेंगे!”
“अब्बू किसी ने खामखाह चढ़ा दिया है आपको, कोई बरगला-बहका रहा है आपको! शांत हो जाएँ, कोई बात नहीं ऐसी परेशानी की!”, बिस्मिल्ला ने दुबारा समझाने की कोशिश की, लेकिन अब्बू का पारा सातवें आसमान पर था.
“चुप रहो मियां बिस्मिल! तुम्हें न ख़बर है, न अंदाज़ा! क्या मालूम वो मस्जिद में बम रखने की तैयारी कर रहे हों? बात यहाँ तक पहुँच चुकी मस्जिद के भीतर, तुम रहते कहाँ हो? अपने घोड़े दौड़ाते हो पहाड़ में, कुछ पता भी है? तैयारी बम के जुगाड़ की हो रही है! अगर उन्होंने हमला किया तो हमें भी तो जवाब देने लायक तैयार होना चाहिए!”
“अब्बू, ज़रा सी चिंगारी को हवा न दी जाए! बात अपने आप रफा दफा हो जायेगी!” बिस्मिल्ला ने अब्बू के करीब जाकर, आँखों में प्यार और अनुनय भर कर उन्हें गहरे देखते हुए दुबारा कोशिश की!
“बिस्मिल तू है कहाँ? कभी तो समझ जाया कर मामले की नज़ाकत! मैंने तुझसे कहा था केदार के सैलानियों के चक्कर में न पड़! तीरथ न करा उन्हें! उसके काबिल नहीं ये! मोह लिया है तुझे, भरमा दिया है!”
बिस्मिल्ला पल भर भी बिना गंवाए बाहर हो लिया घर से! कितनी बदल गयी है घर की हालत जब से उसने ये धंधा पकड़ा! अब तो इतने साल गुज़र गए कि शायद अब्बू को भी याद न हो! हफ्ते क्या महीनों मयस्सर न होता था कवाब! कहाँ अब हर रोज़ गोश्त के साथ खायी जा रही है रोटी! कैसे समझाए वह अब्बू को क्या चाहता है वह उनके और अम्मी के लिए?! आसिफा और सबसे छोटी नाज़नीन के लिए, जो उसे बहन से भी ज़्यादा बेटी की तरह प्यारी है! कैसे समझाए कुछ भी अब्बू को? रोज़ रोज़ के इसी बुझाने, बतलाने में देर हो जाती है उसे! आज तीसरा दिन है, उसकी भी सांस फूल गयी है. आज वह सीधी सड़क की राह छोड़कर घरों के बीच से कूदता फांदता जा रहा है, उछलता रास्ते के पत्थरों पर! उसे ठीक करना है सबकुछ, वह कर के रहेगा! अव्वल तो उसे समय पर पहुंचना है! तेज़, तेज़, खुद की लगाम कसता है वह, ये भी आता है उसे! ये पार हुआ महेश काका का घर, ये दिनेश काका का घर, ये रमेश काका! और क्या! सारा गाँव रिश्तेदार है उसका! कोई मौसा, कोई ताया, कोई चाचा, कोई फूफा! हँसी आ गयी बिस्मिल को, लेकिन इस हंसी को कम नहीं करने देना है अपना फौलादी इरादा! ये हंसी उसकी चाल धीमी नहीं कर सकती! और तेज़, और तेज़, दौड़ता है वह पहाड़ पर! तेज़ आवाज़ें आ रहीं हैं किसी घर से! लगता है वहां भी कोई अपने अब्बू से लगा है बहस करने में! फिर हंसी आने लगी बिस्मिल को! नियामत, इतनी परेशानियों में भी आज हंसने का दिन रहा! घर से आती बातचीत सिर्फ आवाज़ से शब्द में तब्दील होने लगती है. साफ़ और साफ़, जैसे जैसे करीब पहुँचता है बिस्मिल–“साले कटुए, आधा गांव घेर कर रखा है! हमें न मवेशी चराने की जगह बची, न घूमने टहलने की! कब्ज़ा कर रखा है सारी ढ़लान पर! न हमारी औरतें जाकर देख सकतीं हैं शाम ढ़ले घाटी की रौनक, न बच्चे खेल सकते हैं यहाँ वहां जहाँ मन करे! सारे समय हमें खड़े रहना होता है सावधान की मुद्रा में! जाने कब क्या हो जाए! जीना मुश्किल कर रखा है इनकी कौम ने! बाहर करो इन साले मुसल्लों को!”
