गोरखनाथ को भारतीय संस्कृति में बुद्ध के जैसा ही जननायक माना जाना चाहिए। वे ‘दूसरी परंपरा’ के ध्वजवाहक के रूप में जिस मौलिकता के साथ साहित्य, समाज और अध्यात्म को पुंजीभूत करने में समर्थ हुए, वह अपने आप में अद्भुत है। उन्होंने जिस सहजता का प्रचार किया, वह केवल साधना के ही रूप में नहीं बल्कि साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में उन जनपदीय बोलियों में भी परिलक्षित हुई, जिनके माध्यम से उन्होंने व्यापक भारतीय समाज को अपना संदेश दिया। गोरखनाथ अपने कथन विन्यास और विषय वस्तु में कबीर के पूर्वज हैं और यह कहना शायद ग़लत नहीं होगा कि आचार्य शुक्ल ने जिस ‘भारतीय चिंताधारा’ की बात की है, उसका सर्वाधिक सम्पूर्ण और सार्थक रूप गोरखनाथ के साहित्य में मिलता है।
समकालीन हिन्दी कविता के प्रसिद्ध कवि बोधिसत्व इन दिनों गोरखनाथ की सबदियों का कवितान्तर कर रहे हैं, जिसके अंतर्गत वे सबदियों के काव्यानुवाद के साथ उनका सहज अर्थ भी प्रस्तुत करते हैं। उनका यह महत्वपूर्ण काम ‘गोरख सबद प्रबोध’ शृंखला का हिस्सा है, जिसकी एक कड़ी के रूप में बारह सबदियों का कवितान्तर ‘सबद’ पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
महमां धरि महमा कूं मेटै, सति का सबद बिचारी।
नांन्हां होय जिनि सतगुर षोज्या, तिन सिर की पोट उतारी ।।
कवितान्तर :
पूजा पा कर पुजाते नहीं लग जाते
मान पा कर मानी नहीं हो जाते
महिमा पा कर महिमा का बखान नहीं करने लग जाते
परखते हैं सत्य के एक एक अक्षर
और शब्द को।
वे ऐसे हैं जिनको मिल गया है सद्गुरु
फिर वे प्रदर्शन के फेर में नहीं पड़ते
धत्कर्म की भारी गठरी
मुंडी-माथे से उतार कर
फिरते हैं सहज भारहीन।
सहज अर्थ :
महिमा प्राप्त करके जो महिमा की गठरी बना कर मान नहीं देते हैं। सत्य के शब्द का विचार करते हैं। विनम्र होकर जिन्होंने सद्गुरु को प्राप्त कर लिया है, उन्होंने अपने कर्मों की गठरी का बोझ शीश से उतार दिया है।
दिसटि पड़ै ते सारी कीमति कीमति सबद उचारं।
नाथ कथै अगोचर वाणी ताका वार न पारं॥
कवितान्तर :
तेरे शब्द
जिसको पुकारते हैं सांस सांस
वह अमोल है अक्षर और नाद!
किंतु जिसे पुकारते हो जोगी
यदि वह सुन पाए तेरी पुकार तो
कितनी बढ़ जाये कीमत तेरे
उस पुकार वाले शब्द और भाव की।
नाथ की प्रत्येक वाणी
अनमोल
जिसका भाव आंका नहीं जा सकता
जिसको सुन नहीं सकते कान
उसे सुनने के लिए
और यत्न करने होंगे
अपने अंतर में भरनी होंगी
उस पुकार और अनाहत स्वर को ग्रहण करने योग्य
जोग-जुगति!
सहज अर्थ :
उच्चरित शब्द अवश्य बहुमूल्य है किन्तु उसका मूल्य तभी है जब शब्द में संकेतित परब्रह्म दृष्टि में पड़ जाय। गोरखनाथ ऐसी वाणी बोलता है जिसका वार पार नहीं, जो इन्द्रिय (श्रोत्र) मात्र से ग्रहणीय नहीं। उसके लिए अंतरबोध अनिवार्य है।
गूदड़ी जुग च्यारि तैं आई। गूदड़ी सिध साधिकां चलाई।
गूदड़ी मैं अतीत का बासा। भणंत गोरषनाथ मछिंद्र का दासा।।
कवितान्तर :
यह काया कोई नई नवेली नहीं
यह आत्मा भी नव निर्माण नहीं
यह युग युग की यात्रा कर आई है
इसे किस किस ने धारण किया
इसे परमात्मा ने पहना
इसे साधकों ने पहना-उतारा-धोया-पछारा
यह रही कितनों का गहना-साज-सजारा!
कितनों ने इसे ग्रहण किया।
मछिंद्र का चेला गोरखनाथ कहता है
अपने अनुभव से यह परम् सत्य!
सहज अर्थ :
यह सबदी गूदड़ी की महिमा बखानने के लिए कही गई है। गूदड़ी चार युगों से धारण की जा रही है। इस गूदड़ी को सिद्धों और साधकों ने धारण किया है। परमेश्वर रहते हैं सहज सी दिखने वाली इस गूदड़ी में। मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ कहते हैं गूदड़ी का सारतत्व।
राष्या रहै गमाया जाय सति सति भाषंत श्री गोरषराय।
येकै कहि दुसरे मानी गोरष कहै वो बड़ो ग्यानी।।
कवितान्तर :
जिसे बचाओ वह बचती
जोग जतन से
जिसकी रक्षा न करो वह नष्ट हो जाती है
वह योग हो या प्रेम
या खेती धरम नेम!
गोरख केवल कहते हैं संकेत में
जो मर्म को समझे वही
बचाते हैं बचाए जाने योग्य को
और नष्ट हो जाने देना हो जिसे
उसे नष्ट हो जाने देते हैं!
