कविता

जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविताएँ

देवरिया (उत्तर प्रदेश) में जन्मे और जे एन यू, नई दिल्ली से उच्च शिक्षा प्राप्त हिन्दी के बहुपठित और सुपरिचित कवि-आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव का रचना-संसार अत्यंत व्यापक है। उनके पहले संग्रह ‘इन दिनों हालचाल’ से लेकर अद्यतन कविता-संग्रहों की उनकी यात्रा उनके निरंतर परिपक्व और प्रौढ़ होते काव्य-व्यक्तित्व का परिचायक है।

हमारा यह समय ‘स्मृति की राजनीति’ का समय है, जीवन और सभ्यता को धो-पोंछ कर नया बनाने और चमकाने की कोशिशों का पहला शिकार हमारी स्मृतियाँ हो रही हैं। ये प्रयास अनायास ही हों, ऐसा भी नहीं है। स्मृतियों के नष्ट होने का सीधा सम्बद्ध हमारे अतीत के धुंधले होते जाने से है और इसीलिए यह कहना अनुचित न होगा कि आज मनुष्यता और साहित्य की बड़ी चुनौतियों में से एक के रूप में ‘स्मृतियों को बचाने’ की चुनौती भी सम्मिलित हो गई है। जितेन्द्र श्रीवास्तव की ‘सबद’ पर प्रस्तुत कविताएँ स्मृति और नॉस्टैल्जिया को केंद्र में रखती हैं; इनके माध्यम से विस्थापन के शिकार छोटे-मँझोले शहरों के बदलते रूप की एक बानगी भी मिलती है और उसके कारण उपस्थित सांस्कृतिक संकट की आहटों को भी हम सुन सकते हैं। इस प्रस्तुति में एक विशेष बात यह भी है कि कवि द्वारा वर्ष 1996 में लिखी गयी और अबतक अप्रकाशित कविता ‘हिस्से का सूरज’ भी यहाँ शामिल है। 


ओ मेरे देश!

यह बीतते वसंत की एक खिली हुई सुबह है
गाछों की नरम नई पत्तियों पर
उतर रही है धूप आहिस्ता – आहिस्ता

बीत चुके हैं दिन
पतझड़ के लगभग- लगभग

आप चाहें तो
कह सकते हैं इसे मदमय प्रात
पर खाली पड़ा है वह खेल का मैदान
जो भरा रहता है किशोरों और युवाओं के कलरव से
सुबह के इस वक्त

मलय समीर रोज सुस्ताता है यहां
उसके गुजर जाने के बाद भी बची रहती है उसकी सुगंध
कुछ लोगों को दिखते हैं उसके पदचिह्न भी कभी- कभी

पर अचानक कहां चले गए सब !
किस ओर?

नहीं दिख रहे कहीं
सुबह में भ्रमण करने वाले
प्रौढ़ और बुजुर्ग
और आगे की यात्रा के लिए
फेफड़ों में दम भरती स्त्रियां

क्या पूरी तरह खाली हो गई है
अरावली की पहाड़ियों पर बसी यह
पूरी की पूरी  बस्ती एकाएक?

यह कैसा संकेत है नक्षत्रों के आंगन से!
क्या बताएगा कोई खगोलशास्त्री?
या लोग प्रतीक्षा करेंगे किसी नजूमी की?

ओह!  एकाएक उठा है यह धूल का बवंडर पश्चिम से
यह भीषण ग्रीष्म के आने की आहट है या हुंकार कोई!

समय के भीतर अदृश्य है समय
सत्य होकर भी परछाइयाँ पूरा सत्य नहीं होतीं

असमय उठी है यह आंधी
तितर – वितर हो गई हैं चीजें
बचे हुए गुलमोहर के फूल झड़ गए हैं धरा पर
लग रहा है जैसे घासों ने ओढ़ ली है फूलों की ओढ़नी

पर क्या लिखा है
अभी- अभी आई हवा की पाती में
कोई खुशखबरी है या चेतावनी उसमें?

सुनो, ओ मेरे देश
उसे पढ़ो और सुनाओ !

सुनाओ, ओ मेरे प्राणों से प्रिय देश!