बिस्मिला के पाँव पत्थर हो गए. रुक गया वहीँ का वहीँ! पहले तो उसे विश्वास न हुआ, लेकिन बातें साफ़ साफ़ सुनाई पड़ रहीं थीं! एक एक शब्द पिघले हुए शीशे की तरह कानों में उतर रहा था. यही वह गाँव था जिसे क्षण भर पहले अपनी बाहों में समेटे, बिस्मिल्ला गेंद सा, गुब्बारे सा उड़ता जा रहा था! यही वह दुनिया थी जहाँ वह साकार करने जा रहा था अपने सपने! फिर ये उसकी सोच, उसकी हसरतों, उसके हौसलों, उसकी उमंगों के पर, कौन नोच गया एक ही झटके में? विचित्र सा कोई जीव, कुतरने लगा अचानक कुछ उसके भीतर भी! कौन, क्या, कहाँ, कैसे, कब……… क्यों…..? उसके लिए एक पल भी वहां खड़े रहना असह्य हो गया! वह फौरन चला जाना चाहता था, चाहता था आगे बढ़ जाना लेकिन कैसे बढ़ जाता आगे? अब तो उसकी ज़िम्मेदारी हो गयी थी सुनना, जो कहा जा रहा था वहां उसे! कितनी दर्दनाक ज़िम्मेदारी! वह रत्ती भर न चाहता था उनकी नफरत से रुबरू होना! लेकिन जाने क्या बन रहीं हों योजनाएं उनकी सचमुच! अब्बू की बात हथौड़ी की तरह उसकी कनपटियों पर बजने लगी. और इधर शांत भी न हुआ था घृणा के ज़हर का उगला जाना! जबकि कोई कोशिश कर रहा था किसी को समझाने की,
“ठंढ रख मेरे बेटे हरदयाल! अपना काम देख! क्यों मार काट पर उतारू है? जो सात पुश्तों से बसे हैं, उन्हें उजाड़ने से पहले खुद को बसा! कुछ अच्छा कर पुत्तर!”
उस दर्द भरे आक्रोश में उबलते, खौलते खामोश खड़े बिस्मिल्ला को पल भर के लिए हंसी आ गयी, लेकिन अगले ही पल खराश भरी एक जवान आवाज़ ने उस मुस्कुराहट की सारी तरलता सोख कर उसे बर्फ का पत्थर कर दिया।
“चुप कर बुड्ढे! कभी असल काम की बात करने ही नहीं देता! जब देखो तब अमन चैन की दुहाई! अरे! भूखे पेट कैसे बहाल होगी शान्ति?”
“बेटे, तुझे ऐसी कमी पड़ी है रोज़गार की!? कि गाँव वालों के खून के पीछे पड़ा है?”
यह फिर से एक उम्र दर आवाज़ थी, जो उम्मीद की किरण की तरह उभरी थी, लेकिन जिसे फौरन ही फिर एक खराश भरी, खुँखार सी जवान आवाज़ ने चुप कर दिया था.
“आप भी काका! क्या सारी बात खाने पीने, इन्हें जुटाने की ही कमियों की होती है? चलिए, कमियों की बात करें! अभी कहा, जगह कम है! कितनी दर्ज़ियों की दुकानें खड़ी हों, इस इतनी सी जगह में? दर्ज़ी इनका है! हमारी बहू बेटियों को हाथ लगा रहा है! इतनी सी सुरक्षा नहीं है और आप पूछ रहे हैं, तुझे कमी क्या है?”
“बेटा, दर्ज़ियों को माप लेनी होती है, छू गया होगा हाथ उसकी देह से, इंच टेप से मापते! हो सकता है लड़की हिल गयी हो!”
बूढ़े का इतना कहना था कि कमरे में बवाल हो गया! बवाल क्या हो गया, विस्फोट हो गया!
