कथेतर

एक वर्ग के खुश रहने से देश नहीं चलता : नासिरा शर्मा

नासिरा शर्मा हिंदी की प्रसिद्ध कहानीकार और लेखिका हैं। इलाहाबाद में जन्मी नासिरा शर्मा को साहित्य विरासत में मिला। नासिरा शर्मा ने फारसी भाषा व साहित्य में एमए किया, उर्दू, अंग्रेज़ी और पश्तो भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है, लेकिन उनके समृद्ध रचना संसार में दबदबा हिंदी का ही है। ईरानी समाज और राजनीति के साथ-साथ उन्हें साहित्य, कला व सांस्कृतिक विषयों का भी विशेषज्ञ माना जाता है। वर्ष 2006 में उपन्यास ‘परिजात’ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा हुई। साल 2019 में नासिरा शर्मा को उनके उपन्यास ‘कागज़ की नाव’ के लिये ‘व्यास सम्मान’ से सम्मानित किया गया। 

“सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा, हम बुलबुले हैं इसके यह गुलिस्ताँ हमारा’’ इस शेर के प्रकाश में आप आज के हिन्दुस्तान को किस दृष्टि से देख रही हैं?

“मजहब नहीं, सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा’’

हमारा-तुम्हारा करके क्या हम अपने लक्ष्य में कामयाब होंगे?

किसी हद तक … मगर जो थोड़ा बहुत मलबा देश की शकल में नजर आ रहा है, वह देर सबेर हट जायेगा, मगर जो क्षति पहुँची है उसको बाद में आने वाली सियासत कैसे हैंडिल करेगी, यह भविष्य ही बताएगा। इस देश की जड़ें बहुत गहरी हैं। उसे खोदते-खोदते कई पीढ़ियाँ मर-खप जायेंगी और नतीजा कुछ नहीं निकलेगा सिवाए बर्बादी के और उस बर्बादी की पूर्ति में कई दशक और निकल जायेंगे।

आपने दो तीन वर्ष पहले मेरे एक सवाल के जवाब में कहा था कि मौजूदा सरकार काम की शुरूआत तो बड़े ढंग से जनता की उम्मीदों के अनुसार शुरू करती है परन्तु अंत दुखद हो जाता है जैसे महाकुम्भ और अब होली?

जी, मेरा अवलोकन तो यही कहता है। चुनाव से पहले राममंदिर निर्माण और आलीशान स्थापना के बाद सरकार अयोध्या में चुनाव हार गई। उसके कारण बुनियादी रहे, जो जनता के पक्ष में न जाकर उनके उजड़ने का कारण बन गए। आम जनता राजनीति नहीं बल्कि रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा व सेहत चाहती है। जब उससे यह सब छीना जाने लगता है या नहीं मिलता तो उन वायदों के पूरा न होने पर रुष्ट हो जाती है, जिसकी उम्मीद पर उसने वोट दिया था। महाकुम्भ का भी अंत प्रचार व प्रसार की अधिकता के कारण सुखद नहीं रहा। इलाहाबादियों के खून में जिस तरह गंगा-यमुना बहती है उसी तरह हिन्दू मुसलमान के प्रति उसका लगाव और सरोकार धड़कते हैं। एक विशेष सोच वालों ने मुसलमानों का बहिष्कार धर्म की आड़ में आर्थिक रूप से उन्हे कमजोर करने के लिए जो कदम उठाया वह कामयाब तो हुआ मगर वह आम हिन्दू श्रद्धालु की त्रासदी मे समाप्त हुआ; अच्छा यह हुआ कि मुसलमान के वहाँ न रहने पर वह भी आरोपित नहीं हुए। लेकिन उस मुसलमान वर्ग ने एक दूसरे रूप से महाकुम्भ में शिरकत कर अपने दुख को एक अलग तरह के संतोष से भरा पाया, जब अपने घर-मस्जिद-मदरसे के दरवाजे खोल दिये और उनकी सेवा की, इसमें हमारे ईसाई भाई भी शामिल थे। रिश्ते टूटे तो नहीं थे मगर कमजोर पड़ते गए थे, इन प्रयासों से सद्भावना और मानवता के धागे फिर मजबूत हो उठे। सीलमपुर में जहां जर्बदस्त फसाद हुआ था वहाँ कई मंदिरो की रक्षा मुसलमानों ने की थी। देवा शरीफ में हर साल हिन्दू-मुसलमान मिल के होली खेलते हैं। नवरोज में अक्सर शियों के घरों में रंग खेलने का रिवाज रहा है जो अब नजर नहीं आता है। कहने का मतलब है कि मुसलमानों को रंग खेलने से परहेज नही है लेकिन खुदा की इबादत में पवित्र या साफ सुथरा होना जरूरी है। यह चीज़ें सियासत का रूप धर बैठीं और बुल्लेशाह के तर्ज पर चलने वाले लोगों को भुला एक पुरानी कहावत का नया संदर्भ सामने खुलने लगा ‘भूस में चिंगी डाल जमालो दूर खड़ी’; लेकिन हमारे अस्सी प्रतिशत अवाम तो बुल्लेशाह की तरह ही जीते आए हैं- ‘होरी खेलूंगी मैं कह बिस्मिल्लाह!’

