कथेतर

विचारधारा का विरोध, विचार का विरोध नहीं है : अशोक वाजपेयी

ख्यातिलब्ध कवि-आलोचक और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी अपनी उम्र के नवें दशक में भी पूरे उत्साह के साथ साहित्य-संस्कृति और कलाओं की दुनिया में सक्रिय हैं। वे न केवल कई संस्थाओं और पत्रिकाओं के संस्थापक-प्रबंधक रहे हैं, अपितु हिन्दी की बौद्धिक दुनिया से अपने चिंतन और संवाद के माध्यम से भी निरंतर संलग्न हैं। वे निर्विवाद रूप से समकालीन शीर्षस्थ साहित्यिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्वों में से एक हैं। ‘सबद’ की इस प्रस्तुति में पढिए युवा लेखक मु. हारून रशीद खान से उनकी यह खास बातचीत, जिसमें उन्होंने कविता, आलोचना, कला और वैचारिकता जैसे तमाम मुद्दों पर बेहद मानीखेज बातें कही हैं।

अशोक जी! आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई?

लिखना बहुत छोटी उम्र में ही शुरू कर दिया था, शब्दों के साथ खिलवाड़ करने की वृत्ति के कारण। पहली तुकबंदी याद है कि नौ बरस की उम्र में लिखी थी। लगभग सात-आठ बरस तक जो कविताएँ लिखीं और अच्छी पत्रिकाओं में छपीं भी, वे सिरे से खराब थीं।

 

क्या लेखक का जन्म होता है या बाद में अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर लिखता है? सुनता हूँ कि कवि तो जन्मना होता है, लेकिन लेखक के बारे में मैं आश्वस्त नहीं हूँ।

जन्मना कुछ नहीं होता। कवि या लेखक संयोगवश जरूर बनता है। ज्ञान कवि के लिए आवश्यक है, अज्ञानी कवि नहीं होते हालाँकि सभी ज्ञानी कवि नहीं होते। कविता अपने अनुभवों से तो लिखी जाती है पर दूसरों के अनुभवों से भी। कवि दूसरे कवियों से सीखते हैं। पर कविता अपने आप में ज्ञान का एक प्रकार भी है, वह ऐन्द्रिय मानवीय संश्लिष्ट ज्ञान है, जिसे हमारी अधकचरी आधुनिकता में ज्ञान नहीं माना जाता। पहले माना जाता था।

 

आप कविता में विचारधारा के विरोधी रहे हैं, पर क्या उसके बिना संगत विचार सम्भव है?

विचारधारा का विरोध, विचार का विरोध नहीं है। कविता में विचार होता है पर अच्छी कविता में कविता स्वयं विचार बन जाती है। कविता को विचारों का उपनिवेश बनाना था कि उसे सिर्फ विचारने में घटना उसके अपने स्वत्व का निषेध करना है। कवि सुसंगत विचारक नहीं होते पर सुसंगति के लिए धारा आवश्यक नहीं है। विचारधारा का जब कविजनोचित अतिक्रमण हुआ है जैसे शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन आदि के यहाँ, तो वे बड़े कवि हुए हैं। विचारधारा अक्सर कवि को अपने अनुभवों की कच्ची सच्चाई से विरत करती है और उस पर बोझ डालती है।

 

आप पिछले चालीस वर्षों से अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध की वृहतत्रयी पर जिद कर अड़े रहे हैं, यह आपकी आलोचना दृष्टि की जड़ता या गतिहीनता का प्रमाण नहीं है?

गतिशीलता जरूरी नहीं है कि अपनी रुचि और दृष्टि को लगातार बदलने का पर्याय हो। ऐसी गतिशीलता निरी अवसरवादिता भी हो सकती है, प्रायः हुई है। रुचि और दृष्टि परिवर्तन के प्रति खुले रहे और परिमार्जित- संशोधित होते रहे यह उनके स्वास्थ्य और प्रासंगिकता के लिए जरूरी है। मेरा सुचिंतित आकलन है कि अज्ञेय शमशेर-मुक्तिबोध इस दौर के सबसे बड़े कवि हैं और पिछले तीन-चार दशकों में उनसे बड़ा कोई कवि नहीं हुआ है। मैंने इस धारणा की पुष्टि में पिछले दिनों एक पूरी आलोचना-पुस्तक ‘कविता के तीन दरवाजे’ प्रकाशित की है। अगली त्रयी नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, त्रिलोचन की हो सकती है और उससे अगली रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, विनोद कुमार की। मेरी राय में।

 

हिन्दी आलोचना की भाषा और शैलियाँ हिन्दी रचना की तुलना में कम परिवर्तित, कम नवाचारी रही है, आप उसका क्या कारण मानते हैं?