“यानी हमारी लड़की हिली होगी! उस नासपिटे, करमजले दर्ज़ी का हाथ न हिला होगा!” बस ये एक वाक्य जवाबी सुनाई पड़ा बूढ़े का, और उसके बाद की सारी आवाज़ें शोर के बवंडर में डूब गयीं! ऐसा कुहराम मचा कि बिस्मिल्ला डर गया कहीं मारामारी न हो जाए और बूढ़े ज़ख़्मी, हताहत न हो जाएँ! लेकिन खुदा का शुक्र, पांच मिनट के बाद तूफ़ान पर कब्ज़ा पा लिया गया!
“”ये देखो, अपने बड़ों का तो तुम लिहाज़ न कर पा रहे, चले हो दुनिया भर को सभ्य बनाने!”, किसी तरह उस भयानक दानवी चीख पुकार के ऊपर एक आवाज़ उभरी और हावी हुई! शोर गुल को थमाती हुई लम्बी बातें करती रही. बहस चलती रही! थमने का नाम नहीं! दिन आधा बीतने को!
इसी जासूसी में खड़ा रहेगा बिस्मिल या कुछ काम धंधा करेगा? बिस्मिल खड़ा खड़ा उकताने लगा! लेकिन सुनना ज़रूरी था! क्या मालूम क्या फैसला हो? क्या दिन आ गए थे! अपने ही गाँव में अजनबियों की तरह, परायों की तरह, अपने वहाँ होने के बारे में होती हुई बातों को सुनते! वह कौन खड़ा था जीने-मरने, मरने-मारने की सी धुक धुक लिये सीने में? बिस्मिल्ला ने एक बार गौर से खिड़की के बाहर खड़े शक्स को देखा, बिना आईना खुद को, कुछ से कुछ होते हुए! एक एक उछाले जाते शब्द में आने वाले दिनों के सुराग पकड़ते हुए! आखिरकार , बातें खत्म हुईं! खैरियत बस इतनी कि बातचीत पर बड़ों ने दबदबा बना लिया था। यही तय हुआ था कि बिना सलाह मशविरा कोई ऐसी हरकत नहीं करेगा जिससे दूसरे समुदाय के साथ झगड़ा हो!
किसी के भी कमरे से बाहर निकलने से पहले, बिस्मिल्ला दबे पाँव लेकिन तेज़ कदम चलता आगे बढ़ता दूर हो गया। उसे होना चाहिए था आश्वस्त कि खून खराबा टल गया था, ऐलाने जंग भी नहीं हुआ था लेकिन उसका दिल उस समंदर में डूबते सूरज सा हो रहा था जिसे उस समंदर में तैरना न आता हो! काम पर पहुंचा तो दिन ढलने को था। सैलानियों को उसने पहले ही फोन से इत्तला कर दोस्त के साथ भिजवा दिया था। फिर आया ही क्यों? एक अजीब से सवाल के साथ, एक अजीब सी मायूसी ने आ घेरा! अब आ गया था तो लौटते में स्वागत तो कर ले! सोचकर बैठा रहा! सैलानी आए तो एक हल्की सी मुस्कुराहट चेहरे पर आकर फक्क से बुझ गई! फिर भी, पूरे अदब, पूरी फरमा बरदारी से बिस्मिल्ला ने उन्हें दुआ सलाम किया, घोड़े पर बिठाया और कैम्प लाकर होटल तक जाने वाली बस में चढ़ाया! फिर अनमने भाव से घोड़े की लगाम पकड़ कर उतरने लगा पहाड़! पहाड़! उसके मित्र, उसके सखा, उसके हमदम!