वर्तमान सरकार के सम्बन्ध मुस्लिम देशों से मधुर है। आबूधाबी में मंदिर भी बन गया परन्तु यहाँ अल्पसंख्यक वर्ग के धर्मस्थलों पर सवाल उठाने का जैसे रिवाज चल पड़ा है, पूर्व में मंदिर या हिंदू धर्मस्थल होने के संदेह के आधार पर, क्या आप इसे उचित समझती हैं?

उचित क्यों समझूँगी? अपनी तारीख तो शताब्दियों से विश्वभर की पुस्तकों में दर्ज है उसे आप कैसे मिटा कर नया इतिहास गढ़ लेंगे। यदि आपने अपने देश के लिए नया सपना देखा है तो भविष्य के नवनिर्माण की ओर बढ़ें। अतीत की खुदाई से क्या मिलेगा? यहाँ भी मुसलमानों से नफरत करना सिखा कर अपने देश की एकता, सुदृढ़ता और योगदान को नकार कर भी आपने ’मिनी भारत राष्ट्र’ बना भी लिया तो क्या वह पूरे हिन्द की जनता को सँभाल पाएगा? क्योंकि  सबके सपनों का वह राष्ट्र तो होगा नहीं। पाकिस्तान की तरह क्या एक अपना अलग हिन्दू राष्ट्र हिन्दुस्तान के पेट से जन्म लेगा? हिन्दुस्तान की धरती पर जो भी आया या बुलाया गया वह यही रच बस और मर खप गये। सिवाय अंग्रेजों के उन सब का योगदान रहा देश को यहाँ तक लाने में। उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी सदियों से यहाँ रह रही है। फिर वह किस दृष्टि से बाहर वाले कहलाएंगे? उन्होंने शादियाँ की और पत्नियों के धर्म को अपने महलों में स्थान व सम्मान दिया। लेकिन इस समय जितने मुसलमान है क्या वह सब इन्हीं की औलादें हैं? यह कैसे सम्भव हो सकता है कि आप मुगल, तुगलक और कई और बादशाहों के नाम पर वर्तमान में अपने देशवासियों पर कोड़े बरसाए? जितना धन, बल व प्रचार-प्रसार पर समय व्यर्थ में गवां रहे है उसमें तो भारत नई उपलब्धियों को हासिल कर लेता जो सब के लाभ में जाता। जब सरकार की तारीफ में कुछ कहा जाता तो कि यह सुनने को न मिलता यह तो कांग्रेस के जमाने की योजना थी जो इन्होंने पूरी की है और नाम इनका हो रहा है। अभी दो माह पहले लखनऊ जाना पड़ा; लखनऊ का एयरपोर्ट, शहर की ओर जाने वाली सड़क पर लगे पेड़ सब एक खास सौन्दर्यबोध से भरे अपनी ओर खींच रहे थे। पेड़ों में भी जैसे नज़ाकत व नफासत थी। मुझे योगीजी के योगदान पर अचम्भा हुआ, पता चला यह सब बहनजी और अखिलेश की देन हैं। मैं यह नहीं कह रही हूँ कि इनके प्रोजेक्ट होंगे नहीं या फिर इनका कोई योगदान अपना होगा नहीं मगर जो असंतोष की भावना प्रायः जनता में देखते हैं, वह आपको बेचैन कर देती है। खासकर यह सरकार अपनी आलोचना सुन नहीं सकती है, जबकि आलोचना में एक सकारात्मक तथ्य छुपा रहता है जो आपकी गलतियों और लापरवाहियों में सुधार लाता है और आप बेहतर तरीके से काम को अंजाम दे सकते हैं।

आप इस सरकार को पसंद नहीं करती तो क्या कांग्रेस और आम पार्टी की कार्य करने की शैली से संतुष्ट थीं?