करोड़ों करोड़ हृदय व्यग्र हैं
तुम्हारी ओर अपना कान लगाए।


बदलाव

जब हमसे छूट जाता है एक शहर
और हम रहने लगते हैं किसी और दिल पसंद शहर में
और याद करते हैं अपने पुराने शहर को
तो याद करते हैं उसके पुरानेपन को
उसका नयापन पैदा करता है उदासी का कोई अयाचित रसायन
जबकि उस शहर के नए लोग खुश हो रहे होते हैं
शहर के पुनर्नवा होने पर

कभी- कभी उनकी प्रसन्नता अखरती है
स्मृति का शहर खोज रहे लोगों को

जब हम देखने जाते हैं अपना कॉलेज
तो दरअसल देखने जाते हैं अपने ग्रेजुएशन के दिनों को
सहपाठिनों  को ले जा रहे रिक्शों के पीछे-पीछे
मुस्कुराते-लजाते  सायकिल चलाने वाले दिनों को
जो बैठे होते हैं कहीं
हमारी पुतलियों के किन्हीं कोनों में समय की धूल से ढके
लेकिन सच में वे डूब चुके होते हैं
बाद के दिनों के मटमैले सरोवर में
वहां उग आई होती हैं विस्मरण की जलकुंभियां

हम हसरत से ढूंढते हैं वह दीवार
जिस पर लिखी थी प्यार की पहली इबारत
या जिसकी ओट में खड़े हुए थे कभी प्रिय की प्रतीक्षा करते हुए
लेकिन उसे ढक चुकी होती हैं करीने से बना दी गई दुकानें
जिस प्रकार ढक लेते हैं तरह- तरह के झाड़- झंखाड़
इतिहास और इतिहास से जुड़ी धूसर हो रही जगहों को

हमें सब कुछ बदला- बदला-सा लगता है
हम गहरी उदासी की बेनूर रजाई ओढ़े लौट आते हैं
अपने सपनों के नए शहर में
हम पुराने के प्रेम में विह्वल भूल जाते हैं
कि हर शहर में बदल जाता है बहुत कुछ
खड़े हो जाते हैं कंक्रीट के कुछ और नए जंगल
पुरानी गलियां बिला जाती हैं नए रास्तों में
हमारी स्मृतियों में खड़े प्रेम की ओट बने सघन पेड़
पता नहीं कब हटा दिए जाते हैं अवरोध मानकर
किसी नवनिर्माण की योजना में

लेकिन तमाम वर्षों – मौसमों के बदलने के बावजूद
अगर पुराने शहरों में कुछ नहीं बदलता
तो बस मर्दाना कमजोरी  का चमकीला विज्ञापन
वह बस अड्डे से लेकर
महाविद्यालय विश्वविद्यालय की दीवारों तक
अपनी पुरानी चमक और वैभव के साथ करता है
शहर में आने वाले हर नए – पुराने का स्वागत।

 

उगता सूरज ढलता सूरज

उगता है लाल सूरज
है डूबता भी लाल सूरज
शेष दिन पूंजी की माया है
थकी श्रमिक की काया है
साथी, धूप गई अब छाया है

सोच सको तो सोचो
किसका हिस्सा था पर किसने पाया है
भूख लगी किसको थी पर किसने खाया है
मेहनत किसकी थी पर  श्रेय कौन पाया है!

चुप बैठे हो  चबा रहे हो कौर
सोचते हो आएगा  बचाने कोई और
लुट जाओगे ,नहीं मिलेगा कोई ठौर
भूल जाएंगे लोग हमारा- तुम्हारा यह दौर

तो दो सलामी उगते सूरज को
फिर निहारो ढलते सूरज को
हमको अपना इतिहास बनाना होगा
जुल्मों सितम को धरती से मिटाना होगा
देखो, मुद्दतों बाद ये भाव मन में आया है।

 

जरूरी

जब थीं
बिखर जाती थीं जुल्फें
कभी इच्छा के अनुकूल कभी प्रतिकूल

अब कितना भी चाहूं
संभव नहीं कर सकता उनका बिखरना
किसी रूप में

साधो!
बिखरने के लिए
जरूरी है होना भी।

 

वस्तुओं में भी होती है स्पर्श की चाह

मनुष्यों और मवेशियों की तरह
वस्तुओं में भी होती है स्पर्श की चाह

उन्हें जब भी मिलता है स्पर्श
चमक उठती है उनकी काया
स्पंदित हो जाते हैं उनकी आत्मा के तार