इनके अलावा, वो तो जानता ही नहीं किसी को दुनिया में! बिस्मिल्ला का कलेजा फ़ट रहा था! ये पहाड़ न हुए तो वो भी न होगा! बिना पहाड़ के क्या बिस्मिल्ला?! ढलान उतरते एक हल्का सा सुकून उसे घेर रहा था। लेकिन साथ ही एक अजीब सा हल्कापन तारी हो रहा था, जो सचमुच कुछ अलग, बे-ठीक सा महसूस हो रहा था! फ़र्ज़ कीजिये, अगर वो गश खाकर घाटी में गिर पड़ा तो पहाड़ होंगे और बिस्मिल्ला नहीं! एक टेढ़ी मुस्कराहट आकर उसके होठों पर जमी तो जमी ही रही! उतराई की लम्बी पगडंडी पूरी कर, जब वह वापस अपने शहर, अपनी बस्ती में दाखिल होने लगा तो उसके होश कुछ उड़े उड़े से थे। उसने पहले मस्जिद जाने का सोचा था लेकिन कदम खुद ब खुद घर की ओर मुड़ गए।
अम्मी को देखकर, उसकी सोच के तार कुछ इसतरह जुड़े कि ख़्याल आया कि उसने सुबह से कुछ खाया न था! खाने के बाद उसकी देह ज़ोर ज़ोर से बिस्तर पर पड़ जाने की मांग कर रही थी, नींद संकेत के सारे सिग्नल तोड़ कर तारी थी, थकान किसी नदी के बाँध तोड़ कर उमड़ने की तरह खड़ी थी सामने, लेकिन बिस्मिल्ला का मन न माना! उठा और किसी मशीन की सी यंत्रवत गति से चल दिया मस्जिद की ओर! मस्जिद के बाहर की चहल पहल देखकर ही आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता था कि भीतर क्या कुछ हो रहा होगा! महफ़िल पूरे रौ में थी! हालाकि मुल्ले का आसन उस वक़्त खाली था! माइक से बोलने की जगह खाली! यह न नमाज़ का वक़्त था, और न उस तख़्त से पढ़ाये जाने वाले दूसरे किसी पाठ का! लेकिन लोगों ने ही संभाल रखी थी सारी कमान! कोई कमी न थी नफरत के व्यापार में!
सुबह वह इन्हीं लोगों के लिए कटुए की गाली सुनकर आया था! अब ये लोग उससे कहीं ज़्यादा भद्दी गालियां दे रहे थे. बातें ही गालियों की बौछारों से हो रही थीं. छोटे छोटे किशोर लड़कों के मुंह पर माँ बहन की गंदी गालियां थीं.
“मैं तो ये न समझ पाता हूँ कि उस दर्ज़ी ने धर क्यों न दबोचा लड़की को? उतार देता कपड़े सारे! हम भी तो देखते ज़रा! आखिर, बात क्या है!? जो होता उसे देख लेते बाद में, पहले वह तो देखते! रंडी कहीं की!”
और हंसी का एक फूहड़ सा फ़व्वारा मस्जिद की दीवार से टकरा कर, गुंबद की ओर उछला और बिस्मिल्ला के भीतर गोल गोल चक्कर काटने लगा!
लोग अबतक छोटे छोटे ग्रुपों में खड़े थे लेकिन हँसी सुनकर इक्क्ठे होने लगे! शायद दो दिनों के तनाव, गाली गलौज के बाद का यह वह वीभत्स चरम बिंदु था जो हर दंगे में ज़रूर प्रकट होता था! जाने अब बातों का रुख़ किस ओर हो?
बिस्मिल्ला को उबकाई जैसी आने लगी! लेकिन जब सब साथ हुए, किसी ने बातों को बहुत अराजक बनने से रोका! “तुम्हारे नहीं तो हमारे घर में जवान लड़कियां हैं, ज़बान संभाल कर बात करो!” मामला संगीन हुआ! और फिर मौकाए वारदात पर लौट गया! “आखिर, उस दर्ज़ी ने किया क्या था? ये भी तो हो सकता है कि लड़की झूठ बोल रही हो! कौन जानता है? और फिर एक मामूली सी, ज़रा सी छुवन पर ऐसा और इतना हंगामा!
सरे-बाज़ार शहर के चौक पर निकाले का फरमान टांग दिया! ये होते कौन हैं हमें शहर से बाहर होने का हुकुम बजाने वाले? बाप हैं या दादा शहर के? या इलाके के पूरे?” बोलने वाला पूरी रौ में था, लेकिन एक फिर ठहाके का समवेत स्वर उठा और मस्जिद की सलाखों से टकरा कर गूंजने लगा! बिस्मिल्ला मस्जिद से बाहर हो गया! आया किसलिए था वह यहाँ? कैसा दिलासा ढूंढने? किस निदान की उम्मीद थी उसे, उनसे जिनकी अपनी कोई दृष्टि, कोई सोच नहीं थी? जिनके पास कोई योजना नहीं थी कि कल अगर सचमुच बिगड़ा मामला तो बचाव की क्या तरकीब निकालेंगे वो?