मैं किसी पार्टी को पसंद या नापसंद नहीं करती न ही किसी पार्टी की मिम्बर हूँ। मैं उस व्यवस्था पर असंतोष व्यक्त करती हूँ जो किसी भी सरकार के कार्यकाल में जनता के लाभ में न जाकर उनके नुकसान में हो। इन्दिरा गांधी को जहाँ हमने पसंद किया उन्हें आयरन लेडी का नाम दिया वहीं उनके अनेक राजनैतिक फैसले ऐसे रहे जिनकी हमने खुलकर आलोचना की। उसी तरह वर्तमान सरकार की करते हैं। इस सरकार में भी कई मंत्री पढ़े-लिखे और समझदार है लेकिन जब आप देश और पार्टी के बीच में देश को न चुन कर पार्टी को चुनते है तब मामला व्याापक न होकर संकीर्ण हो उठता है। पार्टियों की टकराहटें शुरू हो जाती है और बीच में जनता मूक दर्शक बन जाती है। आखिर वोट न देकर वही तो पुरानी पार्टी को गिराकर मनचाही नई सरकार को चुन कर लाए है। बुद्धिजीवी भी दो भागों में बंट चुके हैं। कुछ अवसरवादी हैं, जो दोगली जबान बोलते हैं और हर पार्टी के करीब रहना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार चाहे जो भी हो उसके और जनता के बीच कितनी सहकारिता है, उसे भी हमें देखना है कि हम बतौर नागरिक स्वयं कितने जागरूक है, अपने कर्तव्य और परिवेश के प्रति? बेसिक हाइजीन के प्रति तो बिल्कुल नहीं, कूड़ा एवं मलबा हवा को कितना दूषित करता है और मिट्टी के उपजाऊपन को नष्ट करता है, यह तो एक मामूली उदाहरण है।

आम आदमी पार्टी तो झाड़ू के साथ ही एक नया संकल्प लेकर आई थी। उनके झाडू़ देने के कारण हमारे प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत अभियान की मुहिम गांधी जी को जोड़ते हुए चलाई थी। कूड़ेवाली गाड़ी भी बड़े संगीतमय ऐलान के साथ मोहल्ले-मोहल्ले चलाई जाने लगी गयी है। सड़क किनारे सूखे-गीले कूड़ों के बड़े-बड़े कूड़ादान भी रखवाए गए, फिर ऐसा क्यों है कि कूड़ा सिमट ही नहीं पाता है?

यही तो मैं कहना चाह रही हूँ कि हर बात की जिम्मेदारी आखिर सरकार के मत्थे क्यों मढ़ दी जाती है। जहाँ उसे आम नागरिक के सहयोग की जरूरत पड़ती है। रहा आम आदमी पार्टी का सवाल, तो वह आपस में भिड़ती रही और सरकार की शिकायतें करती रही। गोकि उसने कुछ कदम ठीक उठाए मगर घर-घर शराब और मुफ्त बस सर्विस जैसे बेबुनियाद योजनाएँ चलाकर जनता का उद्धार नहीं कर पाए जहाँ उनसे उम्मीद बंधती वही पर निराशा हाथ लगती।

अब तो अकेली बी.जे.पी. दिल्ली में है। उसके बारे में आपके विचार क्या है, क्या वह अब बेहतर काम करेगी?

मैं इस दृष्टि से खुश हूँ कि अब सिर्फ बी.जे.पी. सरकार दिल्ली में है, कम से कम इनकी आम आदमी पार्टी की भिडंत व आरोप-प्रतिआरोप का सिलसिला तो समाप्त हुआ और अब सत्ता सरकार अपने किये धरे की खुद जिम्मेदार व जवाबदेह होगी। साथ-ही-साथ यदि वह कांग्रेस से दिमागी रूप से स्वतंत्र हो जाए तो और भी अच्छा है, साथ ही वह इस हकीकत को समझे कि वह अब विपक्ष में नहीं बल्कि सतारूढ़ पार्टी है और उसे अपने देशकाल के महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर देते हुए गूढ़ समस्याओं को हल करना है। केवल एक वर्ग के खुश रहने से देश नहीं चलता है।

जैसे….?