हिन्दी आलोचक लेखकों का सहचर कम रहा है वह उनकी उत्सुकता, बेचैनी, संघर्ष आदि में हिस्सेदार कम रहा है- तटस्थता के नाम पर यह उसकी उदासीनता का प्रमाण है। संघर्षात्मक साहित्य के मुकाबले आलोचना अधिक संस्थाबद्ध रही है और फिर विचारधाराबद्ध भी। उसे नवाचार करने का उत्साह कम हुआ है। विचित्र है कि बाकायदा आलोचकों में रामचन्द्र शुक्ल ही सबसे अधिक नवाचारी लगते हैं। आलोचना में असली नवाचार तो स्वयं लेखकों ने किया है- अज्ञेय, मुक्तिबोध विजयदेव नारायण साही, मलयज, निर्मल वर्मा आदि ने।

 

आपका कलाओं के प्रति रुझान और उनमें गहरी पैठ की कोशिश क्या आपको साहित्य से दूर ले गयी है?

साहित्य और कलाएँ समकाल में सहचर होते हैं और उनकी अन्तर्निर्भरता की भारत में लम्बी परम्परा है जो उन्नीसवीं सदी के अन्त तक अटूट रही। आधुनिकता ने उन्हें अलगा दिया। मैं तो इस खोयी हुई परम्परा के पुनर्वास का एक विफल प्रयत्न करता रहा हूँ। दूसरे, साहित्य से कभी-कभी दूर जाना अच्छा ही होता है। आप बहुत सारी तुच्छताओं से बच जाते हैं। मुझे यह भी लगता है कि कलाओं में मेरी पैठ ने मेरे साहित्यिक जीवन को समृद्ध भी किया है, उसमें आत्मविश्वास गहरा किया है।

 

बावजूद आपकी पैरवी के तथाकथित सृजनात्मक आलोचना की हिन्दी जगत में जगह नहीं बन पायी तो आपको इसका क्या कारण लगता है?

हिन्दी जगत् नहीं, हिन्दी का अकादमिक जगत् कहिये। वह आत्मरत जगत् है जिसके पास अपने को फैलाने और अपनी आत्मतुष्टि के बाड़े को चाकचौबंद रखने के संस्थापरक साधन रहे हैं। उसमें सर्जनात्मक आलोचना की जगह न बन पाना जाहिर है। पर वहाँ भी जो नयी धारणाएँ आयी हैं, अगर यूरोपीय चिन्तन विशेषतः मार्क्सवादी चिन्तन आदि के अलावा कहीं से आयी हैं तो अक्सर सर्जनात्मक आलोचना से ही।

साभार - जेएनएएफ

हिन्दी आलोचक लेखकों का सहचर कम रहा है वह उनकी उत्सुकता, बेचैनी, संघर्ष आदि में हिस्सेदार कम रहा है- तटस्थता के नाम पर यह उसकी उदासीनता का प्रमाण है।

सामाजिक यथार्थ पर हमारे यहाँ कुछ इस कदर आग्रह रहा है कि उसके चलते कविता की कई सूक्ष्मताएँ और बारीकियाँ
अलक्षित चली जाती हैं।

आपको रूपवादी माना जाता रहा हैलेकिन आपने अपनी आलोचना में रूप-विश्लेषण कम किया हैयह विपर्यय क्यों ?

रूपवादी मैं हूँ नहीं, अलबत्ता यह लांछन दशकों से सिर्फ इस सरलदिमागीपन से लगता रहा है कि मैं साहित्य की स्वायत्तता का पक्षधर रहा हूँ, उसे राजनीति या विचारधारा का उपनिवेश बनाये जाने या उस रूप में देखने का मुखर निषेध करता रहा हूँ, साहित्य को समाजबद्ध और उसे संबोधित होते हुए भी व्यक्तियों की रचना मानता रहा हूँ, समाज को समझने की उसमें संघर्ष करने की किसी एक दृष्टि के बजाय बहुलता पर इसरार करता रहा हूँ। मेरा आग्रह भाषा पर भी रहा है। मैं साहित्य को निरा रूप या शिल्प नहीं मानता हालाँकि इनके बिना भी साहित्य संभव नहीं। इसलिए कोई विपर्यय नहीं है। मैं विचारधारा को निर्णायक तत्त्व साहित्य में नहीं मानता। पर शमशेर और मुक्तिबोध की मूर्धन्यता पर इसरार करता रहा हूँ, उनकी विचारधारा के बावजूद।

 

आप क्यों कांग्रेसी सत्ता के साथ रहे हैंअब भारतीय जनता पार्टी की सत्ता के घोर-मुखर विरोधी हैं। क्या इसके पीछे मुख्य तत्व कांग्रेस-प्रेम रहा है?

