अनुवादकविता

फखर ज़मान की कविताएँ

कई बार कुछ चीजें़ पछतावे की तरह आती हैं। वरिष्ठ कवि-लेखक, कथाकार केवल गोस्वामी जी ने ‘सबद’ को फखर ज़मान की इन कविताओं का अनुवाद कुछ समय पहले भेजा था। हम इन्हें प्रकाशित करने की योजना में थे ही कि अभी पता चल रहा है कि केवल गोस्वामी जी बीती 8 जुलाई को नहीं रहे। 

केवल गोस्वामी का जन्म झंग (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। प्रगतिशील लेखक संघ से उनका गहरा रिश्ता रहा। वे भीष्म साहनी के अनन्य सहयोगी भी रहे थे। उनकी प्रकाशित कृतियों में पहली बारिश में, उसकी माँ, बंद कमरों की संस्कृति, एक नदी की देहगाथा, सन्नाटा बुनते हुए (कविता संग्रह), चक्रव्यूह (कहानी संग्रह), खलनायक (उपन्यास), आस-पास की जमीन (व्यंग्य संग्रह) और स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील हिंदी कहानियाँ (समीक्षात्मक कृति) महत्वपूर्ण हैं। उन्हें कृति सम्मान, भाषा मार्तंड सम्मान, श्रेष्ठ बाल साहित्य सम्मान से सम्मानित किया गया था।

‘सबद’ पर उनके द्वारा मूल पंजाबी से अनूदित फखर ज़मान की ये कविताएँ उनके प्रति श्रद्धांजलि के साथ प्रस्तुत हैं :

मेहरबानी जमा शिनाख्त!  

बराए मेहरबानी अपनी शिनाख्त कराएं

मेहरबानी कि हम बे शिनाख्त है 

मेहरबानियों के जंगल मे आग लगी है 

पखेरुओं के पंख जल-भुन ग‌ए है 

और वह उड़ना भूल ग‌ए है 

उडारी भूल ग‌ए और वह बे-शिनाख्त हुए

शिनाख्तों के थल में झंखड़ झूले 

आंखें अंधी हो गई 

आंखें अंधी हुई तो नामेहरबानियो के 

भेद खुल ग‌ए

मेहरबानियों जमा शिनाख्त ने 

ना मेहरबानी जमा शिनाख्त का रुप धर के

हमारे आदर्शों को

एड़ियों तले मसल दिया 

हमारे अस्तित्व को झुलसा दिया 

हमारी मोहब्बतों के ताजमहलों के कगूरो को

शक्कर की तरह भुरभुरा दिया 

और आज हम बेचेहरे बेऊसूले बेराहे 

उखड़ी जड़ों की भुरभुरी मिट्टी 

हथेलियों मे संभाले 

ना मेहरबान शहरों की बिसूरती दीवारों को 

गले लगा कर

बीते समय और भूख की बाहों मे जकड़े 

भुरभुरी मिट्टी मे छिपे पौधे के अंकुरने 

की आस मे 

एक पल के खुले मुंह के अंदर 

 

शिनाख्तों का दूध दूह रहे हैं।

कुछ तो बोलो!  

शहर के सब लोगों ने 

हमें फतवे दिए पत्थर मारे

सिर से पांव तक 

कालिख पोती-पर क्यों-कोई ना बताए 

बड़े लोग-बड़ी बातें-तीखे शूल 

जिंदगी बेचारी दर-बदर ठोकर खाए 

ज़ालिम मारे रोने भी ना दे। 

 

लरजते आंसू-आंखों के दरवाज़े पर 

घोर अचंभित शब्द हैं 

कैसा कैसा शोर मचा है 

इतना शोर किस बात का है?

मुजरिम हूं फिर फांसी क्यों नहीं 

किसका इंतज़ार है कौन आएगा?

आख़री ख्वाहिश नहीं पूछते 

बड़े उसूलों वाले लोग – ज़ालिम 

ऊंचा बोलने वाले 

हमारा गलाघोट कर

घर के मालिक बन बैठे हैं 

इस चुप्पी के ताले खोलने कौन आएगा ?

 

सुनसान रास्ते गैरतमंद पांव की 

झनकार सुननें के लिए तड़प रहे हैं 

अगर वह ताले खुले 

जी भर नाचे सारे

कब आएगा-कुछ तो बोलो।

क्या सभी कुछ व्यर्थ हो जाएगा मेरे बाद!    

अन्य वस्तुओं की बात जाने दो

पर मेरी लायब्रेरी

अजन्मी रचनाओं पर मेरे लेख और टिप्पणियां 

यारो-दोस्तोंचोरों, बुद्धिजीवियों, राजनैतिक कर्मियों

और नेताओं के साथ अनगिनत तस्वीरें

पर मेरी लायब्रेरी

अलमारियों के बाहर उछलती ‌‌‌‌‌‌‌‌‌किताबें 

कुछ धूल सनीकुछ भुरभुरे पन्नों वाली 

कुछ साफ सुथरी किताबें 

उनकी भी जो किशोरावस्था एवं यौवन के बीच

बहुत प्रभावित करते थे 

किंतु आज पढ़ने पर ज़रा नहीं सुहाते 

(क्या मेरी रचनाओं की भी यही मंजिल है?)

किताबें- जो लेखकों ने हस्ताक्षर कर मुझे भेंट की

मैंने हंस कर कहा था इन पर जरुर लिखूंगा 

पर कभी नहीं लिखा ।

किताबें! जिन्होंने सब कुछ सिखाया सब कुछ छीना 

सुनसान रिक्तताओ की पूर्ति 

और मेरे पूरे तन को स्खलित किया 

पर लायब्रेरी का जिसमें हजारों किताबें हैं 

मैं अब क्या करूं! दान कर दूं

अगली पीढ़ी तो फिर अगली पीढ़ी है 

क्या उन किताबों को पड़ेगी?

साइबर-स्पेस के न‌ए विस्तार में 

क्या हमारी रचनाओं का 

कोई अलग बेबसाइट बनेगा 

जिसमें पुस्तकें सिकुड़ कर 

कुछ डिस्को में कैद हो जाएं 

किंतु क्या यह अगली नस्ल की वरीयता होगी?

विचारों के इस भंवर में फंसा

एक ही बात सोचता हूं

या तो किताबें इसी तरह छोड़ कर भूल जाऊं 

या फिर इनका एक बड़ा अलावा जलाऊं 

राख प्रवाहित करूं नदियों में 

या छिड़का दूं सारे देश की धरती पर

और कभी न‌ई सूरत में 

न‌ए रंग और इच्छाओं के साथ 

किताबें अंकुरित हो और तात्कालिक पीढ़ी 

के दिल की आवाज बन सकें

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