एक समस्या हो तो कहा जाए, यहाँ तो समस्याओं का ढेर लगा हुआ है। बेकारी, गरीबी, भ्रष्टाचार तो भारत में स्वतंत्रता के बाद से न समाप्त होने वाली समस्याएँ हैं, जिसका ग्राफ घटता-बढ़ता रहता है। शिक्षा और स्वास्थ्य का भी कोई बेहतर हल नहीं है, तो भी सरकारी स्कूल व अस्पताल का दशकों पहले जमाया अस्तित्व बाकी है, मगर दोनों की संख्या बढ़ाने की आज सख्त जरूरत है, जिस पर काम नहीं हुआ है और प्राइवेट अस्पतालों एवं स्कूलों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। वैसे आम आदमी पार्टी की मोहल्ला क्लीनिक एवं शिक्षा के क्षेत्र में जो उनका सकारात्मक योगदान रहा, उसकी तारीफ और चर्चा दोनों रही परतु वह भी एक जगह ठहर सी गई। कोविड-19 के बाद बीमारी और डाक्टरों से डर लगने लगा है, जबकि बड़ी संख्या में डाक्टरो ने भी मरीजों की सेवा में अपनी जान गंवाई है। उन दिनों यह अहसास जागा था कि हमारे पास अचानक टूट पड़ने वाली आपदा के लिए कोई भी इन्तज़ाम नहीं है। खुद़गर्ज़ और लालची लोगों ने किस तरह मुसीबतजदा लोगों को लूटा था, जिसे देखकर इन्सानियत पर से विश्वास हिल गया था। वहाँ दो बातों को लेकर चेतना जागी कि एक दूसरे की मदद करने वाले मानवतावादी सोच के लोग धर्म को भूल भूखों के लिए छोटे-बड़े पैमाने पर रोटी मुहैया कराने और लावारिसों के शवों का अंतिम संस्कार करने से पीछे नहीं हटे। इसी मेलजोल और आपसी मानवीय रिश्तों को तोड़ने की जिस कोशिश में सियासत लगी हुई है, वह देशहित में नहीं है और जो खुद उनके लिए जल्द ही पैरों की बेड़ियाँ बन जायेगी। आडवानी, पत्रकार अरुण शौरी और जाने कितने ऐसे लोग हैं, जिन्होंने पहले जहर बोया और अब उस लहलहाती खेती की आलोचना कर रहे हैं।

आपने कभी राजनीति में आने के बारे में सोचा?

हाँ, सोचा था! आफर भी मिला था। जब सोचा था तो लगता था कि मैं कर ले जाऊँगी मगर जब समझ आया तो महसूस हुआ कि मैं जिस तरह की खुली अभिव्यक्ति वाली, बन्दिशों को तोड़ने वाली और अपने विचारों में अडिग हूँ, उसको देखते हुए मुझे राजनीति रास नहीं आयेगी। पार्टी के फेवर को गलत न कह पाना, एक खास फ्रेम में रहना, पार्टी बदलना, अपने बस की बात नहीं है। मेरे लिए लेखन में सियासी मुद्दो को उठाना उचित रहेगा। मेरी इच्छा और अवसर के बीच राजनीति ने अपना चेहरा काफी बदल लिया था।

