प्रेम से भरा मन
प्यार करने का कोई कारण न था
कोई चेहरा नहीं था
कोई शक्ल-सूरत, कोई आवाज भी नहीं
महज एक परछाईं थी धुँधलाई हुई
जो साथ-साथ चलती थी
उठाती थी मन में हूक
बेचैन किए रहती थी
उम्र का वह उठान
आवेग से भरा वह मन
बेचैनियों की वह नदी
अब, सब कितने पीछे छूट गये हैं
इतने कि पलटकर देखने पर मन हौल उठता है
जो गँवा आए बढ़ती उम्र के साथ
उसे कभी पाया नहीं जा सकता है दुबारा
सिवाय स्मृतियों के
और स्मृतियों में भी वे दिन
उस तरह कहाँ लौटते हैं!
सूरज को ताकने के दिन
साँझ को रात में बदलते देखने के
दिन परछाइयों के पीछे भागने के
किशोरवय के वे तमाम दिन पीछा करते हैं ताउम्र
हर बार लौटते जाड़ों में लौट आते हैं वे भी
गहन रात्रि सिरहाने रखे सेब से महकते हैं
बीते दौर की शामें फिर जाग जाती हैं
जीवन में, स्मृतियों में, जीवंत हो उठती हैं
कैसे!
सिर के ऊपर से गुजरते हैं परिंदे
अबाबील और बगुले
गाढ़ी होती साँझ को
उदासी और अधूरेपन से भर देते हैं
हवा भी लौट आती है बार-बार
बीते दिनों की याद लिए
सहलाती है, छूती है उस तरह कभी
जैसे बरसों पहले छुआ होता है
दिलाती है याद–
कि जीवन पाने से अधिक खोने के लिए है
और जो खोते जाते हैं हम हर क्षण
हर बीतते दिन के साथ
उनमें सबसे पहले खोता है प्रेम
प्रेम से भरा वह मन
जिससे न्यारा इस जीवन, इस संसार में
और कुछ भी नहीं हुआ है!
जैसे प्रेम का नहीं होता कोई विकल्प
तुम्हें देखकर याद आता है अतीत
जो कभी अतीत न हो सका पूरी तरह
याद आते हैं सुख के फूल, उत्सव के दिन
कई बरस पहले का वह अक्टूबर
जब तुम हथेलियों में भरते थे
ओस से भीगे हुए हरसिंगार के फूल
और मैं हर साँझ शहर से लौटते हुए
बबूल के फूलों का
पीलाभ देखते हुए आती थी
प्रेम में डूबी हुई
कितना प्रेम किया मैंने
उस जीवन में तुमसे
और कितनी गहरी पीड़ा पाई!
वह जो एक अलग जीवन
एक अलग संसार था
जिसे याद करके हुए याद आता है यह भी
कि अभी तक जीती कैसे हूँ
क्या इसलिए कि जीने की चाह
मुझमें प्रेम से अधिक रही है
या इस कारण कि मेरे भीतर के साहस से
मैं स्वयं नहीं हूँ परिचित पूरी तरह
या फिर इसलिए
कि जैसे प्रेम का नहीं होता कोई विकल्प
वैसे ही जीवन का भी!
मनुष्य होना कितना यातनामय है
मनुष्य होना कितना यातनामय है
फिर भी मनुष्य होते हैं संसार में
नष्ट होती मनुष्यता के बीच भी बचे रहते हैं वे
भागते नहीं हैं उल्टे पाँव
मुँह नहीं छुपाते हैं उनसे
यातनाओं की शरणस्थली बनते हैं
दीमक की होते हैं जैसे सूख रहे वृक्ष
किताबें और किवाड़ें
खोखले और चूर होकर भी वे वही रहते हैं
भरते हैं उनका सूनापन
उनकी लपलपाती जीभें महसूस करते हैं
अपने भीतर, और भीतर, और भीतर
अंत तक
अभी-अभी जन्में शिशु-सी रक्त गंध से सने रहते हैं!
चहोरा
वे दोनों चहोरा करते हुए मिले थे
चहोरा यानि धान की पौध को
कीचड़ सने पानी में रोपते हुए
पानी से लबालब भरे खेत में भी
शुरू हो सकती है प्रेम कहानी
समाज की ठीक नाक के नीचे
वे यह नहीं जानते थे
अबोध जो थे
वे गीले पांव मेड़ पर संग बैठकर खाते थे नोन-भात
सिर के ऊपर नाचती असंख्य भमींरी
और छाये बादलों को एकटक ताँकते हुए
और फिर खिल-खिल हँस पड़ते थे
एक-दूसरे को देखते हुए
आँखों में भर लेते थे एक-दूजे का रुप
वे नहीं जानते थे
प्रेम की सिर्फ़ शुरूआतेंं लुभावनी हुआ करती हैं
अंत नहीं !