जिन वस्तुओं को नहीं मिलता मानुष नेह
असमय उतर जाता है उनका रंग।

 

हिस्से का सूरज

अब जब तुम नहीं हो मेरे पास
अब जबकि तुम जा चुकी हो अपने स्वप्न संसार में
कभी न लौटने के लिए मेरी दुनिया में
आज पौ फटने के पलों में निहारताआसमान को
मैंने बरबस याद किया तुम्हारा चेहरा

जाने क्यों पनीली हो गईं आँखें
धुँधला गए दृश्य पल भर में

बीते तमाम वर्षों में हर सुबह मैंने उजास के लिए
आसमान को नहीं
तुम्हारे मुख कमल को ही निहारा था

आज भी किसी के हिस्से का सूरज
वहाँ उगा और खिलखिला रहा होगा।

प्रतिष्ठित कवि-आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के मानविकी विद्यापीठ में हिंदी के प्रोफेसर हैं। पूर्व में इग्नू के कुलसचिव और पर्यटन एवं आतिथ्य सेवा प्रबंध विद्यापीठ के निदेशक  रह चुके हैं।इन दिनों इग्नू के अंतरराष्ट्रीय प्रभाग के निदेशक हैं।

हिन्दी के साथ-साथ भोजपुरी में भी लेखन प्रकाशन। इन दिनों हालचाल, अनभै कथा, असुन्दर सुन्दर, बिल्कुल तुम्हारी तरह, कायान्तरण, सूरज को अँगूठा, जितनी हँसी तुम्हारे होंठों पर,  काल मृग की पीठ पर, उजास, कवि ने कहा, बेटियाँ, रक्त-सा लाल एक फूल, स्त्रियाँ कहीं भी बचा लेती हैं पुरुषों को (कविता); तेरे खुशबू में भरे ख़त (कहानी) भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, शब्दों में समय, आलोचना का मानुष-मर्म, सर्जक का स्वप्न, विचारधारा, नए विमर्श और समकालीन कविता, उपन्यास की परिधि, रचना का जीवद्रव्य, कहानी का क्षितिज, कविता का घनत्व, आस्था और विवेक (आलोचना); प्रेमचंद कहानी समग्र,  प्रेमचंद: स्त्री जीवन की कहानियां, प्रेमचंद: दलित जीवन की कहानियां, प्रेमचंद: दलित एवं स्त्री विषयक विचार, प्रेमचंद: स्वाधीनता की कहानियां, प्रेमचंद : किसान जीवन की कहानियां, प्रेमचंद: हिन्दू – मुस्लिम एकता संबंधी कहानियां, शोर के विरुद्ध सृजन सहित कुछ अन्य पुस्तकों का संपादन। गोदान, रंगभूमि और ध्रुवस्वामिनी जैसी कुछ कालजयी पुस्तकों की पुर्नप्रस्तुति के लिए उनकी संक्षिप्त भूमिकाएँ भी लिखी हैं।

कई कविताओं का अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। लम्बी कविता सोनचिरई की कई नाट्य प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं। कई विश्वविद्यालयों के कविता केन्द्रित पाठ्यक्रमों में कविताएँ शामिल हैं। कविताओं पर देश के कई महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में दस से अधिक शोधकार्य हो चुके हैं और कुछ हो रहे हैं। साहित्यिक पत्रिका ‘उम्मीद’ का संपादन  किया है और ‘नयी उम्मीद’ का संपादन कर रहे हैं।

अब तक कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल सम्मान’ और आलोचना के लिए ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ सहित हिन्दी अकादमी दिल्ली का ‘कृति सम्मान’, उ.प्र. हिन्दी संस्थान का ‘रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार, उ. प्र. हिन्दी संस्थान का ‘विजयदेव नारायण साही पुरस्कार’, भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का ‘युवा पुरस्कार’, ‘डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, गोपालकृष्ण रथ स्मृति सम्मान और स्पंदन कृति सम्मान ग्रहण कर चुके हैं।

संपर्क: हिन्दी संकाय, मानविकी विद्यापीठ, इग्नू, मैदान गढ़ी, नई दिल्ली- 68. मोबाइल नं. : 09818913798 ; ई-मेल: jitendra82003@gmail.com

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