अपनी सोच में इतना गुम था बिस्मिल्ला कि अपनी पदचाप तक न सुनाई दे रही थी! लेकिन अपनी ही गली में मुड़ते, उसे किसी और की तेज़, करीब आती पदचाप सुनाई पड़ी! खुद ब खुद, उसकी गति तेज़ हो गयी! लेकिन पीछे वाला तो दौड़ लगाने पर आमादा था! उससे भी तेज़ चलने लगा! यह ठीक उसके घर से एक घर पहले हुआ कि पीछे वाले ने उसे ऐसे ही ओवरटेक कर लिया जैसे एक फ़िल्मी दृश्य में अमिताभ बच्चन मौसमी चैटर्जी को ओवरटेक करते हैं! अपने ही घर के आगे, सन्न खड़ा रह गया बिस्मिल्ला! कदम ताल करता मिलाता, पीछे वाला आया, पल भर को साथ हुआ और पल भर में आगे! होगा कोई जल्दी में! उसे क्या? उसकी क्यों बढ़ी हुई है हृदय गति? क्यों वह यों बेहाल-निढ़ाल सा खड़ा है अपने ही घर के आगे? एकबार फिर, बिस्मिल्ला ने खुद को देखा! फिर दाखिल हो गया घर के भीतर, बिना किसी सोच विचार के!
बैठक में दीवान पर कम्बल ताने पड़े थे अब्बू! ‘जाने ये क्या करते होंगे मस्जिद में?’, ख़्याल आया गया करते हुए बिस्मिल्ला ने गौर किया कि अब्बू ने बहुत कम कर दिया था मस्जिद में वक़्त बिताना! वह फौरन अंदर हो जाना चाहता था, लेकिन अब्बू ने पकड़ लिया, “कहाँ हो मियां? क्या हाल?”, फिर ज़रा रुककर, उसे गहरे देखकर पूछ ही लिया उन्होंने, “अरे बरखुरदार, तुम्हारे चेहरे पर तो हवाईयाँ उड़ रही हैं!”, वो कंबल में उकडूँ होकर बैठ गए!
“”कुछ नहीं अब्बू, सब ठीक है. आप सो जाएँ”, बिस्मिल्ला बोला तो उसे संयत लगी अपनी आवाज़, भीतर के बिखराव से अलग, कुछ कुछ उसे समेटती हुई.
लपकता हुआ वह भीतर हुआ, और फौरन बहनों के कमरे के बंद दरवाज़े पर दस्तक दे डाली। बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये, दरवाज़ा उसने खोला तो दोनों को अपने और किताबों में मशगूल पाया! ‘कैसा चल रहा है कॉलेज?’, जाने पूछते हुए उसकी आवाज़ में वह रोबीलापन, वह दबदबा, कहाँ से आया? बचपन से उसने अधिकार जाना है इन बहनों पर! जान छिड़कता है इनपर!
“सब खैरियत है भाई जान! सलाम आपको!”, बहनें चहकीं तो उसे देखकर, लेकिन क्या वह उनकी आवाज़ में किसी किस्म के ख़ौफ़, चिंता की किसी लकीर की आहट भी देख, सुन पा रहा था? क्या ज़रूरत से ज़्यादा इत्तला हो गयी थी उसे? क्या ज़रूरत से ज़्यादा तरजीह वह दे रहा था उन अफवाहों, बतकहियों को जो खबर होने का गुमान पाल रहीं थीं?