इस समय तो विचित्र स्थिति है।

पूरे विश्व में एक अजीब नकारात्मक राजनीति का वर्चस्व है और दूसरी ओर उसी राजनीति में इतना विकास और उन्नति का जलवा है कि वहाँ सुख-सुविधा के सारे साधन, मानवता को ताक पर रख अपनों के लिए बने कानून, दूसरों के शोषण पर टिकटिकी लगाए अपने लाभ को पोषित करना, जो आधी दुनिया को नजर आ रहा है, मगर कुछ भी बदलने की कैफियत में आने से पहले उन्हें किसी-न-किसी रूप में दबा दिया जाता है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि सियासत की गिरावट से हटकर इस धरती को संवारने की दिशा में शताब्दियों पहले से जो कदम जीवन के अनेक कार्यक्षेत्रों में उठाए गए, वे प्रशंसा के योग्य हैं। कैसे-कैसे आविष्कार हमारे पूर्वजों ने इस दुनिया और उस में रहने वालों को सम्पन्न बनाने के लिए किए हैं- बीमारियों से मुक्ति, उम्र दर का बढ़ना, इन्सानी बदन की पूरी छानबीन, रेल, टेलीफोन, कैमरा, हवाई-जहाज, खेती-बागवानी और क्या कुछ नहीं। आज भी वे निरंतर इन्हीं बातों में जूझे हुए है और दूसरी तरफ खतरनाक से खतरनाक तबाही का हथियार इसी में प्राकृतिक हस्तक्षेप के रूप में नजर आ रहा है। इस तरह के वायरस जो ग्लेशियर के पिघलने के बाद फैलने वाले हैं या फैल चुके है, वे अपनी जगह और विकास के नाम पर धरती से छेड़छाड़, बारूदी मलबों के ढेरों से उठता वायु प्रदूषण व ऐसा बहुत कुछ। खान-पान की बात करें तो धरती से उगाई सब्जियों व फूलों में स्वास्थ्य के हानिकारक तत्वों की बराबर मिलती सूचनाएँ, क्या इस तरह के खतरनाक उत्पादनों पर कोई रोक लगाई जा रही है? बस, सूचनाएँ, सूचनाएँ और सूचनाएँ।

यदि आपने अपने देश के लिए नया सपना देखा है तो भविष्य के नवनिर्माण की ओर बढ़ें। अतीत की खुदाई से क्या मिलेगा?

जब किसी विशेष जाति धर्म को आप बेजा तरीके से लांछित, अपमानित करेंगे तो उसका आहत होना लाज़मी है

आपने कंगना राणावत की बनाई फिल्म श्रीमती गांधी पर देखीआपके विचार?

मुझे बहुत नकारात्मक कुछ देखने की उम्मीद थी, शायद इसलिए मुझे फिल्म अच्छी नहीं लगी। कंगना की एक्टिंग भी। दो बातें मुझे उस फिल्म में नजर आई, पहली बात ने शायद इसलिए भी बाँधकर रखा, कि वह समय मैंने भी देखा और जिया था। दूसरी बात यह कि श्रीमती गांधी का एमरजेन्सी लगाने का पछतावा फिर उस गलती को सकारात्मक रूप देना। जो घटनाएँ देश में पहले घटती देखीं उनमें से कुछ को मुख्य रूप से टुकड़ों में दिखाना। मैं उसे एक बार फिर देखूँगी। ज्यादातर इस तरह की फिल्में संतुलन खो बैठती हैं। एकतरफा हो जाती है।

जी!

‘द मिनिएचरिस्ट आफ जूनागढ़’ एक संवेदनशील फिल्म है। जो बिना फसाद, खून खराबा दिखाए आपके जख्मों की खुरन्द निकाल देती है और आप बंटवारे के नासूर की टपकन को बहुत गहराई से महसूस करने लगते हैं।

सीरिया पर जो उपन्यास आप लिख रही हैंक्या वह पूरा हो गया हैअभी फिर वहाँ गड़बड़ी शुरू हो गई है। एक ही झटके में शिया समुदाय के लगभग डेढ़ सौ लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया हैं। कहीं कोई सुनवाई नहीं। आपके विचार……..