मैं एक सार्वजनिक परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सिविल सेवक बना था और 35 वर्ष रहा। उसके अधिकांश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनकर कांग्रेस ही सत्तारूढ़ होती रही। इसलिए साथ रहना एक सिविल सेवक के रूप में नियति थी। बीच में कुछ वर्ष जनता सरकार और बाद में भाजपा सरकार भी रही। कांग्रेस के साथ अच्छी बात यह थी कि वह बहुलता को समझती थी और उसकी कोई कट्टर विचारधारा नहीं थी। उसके अनेक मंत्रियों, एकाध मुख्यमंत्री आदि से गहरे मतभेद और झगड़े तक हुए पर मुझे बर्दाश्त किया जाता रहा। उसी दौरान मध्य प्रदेश में संस्कृति के क्षेत्र में बिना किसी वैचारिक या अन्य किस्म के हस्तक्षेप के काम करने का अवसर मिला। भारत भवन में पहले नियुक्त मूर्धन्यों में जगदीश स्वामीनाथन, ब. व. कारन्त, निर्मल वर्मा, दिलीप चित्रे आदि थे जिनमें से कोई भी कांग्रेसी विचारधारा का, वह जैसी भी थी, नहीं था और कई उसके मुखर विरोधी तक थे। कांग्रेस में विशेषज्ञता का सम्मान था और वफादारी पर जरूरत से ज्यादा आग्रह या भरोसा नहीं। ज्ञान-विज्ञान-संस्कृति के क्षेत्र में उसमें एक जरूरी और लोकतांत्रिक खुलापन था। इसी वजह से आई. आई.टी. से लेकर ज्ञान-विज्ञान की अनेक शीर्ष संस्थाएँ, भारत-भवन आदि संभव हुए। उसने अपनी राजनीति हर जगह थोपने की कोशिश नहीं की थी। मेरे जैसे हाशिए के सिविल सेवक इस कारण भी बचे रहे। मैंने कभी कांग्रेसी सत्ता का कोई वैचारिक या लिखित-मौखिक समर्थन नहीं किया और न ही कभी इसका दबाव मुझ पर डाला गया। भाजपा और राष्ट्रीय सेवक संघ का मेरा घोर विरोध शुरू से उनकी भारतीय संस्कृति की बेहद विकृत समझ, भारतीय बहुलता को नष्ट करने की उनकी कोशिश, उनके हिन्दू धर्म को अपने हिन्दुत्व द्वारा विकृत करने और क्षति पहुँचाने, भारतीय समाज के कई वर्गों के प्रति सक्रिय रूप से घृणा को फैलाने और लोकतंत्र का उपयोग लोकतांत्रिक असहमति को दबाने आदि को लेकर रहा है। इसका किसी दूसरे दल से प्रेम कारण नहीं है। मेरा किसी राजनैतिक दल से प्रत्यक्ष-परोक्ष कोई सम्बन्ध न है, न कभी रहा है।

 

आपने लगभग आक्रामक होकर कविता और कला में जटिलता और अमूर्तन की वकालत की है। लेकिन आपकी कविता की आलोचना में इन्हें प्रधान तत्त्व नहीं कहा जा सकता। ऐसा क्यों?

कवि के रूप में क्या करता हूँ और आलोचक के रूप में क्या करता हूँ इसके बीच अंतर स्वाभाविक है। आलोचना में मैं उन्हीं पक्षों पर जरूरी तौर पर आग्रह नहीं करता जो मेरी कविता के हों। तब मैं व्यापक परिदृश्य को ध्यान में रखकर आलोचना लिखता हूँ। सामाजिक यथार्थ पर हमारे यहाँ कुछ इस कदर आग्रह रहा है कि उसके चलते कविता की कई सूक्ष्मताएँ और बारीकियाँ अलक्षित चली जाती हैं। जटिलता और अमूर्तन ऐसे ही हैं, उनमें संसार भर में, स्वयं हमारे यहाँ महान काव्य और कला संभव हुए हैं। उन पर ध्यान दिलाना मुझे जरूरी लगा, अब भी लगता है जब अभिधा का आतंक और बढ़ गया है। मेरी कविता में अगर वे नहीं है तो शायद उस हद तक वह विपन्न ही कही जायेंगी। मैं इसका फैसला नहीं कर सकता।

 

साहित्य में रहस्य और विस्मय क्या हैक्या ये आप को इस समय भी प्रासंगिक लगते हैं जबकि इनके नाम पर भयानक अत्याचार हो रहे हैं?