“बनी रहनी चाहिए ख़ैरियत ही, लगी रहो पढ़ाई में! ध्यान ज़रा इधर उधर नहीं!” घंटों में पहली बार बिस्मिल्ला के चेहरे पर सुकून उतरा! साधिकार उसने दरवाज़ा धम्म से बंद किया और किचन में जाकर अम्मी को यों समेटने लगा जैसे घाटी से फूल! अम्मी ‘अरे अरे’ करतीं रही, और बिस्मिल्ला ने ला पटका उन्हें उनके बिस्तर पर! बत्ती बुझा दी उनकी भी, और फिर जो अपने कमरे में जाकर पड़ा तो जैसे उसे होश नहीं! कुछ सोचने, समझने का अवकाश नहीं। थकान थी, काम था, वह था और थे नींद के घंटे! जागा तो ज़रा वक़्त लगा उस दिन में लौटने में, उस दिन में जिसके पहले दो दिनों की हलचल, आमादा थी होने को उसपर हावी, लेकिन शायद उसे होने न देना था वैसा! शायद टल गया था, दिनों के खौफनाक होने का संकट! बिस्मिल्ला एकबारगी क्या, दिन के ऊपर चढ़ते, आगे बढ़ते भी तय न कर पाया कि वह खुश था या दुखी, आश्वस्त या आशंकित, ख़ौफ़ज़दा या बेख़ौफ़?
उस दिन की केवल एक तयशुदा बात थी, उसे काम पर पहुंचना था वक़्त पर! क्यों होना था कुछ भी और तय? सारी बातें झटक कर, बखूबी तैयार, बिस्मिल्ला माप रहा था पहाड़ तेज़ कदम! पहुंचा तो उस दिन बिस्मिल्ला भी सैलानियों के साथ साथ पहुंचा! पहुँचते ही जुट गया आवभगत में! कोई कसर नहीं! बस उसके सहकर्मियों ने गौर किया गायब थी उसके चेहरे पर हमेशा सजी वह स्वाभाविक मुस्कुराहट! किन्तु, यह आपसी बातचीत का समय न था! एक तो सैलानी उस दिन ज़्यादा थे, उसपर जाने सूरज के मन में क्या था, बार बार छिप रहा था बादलों में!
दोपहर होते होते बारिश शुरु हो गयी, आधी हो गयी घोड़ों की गति! लोग डरने लगे! उम्र दर सैलानी लौटने की बात करने लगे! लेकिन किसी भी राह में, आधी दूरी तय कर चुकने के बाद, लौटना उतना आसान नहीं होता, जितना लौटने का ख्याल आसान होता है! बिस्मिल्ला को महारथ हासिल थी, फिसलन वाली ज़मीन पर घोड़े संभालने में! दूसरे सारे घोड़े वाले उसका लोहा मानते थे! मिलजुलकर एक एक कर घोड़े उतारते देर शाम हो गयी! घोड़े वालों की तो पूछो न, सैलानी थक कर चूर! सबको बस में चढ़ाते चढ़ाते काफ़ी देर हो गयी. अँधेरा घटाटोप छा गया. शाम गहरा कर रात की कालिमा में तब्दील होने लगी. घोड़े वालों के पास साथ बैठ कर चाय तक पीने का समय न था. कुछ खा पीकर तरो ताज़ा होते तो कुछ आसान होती लौटने की लम्बी राह! ये उनका रोज़ का नियम था. कल बिस्मिल्ला गाँव की तनातनी की वजह से न रुक पाया था. सो थकान दुगुनी होकर उसपर तारी थी. यही उसके जिगरी दोस्त थे, जिनके साथ रोज़ का उठना-बैठना, चलना-फिरना, खाना-पीना, बोलना-बतियाना था. लेकिन इनसे भी कुछ न कह पाया था बिस्मिल्ला! वैसे भी, वह कम बोलने, ज़्यादा सुनने वाला शख्स था. ये सारे हिन्दू थे, इनके बीच वह अकेला मुसलमान! यह ख्याल भी उसे पहली बार आया था! वह तो सोया करता था, इन्हीं में से किसी के बारामदे-ओसारे, दूरा-दालान पर! कभी इनके, कभी उनके, जिनके-जिनके घर पड़ते थे रास्ते में! सब खिलाया करते थे उसे घी में डूबी रोटी, प्यार से!