राष्ट्रपति ट्रम्प के आने के बाद एक छाड़-पछाड़ नजर आ रही है। वैसे तो अमेरिका की राजनीति में किसी भी राष्ट्रपति के आने जाने से कोई बुनियादी बदलाव नहीं आता है लेकिन नर्म-गर्म सियासी मौसम का आभास जरूर होता है। ईरान को लेकर भी सुगबुगाहट सुनने में आ रही है वहाँ के आंतरिक असंतोष और शाह समर्थक व अन्य राजनीतिक पार्टियों व समुदायों में भी एक तरह की बेचैनी व्याप्त है। शाह के बेटे क्राउन प्रिन्स और मलिका फरहादीवा पर कुछ विशेष फोकस विदेशी और स्वयं इनके प्राइवेट चैनलों व वीडियो में नजर आ रहा है। भूतपूर्व मालिका फरहादीवा की बेटी ने लंदन के होटल में नींद की गोली खाकर आत्महत्या की थी, बहन की आत्महत्या के दस वर्ष बाद छोटे भाई ने आत्महत्या कर ली। शाही खानदान के अधिकतर लोग मर गए। अब अगर ईरान के सत्ता-विरोधी शाह के बड़े बेटे को लाना चाहते हैं और राष्ट्रपति ट्रम्प इजरायल को नजर में रखते हुए ईरान की सियासत में कितने हद तक जायेंगे, कुछ नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि बाकी शरणार्थी ईरानी सियासी समुदायों का इस बदलाव के प्रति क्या रूख रहता है, उस सारे उलझाव में अमेरिका राष्ट्रपति पड़ते है या फिर भूतपूर्व राष्ट्रपति बाइडन की तरह उलझाकर वापस लौट जायेंगे। दरअसल हम खबरों और दुर्घटनाओं और पुरानी राजनीतियों के आधार पर अंदाजा लगाते हैं, जो कभी सही तो कभी गलत निकलता है। क्योंकि असली समस्या व उसके प्रति होने वाले गुप्त फैसलों का पूरा ज्ञान हमें नहीं मिल पाता है। सीरिया से अचानक अलबशीर का चला जाना भी प्रश्न उठाता है। ठीक इराक के पैटर्न पर सीरिया में भी आर्मी व अपोजीशन में भिड़ंत शुरू हो चुकी है।

आपके उपन्यास की कथावस्तु पर उन परिवर्तनों का कोई प्रभाव पड़ेगा?

लगता नहीं है कि मैं उपन्यास में सियासी घटनाओं को ज्यादा स्थान दूंगी बल्कि इन घटनाओं का जो नकारात्मक प्रभाव आम जनता पर पड़ा है, उसका बयान ज्यादा करूँगी, जिसमें दोष ओर शत्रुता की जगह प्रेम होगा, जो अपने विस्तार का बयान होगा और जिसमें मानवीय संस्कार ज्यादा होंगे। इस वक्त इंसान बहुत तकलीफों से गुजर रहा है।

उपन्यास कब तक पूरा होगा?

अभी देर है। भटकाव बहुत हैं। जहन एक जगह टिकता है तो कोई घटना ऐेसी घट जाती है कि सोच का रुख ही बदल जाता है। पहले चारों तरफ हंगामा होता था तो वह सूचना तक सीमित रहता था अब अपने देश में इतनी सियासी गर्मी है, जिसकी वजह से हम भी उन देशों की तरह होते जा रहे हैं। पहले पनाह लेने दूसरे देशों के लोग हमारे देश आते थे अब हमारे देशवासी बड़ी संख्या में विदेशों में पलायन कर रहे है। अब वीडियो द्वारा आपको सारे जहां की खबर मिल जाती है।

औरगंजेब की जो बहस छिड़ गई है उसका नकारात्मक प्रभाव भारत की नई पीढ़ीजो पुस्तकें नहीं पढ़ती और मेहनतकश वर्ग से आती हैउस पर क्या पड़ेगा?

वह भले ही इतिहास की किताब न पढ़े मगर वीडियो तो देखती है। वह जहाँ नकारात्मक प्रोंपैगैंडा को सुनेगी वहीं पर जो दूसरे वीडियो के गर्भ से सनद के रूप में दिखाए जा रहे है, उसमें भी औरंगजेब के सकारात्मक पहलू पर भी रौशनी पड़ रही है और उसी के साथ अन्य राजाओं, महापुरूषों के बारे में वह तथ्य निकल कर सामने आ रहे है, जिनपर कभी न बातें हुई न तुलनात्मक अध्ययन जनता के बीच हुआ ताकि वह इस सच को समझ सकते कि पहले बुराई को जड़ से उखाड़ने में सख्त-से-सख्त कदम उठाए जाते थे ताकि जनता समझ सके कि वह गलती करके बख्शा नहीं जायेगा। इसमें शासक हिन्दू हो या मुसलमान, धर्म आड़े नहीं आता था। आज के दौर में लीपा-पोती की जाती है। अपराधी को बाइज्जत फरार होने की सहूलियतें  प्रदान की जाती हैं। आज के न्याय के मापदंड बदल चुके है, जिसके तराजू का एक पल्ला मन चाहे तरीके से डंडीमार अंदाज से एक तरफ झुका रहता है।

इन बातों का असर मुस्लिम मानसिकता पर कैसा पड़ेगा??