अत्याचार तो धर्म, विचारधारा आदि के नाम पर भी होते रहे हैं, इसलिए वे अवैध नहीं हो जाते। साहित्य संसार के विस्मय और रहस्य से ही जन्म लेता है, होने का विस्मय और रहस्य, कठिन से कठिन स्थिति में होते रहने, बचे रहने और जिजीविषा का विस्मय और रहस्य, हर हालत में मनुष्य बने रहने का विस्मय और रहस्य, विराट से जुड़ने की सहज मानवीय आकांक्षा का विस्मय और रहस्य। इनकी अनदेखी करना और इन्हें अप्रासंगिक मानना भयावह मानवीय चूक होगी।

 

इधर बढ़ी आपकी सामाजिक सक्रियता और मुखरता कई बार रचनाधर्मिता से मेल खाती हुई नहीं लगती है, क्या आपकी कविता और सामाजिक आचरण में द्वैध है?

मैं सामाजिक रूप से हमेशा सक्रिय रहा हूँ। मुझसे अधिक संस्थाएँ शायद ही किसी और लेखक ने बनायी होंगी, न ही इतनी सारी पत्रिकाएँ किसी और ने निकाली हैं। लगभग डेढ़ हजार आयोजन करने का भी मेरा रिकॉर्ड है। यह सब सामाजिक सक्रियता और मुखरता के उदाहरण और साक्ष्य नहीं तो क्या है? कभी ऐसे अवसर आते हैं जब सभ्यता का संकट उपस्थित होता है, बहुलता और समरसता की हमारी सुदीर्घ परंपरा को क्षति पहुँचने लगती है, लोकतंत्र सिकुड़ने लगता है, तब लेखक को भी लेखन के अलावा मुखर होना पड़ता है। पर उसका असली संघर्ष तो हमेशा साहित्य के मोर्चे पर होता है। मुझे शायद गलतफहमी है कि मैं उसी मोर्चे पर हमेशा से संघर्षरत रहा हूँ, अब भी हूँ।

 

आपने विधिवत् आलोचना लिखने के बजाए बीस वर्षों से लगातार एक अखबारी स्तम्भ तय किया। क्या इसने आपको व्यवस्थित आलोचना के मार्ग से विरत किया है?

स्तम्भ अखबार में निकलने के कारण अखबारी है पर उसके विषय और भाषा आलोचनात्मक ही हैं। व्यवस्थित आलोचना के बजाय यह आलोचना का एक अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय विस्तार है। वह एक तरह से एक कवि-आलोचक-कलाप्रेमी की डायरी ही है।

 

आपकी आकांक्षा?

ग़ालिब कह गये हैं कि ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले’ वे अब भी इतनी हैं कि उनकी सूची आपको उबा देगी। मैं एक बेहतर, स्वतंत्र, समतामूलक, न्यायसम्मत समाज और विपुल कला-प्रेमी नागरिकता की आकांक्षा करता हूँ। जानता हूँ कि मेरे जीवनकाल में नहीं हो पायेगा, पर ऐसा सपना छोड़ जाऊँ इससे बेहतर क्या इस बुढ़ापे में कर सकता हूँ? संसार से अपार अनुराग मुझ लेखक से इतना तो करायेगा ही।

गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले युवा लेखक मु. हारून रशीद खान लंबे अरसे से रचनाकर्म में संलग्न हैं। विशेषतः साक्षात्कारों में उनकी रुचि भी है और विशेषज्ञता भी। ‘सृजनपथ के पथिक’ और ‘मेरी गुफ्तगू अदीबों से है’ शीर्षक से साक्षात्कारों की दो पुस्तकें और अन्य कई संपादित और मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘कुबेरनाथ राय रचनावली’ का भी सम्पादन किया है। उनसे मोबाईल नंबर : 9889453491 और ई-मेल : mdharoon.khangzp786@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

One Comment

  1. एक बेबाक साक्षात्कार

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