उसी का गाँव था सबसे नीचे! सबसे लम्बी राह उसी के आगे थी. और उस दिन टॉर्च तक न था बिस्मिला के पास! “कोई गल नहीं!”, राधे श्याम आधा पंजाबी होने का दम भरता था. उसके बाप दादे जाने कब पंजाब से घूमते-घामते यहाँ आ पहुंचे और यहीं के होकर रह गए. ‘जो भी पहाड़ी नहीं हैं, यही तो उनकी कहानी है!’, अक्सर चहका करता था राधे! हाँ, राधे ही बुलाया करता था बिस्मिल्ला उसे! शायद वही था उसका सबसे जिगरी दोस्त! शायद क्यों? वही था ही! शायद पर क्यों अँटक जाती थी इन दिनों उसकी बात? इन दिनों? नहीं तो! बस दो ही दिन तो पुराना है ये सारा अँटकाव, फँसाव! लाईट जला ली राधे ने! ‘सदा बहार उसका टॉर्च’, बिस्मिल्ला को याद आई पहले की चुहल! दाएँ हाथ में ऐसे थामी थी टॉर्च राधे ने कि ठीक बीच में पड़ रही थी रौशनी! यानी राधेश्याम के आगे नहीं थी रौशनी, अगर आगे थी तो बिस्मिल्ला के ही! दर असल, दोनों की बगल में थी लेकिन चूँकि बिस्मिल्ला पीछे था, रौशनी उसी के आगे थी, ऐसे ही थामी थी टॉर्च राधे ने! नीचे ज़्यादा बारिश हुई थी शायद। ज़मीन बेहिसाब गीली थी। पता नहीं चलते चलते बिस्मिल्ला को झपकी आ गई, या झपकी आ गई उसके घोड़े को, या नाल निकल गई घोड़े के खुर से, या लगाम ढीली हो गई बिस्मिल्ला की, या ज़मीन खिसक गई , उसका पैर फ़िसल गया। पल भर में, वह होता पहाड़ की शाश्वत गोद में, चिर निद्रा में सोया हुआ, लेकिन घने अन्धेरे से राधेश्याम का हाथ निकला और बिस्मिल्ला को उसने इस मज़बूती से थाम लिया जैसे पेड़ की जड़ पकड़े होती है ज़मीन! दोनों फ़िसले घोड़े समेत और गिरे धडाम, लेकिन उधर नहीं, इधर! खाई में नहीं, पहाड़ की पगडंडी पर! घोड़े समेत! गीली लेकिन सख्त ज़मीन पर! लथपथ कीचड़ में! हिनहिनाने लगे घोड़े! राधेश्याम ने ही पलट कर उन्हें सीधा बिठाया! ‘तू बहुत थक गया बिस्मिल! चल थोड़ी देर यहीं बैठते हैं। यों पैर लटकाये!”
हज़ारों फीट की घाटी में पैर लटका कर चैन से बैठ गया राधेश्याम!
बिस्मिल्ला चित्त लेटा का लेटा! फिर धीरे-धीरे रेंगता पहुंच घाटी के कटाव तक, और कुहनियों के बल ऊपर उठ कर साथ हुआ राधेश्याम के! “हाँ, आज यहीं सो जाते हैं! देख कितनी खूबसूरत हैं घाटी की बत्तियां!”, बिस्मिल्ला ने कहा, और दोनों हँस पड़े! लेकिन घुप्प अन्धेरे में बिस्मिल्ला ने जाना कि आँसू की दो बड़ी मोटी लकीरें दोनों आँखों से बह निकली हैं। बिस्मिल्ला ने उन्हें पोंछने अथवा रोकने का कोई प्रयत्न न किया! दुबारा चलने से पहले, वह रो धो कर तरो ताज़ा हो जाना चाहता था।
संपर्क : ए-204, प्रकृति अपार्टमेंट्स, सेक्टर-6, प्लॉट नंबर 26, द्वारका, नई दिल्ली-110075; मोबाइल : 9508936173 ; ई-मेल : nilirag18@gmail.com
“पंखुरी सिन्हा की ‘नोटिस’ समकालीन भारत की सांप्रदायिक, सामाजिक और राजनीतिक चिंताओं की एक मार्मिक, संवेदनशील और अत्यंत विचारोत्तेजक कथा है। इसमें जिस सूक्ष्मता और संवेदना से बिस्मिल्ला खाँ जैसे पात्र के माध्यम से ‘नोटिस’ की नुकीली त्रासदी और सामूहिक सह-अस्तित्व पर मंडराते संकट को दिखाया गया है, वह साहित्य के दायरे से निकलकर हमारे समय की जमीनी हकीकत बन जाती है।