जब किसी विशेष जाति धर्म को आप बेजा तरीके से लांछित, अपमानित करेंगे तो उसका आहत होना लाज़मी है मगर आहत होने का मतलब, प्रतिक्रिया में प्रतिशोध के व्यवहार को अपनाने की जगह स्वयं वह अपने इतिहास और धर्म को सही परिपे्रक्ष्य से पढ़े और समझे तो बहुत से जाले व धुन्ध उनकी अपनी आँखों के सामने से हट जायेंगे और नकारात्मक प्रोपेगेंडा पर वह क्रोधित नहीं बल्कि मुस्कुरा कर रह जायेंगे।

क्या ऐसा हो सकता है?

क्यों नहीं हो सकता है? बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद जिस फसाद की उम्मीद थी। वह मुसलमानों की सहिष्णुता के कारण उस पैमाने पर नहीं हो पाया। तब से अब तक कई घटनाओं में मुसलमानों की भूमिका उग्र नहीं रही, जितनी करने की कोशिश की गई। फिलहाल होली से पहले जो माहौल बनाया गया उसमें भी उम्मीद के विपरित शांति व सद्भावना रही। मुट्ठी भर लोगों की सियासी चालों और अकारण लड़वाने की साजिशें कामयाब नहीं रहीं। दोनों समुदायों  ने बरसों से मनाए जाने वाले त्योहारों को एक नई खूबसूरती से मनाया।

अभी बहादुरशाह की ग्रैंड डाटर-इन-ला सुल्ताना बेगम का बड़ा जबरदस्त वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है जिसमें उन्होंने बताया कि अमेरिका से किसी का फोन आयापाकिस्तान में झेलम में उन्हें जगह देने के लिए। मगर उन्होंने इंकार कर दिया। उन्हें पाकिस्तान से बुलावा आयावह गईं और किसी पत्रकार ने उनसे पूछा कि पाकिस्तान आपको कैसा लगा तो उनका जवाब था कि मैं पाकिस्तान को नहीं जानती लेकिन मैं नूरजहाँ व जहाँगीर की जमीन पर खड़ी हूँ। मेरा जवाब उन्हें पसंद नहीं आयामैंने वहाँ से जल्द-से-जल्द लौटना चाहा।

जी, मैंने देखा है। उनका एक वीडियो और देखा है, जिसमें वह अपनी पेंशन के बारे में बता रही हैं। 1947 के बाद ढाई सौ फिर बहुत कहने पर श्रीमती गांधी ने चार सौ और अब उनकी 6,000 पेंशन हुई है। उस वीडियो को देखकर बहुत से सवाल दिल व दिमाग में उठे। उनके हल के लिए कुछ लोग आगे बढ़े भी तो उनकी सुनवाई होगी क्या? जब इतिहास को एक नए सिरे से लिखने व सुनाने की कोशिश में लगा हुआ है?

एक मुहावरा अक्सर बोला जाता हैउनकी रूह यह सुनकर कब्र में तड़प गई होगी। यहाँ तो हर रोज कोई न कोई ऐसी घटना घटती हैकि हमारी आत्मा जीवित शरीर में तड़प उठती है।

बेहौसला होने की जरूरत नहीं, बल्कि इकबाल का यह शेर आपके सामने है- “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं जहाँ से, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जम़ाँ हमारा”

गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले युवा लेखक मु. हारून रशीद खान लंबे अरसे से रचनाकर्म में संलग्न हैं। विशेषतः साक्षात्कारों में उनकी रुचि भी है और विशेषज्ञता भी। ‘सृजनपथ के पथिक’ और ‘मेरी गुफ्तगू अदीबों से है’ शीर्षक से साक्षात्कारों की दो पुस्तकें और अन्य कई संपादित और मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘कुबेरनाथ राय रचनावली’ का भी सम्पादन किया है। उनसे मोबाईल नंबर : 9889453491 और ई-मेल : mdharoon.khangzp786@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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