न ही जानते थे यह कि
जाति और धर्म की दीवारें
कितने गहरे तक धँसी हुई हैं
आदमी की मांस-मज्जा में
जिससे होकर मृत्यु तो गुजर सकती है
प्रेम नहीं गुजर सकता
फिर भी वे गुजरे थे
और मारे गए थे
भरे आषाढ़ शुरू हुआ था जो प्रेम
फागुन में उसकी चिता जली थी
धान के लहराते खेतों को देखकर
याद कर लेती हूँ अक्सर उस नाबालिग जोड़े को
और सोचती हूँ उस बरस के उनके लगाये हुए धान को
न जाने किसने चखा होगा उन्हें पकने के बाद!
लाउडस्पीकर
धर्म जिस तरह व्यापार बन गया है
जिस तरह फल-फूल रहे हैं
धर्म और संस्कृति के नाम पर
आडम्बर और अंधविश्वास
उनपर अब अचरज नहीं होता
न ही इस पर
कि यह इन सबका चरम युग है
न ही होता है अचरज
लाउडस्पीकरों की चिल्लाहट पर
विभिन्न धर्मों के अनुयायी जब चिल्लाते हैं एक संग
फहराते हुए शब्दों की धर्म ध्वजा
दिमाग की नसें तड़क उठती हैं
तब लगता है
लाउडस्पीकर का आविष्कार
विशेष रुप से इनके ही लिए हुआ है
लाउडस्पीकर का
सबसे सही इस्तेमाल
इन्हीं के द्वारा हुआ है
इनका ईश्वर जो बहरा हो गया था
लाउडस्पीकर के आविष्कार के बाद
शांति से जीवन बसर करने वाला व्यक्ति
जो किसी आडंबर का हिस्सा नहीं है
अचानक रुक जाता है
जेठ की दुपहरी में सोचते हुए
शहर की एक व्यस्ततम सड़क के किनारे
चंपा की दुबली छाँव तले
खड़े हो जाते हैं क्षणभर को देह के सारे रोंए
सहसा धर्मों के इस महामिलन पर
उन्हें सुनकर हृदय में
प्रसन्नता की लहर नहीं
एक अनजाना भय भरने लगता है
लपलपाने लगती हैं आँखों के आगे नंगी तलवारें
ऐसा लगता है
मानो रणभूमि में युद्ध हो रहा है
चौतरफा उठे उस भभके में
वह चीन्ह नहीं पाता यह भी
कि चंपा की छाँव में खड़े होना भी
स्वयं को एक तरह का धोखा देना है
कि छाँव में खड़े हैं
त्रस्त है वह इतना, ऐसा है पीड़ित
कि कानों पर उँगलियाँ भी नहीं रख पाता
शब्दों के इस महा आडम्बर पर
अतंहीन शोर,उमस,भीड़,धूप,धूल
और गंदगी के बीच ठहरा रहता है वह
उठती-गिरती धड़कनें सँभाले
देखता रहता है धूल सनी आँखों से
कचरे के ढेर पर बैठी हुए गऊएँ
करती हुई जुगाली पॉलीथिन में बंद
तरकारी के छिलकों की
देखता है धूल-धूसरित आँखों से
उनके करुणा और पीड़ा से भरे नयन
क्रूर नियति और भीषण विडंबनाओं की ओर
ढेल दिये गये उनके तन
और आगे बढ़ जाता है
उस अतिरिक्त शोर के थमते ही
जिसको सुनकर ईश्वर भी सहम जाता होगा जरूर
अगर होता होगा उसके पास हृदय
होते होंगे उसके कान
ठीक आदमी की ही तरह!
हिन्दी की युवा पीढ़ी की लेखिका वियोगिनी ठाकुर बदायूँ (उत्तर प्रदेश) से संबंध रखती हैं। वागर्थ, तद्भव, कृति बहुमत, वनमाली कथा, पाखी, कृति बहुमत और इंडिया टुडे सहित विभिन्न पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। एक उपन्यास ‘दूसरा प्यार’ तथा दो कविता-संग्रह ‘लड़की कैक्टस थी’ तथा ‘मैं किसी कालिदास की मल्लिका नहीं’ भी प्रकाशित हैं। उनसे मोबाइल नंबर 8279715328 पर संपर्क किया जा सकता है।
Bahot acchi kavita he. Bahot Bahot Bdhai