कहानी एक पहाड़ी ग्रामीण कस्बे में घटित होती है, लेकिन यह स्थान विशेष नहीं बल्कि पूरे भारत के अनेक हिस्सों की प्रतिनिधि जगह बन जाता है। जिस तरह “बद्री-केदार”, “पर्वत पुत्री पार्वती”, “जटायु”, “सम्पाति” आदि की सांस्कृतिक आस्था का संदर्भ देकर ‘मुसलमानों’ की ज़मीन पर दावेदारी नकार दी जाती है — वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उस राजनीति को उजागर करता है जिसमें धार्मिक पौराणिक कथाओं को भूमि अधिकार के औज़ार की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
बिस्मिल्ला कोई वक्ता नहीं, नायक नहीं, मसीहा नहीं है — वह एक आम नागरिक है जो ईमानदारी से अपने काम में लगा है, अपने परिवार के लिए जी रहा है और अपने पहाड़ों को, अपनी ज़मीन को पूरे दिल से प्यार करता है। लेकिन जब वह ‘नोटिस’ पढ़ता है, तो उसका यह सहज जीवन असहज, अस्थिर और असुरक्षित हो उठता है। यह वही क्षण है जब कोई व्यक्ति पहली बार ‘अपने घर में पराया’ हो जाने का अनुभव करता है।
एक ओर साम्प्रदायिक नफरत के खुले इज़हार की भयावहता है, दूसरी ओर बिस्मिल्ला के अब्बू की बेबसी और आत्मरक्षा की अधीरता है, तीसरी ओर गाँव के भीतर कुछ सधा हुआ संवाद भी है जो अमन और न्याय की ओर इशारा करता है, और फिर है बिस्मिल्ला की खुद से और समाज से मूक लड़ाई, जो कभी क्रोध, कभी विवशता, कभी व्यंग्य और कभी पीड़ा में बदलती जाती है।
पंखुरी सिन्हा की भाषा में व्याकरणिक संतुलन और मुहावरेदार प्रवाह तो है ही, लेकिन उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है उसका मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना। हर वाक्य जैसे एक दिल से निकली पुकार हो, एक थरथराती चेतावनी हो, या फिर एक टूटती उम्मीद को थाम लेने की कोशिश।
बिस्मिल्ला की दुनिया में अगर ‘घोड़े’ हैं, तो ‘घाटियाँ’ भी हैं; ‘तीर्थ’ हैं, तो ‘तटस्थ सैलानी’ भी; ‘घर’ है, तो ‘मस्जिद’ भी। लेकिन अब उस दुनिया में एक भय, एक संदेह, एक अनकहा अपराध-बोध प्रवेश कर चुका है। वह पहाड़ों को अपने “हमदम” मानता है, पर वही पहाड़ अब नफ़रत के दर्रे में दरकने लगे हैं।
यह कहानी ‘लोकल बनाम ग़ैर-लोकल’, ‘धर्म बनाम नागरिकता’, ‘स्मृति बनाम ऐतिहासिकता’, और ‘मूल निवासी बनाम घुसपैठिए’ के मिथकों और राजनीतिक एजेंडा के बीच फंसे आम आदमी की कहानी है।
यह बताती है कि सांस्कृतिक आस्था को यदि ‘मालिकाना हक’ में बदलने दिया जाए, तो वह कितनी खतरनाक और अमानवीय हो सकती है।”–डॉ उर्वशी को अभी अभी छ्पी कहानी ‘नोटिस’ पर इतनी गहरी, प्रबुद्ध, धारदार टिप्पणी के लिए धन्यवाद बहुत, बहुत! सचमुच तहे दिल से शुक्रिया! इतनी बारीक और सटीक व्याख्या कहानी की पढ़ कर अभिभूत हूँ! पात्र की बदलती मनोदशा, जगह और परिवेश की जटिलताएं सब उन तक बखूबी पहुँचे और प्रेषित हैं, इस बात की विशेष खुशी है! मेरी सुबह, मेरा दिन बनाने के लिए आभार! आपकी सम्वेदनशील समीक्षा पढ़ कर लग रहा, कहानी लिखना सार्थक हो गया!