बाकी जो ज्ञान वाणी समझ ना पाया
वो बचाए जगत माया
नाशवान जो
संचित करें अनमोल अमर योग
जो कमाया!
सहज अर्थ :
रक्षा करने से चीज वस्तु विचार बचे रहते हैं। रक्षा न करने से चीजें चली जाती (नष्ट हो जाती) है। गोरखनाथ का हर वचन सत्य है जो एक बात संकेत में कहता है लेकिन उसी एक बात पर दूसरा उसके सत्य अर्थ पा लेता है। गोरखनाथ कहते हैं कि वह बड़ा ज्ञानी है।
विद्या पढि रे कहावै ग्यांनीं। बिनां विद्या कहै अग्यांनी।
परम तत का होय न मरमी । गोरष कहै ते महा अधरमी।।
कवितान्तर :
दो किताबें पढ़ कर गुणी ज्ञानी हो जाते हैं
लेकिन जगत ज्ञान हीन ये अज्ञानी हैं।
तत्त्व का बोध नहीं
परम सत्त्व का शोध नहीं
ऐसे लोग जो नहीं जानते
मरम
वे ज्ञान से करते हैं अधरम।
पोथियाँ पुरानी हैं
उनके वचन घिस गए हैं
उनके भीतर का ज्ञान
मर चुका है
नए ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं
मोक्ष की और कोई युक्ति नहीं!
सहज अर्थ :
विद्या पढ़कर लोग ज्ञानी कहलाते हैं। विद्या के बिना अज्ञानी कहलाते हैं। जो परम तत्त्व (ब्रह्म विद्या) का ज्ञाता नहीं होता, गोरख कहते हैं वह अधर्मी होता है।
विष्न दस अवतार थाप्या, असाधि के कंद्रप जती गोरषनाथ साध्या।
जनि नींझर झरंता राष्या।।
कवितान्तर :
विष्णु हों या उनके अवतार
सदैव रहा उनका स्त्रियों से साथ
केशव के कमला
शिव की सती
राम की जानकी
कृष्ण की रुक्मिणी।
देवता अवतारी
नहीं बचे कामदेव की क्रीड़ा से
सबको साधा काम ने
उसके पुष्प बाणों के लक्ष्य में रहे सब।
लेकिन असाध्य को साधा गोरख ने
काम से निष्काम करके स्वयं को
अपने बिंदु को पतित होने से बचाया
पतन अपना भी
काम के क्षेत्र में
जय का चौगान खेल कर
बाहर आए जती गोरख।
सहज अर्थ :
विष्णु के दस अवतारों संग स्त्रियाँ जुड़ी हुई हैं। लेकिन असाध्य कामदेव को यती गोरखनाथ ने साध लिया, जिसने झरते हुए वीर्य (बिंदु) के झरने से रोक लिया।
घरबारी सो घर की जाणै । बाहरि जाता भीतरि आणै।
सरब निरंतरि काटै माया । सो घरबारी कहिए निरंजन की काया।।
कवितान्तर :
गृहस्थ जानता है अपने घर के कोने अंतरे को
उसने बनाया सजाया होता है
घर को जतन से।
योगी घरबारी नहीं
यदि होता गृही तो जानता अपनी कोठी
कोठरी के तिनके तिनके को।
वह दूसरे तरह का गृहस्थ है
घर के उजड़ने पर ऐसे नहीं
बैठा रहे हाथ पर हाथ धरे
वह घर को सम्हालता है
टूटन टपकन रोकता है
लेकिन उसकी माया से मोहित हो कर
चौकीदार नहीं बन जाता
उस घर का।
जो बचाना है उसे बचाता है
जो बह जाने देना हो उसे बह जाने देता है
ऐसा घर-बार
जिससे ब्रह्म करे दरबार।
सहज अर्थ :
योगी घरबारी नहीं होता। यदि वह घरबारी है तो ऐसा कि जिसे अपने घर (काया) का पूरा ज्ञान है। अपने घर की जो वस्तु बाहर जा रही हो (अर्थात् नष्ट रही हो (जैसे श्वास और शुक्र) उसे भीतर ले जाता है। उसकी रक्षा करता है। वह सबसे भेदभाव रहित निर्लिप्त रहता है और माया का खंडन कर देता है। ऐसे घरबारी को माया रहित निरंजन ब्रह्म का शरीर अथवा ब्रह्म समान ही समझना चाहिए।
च्यंत अच्यंत ही उपजै च्यंता सब जुग षीण।
जोगी च्यंता बीसरै तो होई अच्यंतहि लीन।।
कवितान्तर :
खोने का त्रास
न पाने की वेदना
अनहोनी की आशंका
चिंता के कितने ही रूप
जो चित्त को ग्रस लेते हैं अचानक।
चिंता से सारा संसार क्षरित होता रहता है
क्षण-क्षण छिन्न-भिन्न होता रहता है मन।
जो योगी हो
वह रहे यदि चिन्ता रहित
यदि घिरा रहे तो भी भूला रहे चिंता को
ऐसा अचिंत जोगी
उसे अपने में घोल लेते हैं ब्रह्म
यह पद अप्रत्याशित नहीं
निरंतर चिंतन से मिलता है।
सहज अर्थ :
चिंता अप्रत्याशित रूप से व्याप जाती है। चिंता के कारण सारा संसार क्षीण हो रहा है। योगी योग में रम कर संसार की चिंता को भूल जाता है और इस प्रकार वह अचिंत परब्रह्म में लीन हो जाता है।
चलंत पंथा तूटंत कंथा उडंत षेहा बिचलंत देहा।
छूटंत ताली हरि सूं नेहा।।
कवितान्तर :
चलने से युग-युग से चली आई कंथा
होती है तार तार
काया होती है छार-छार
मार्ग के अवरोध कंटक
पड़ाव सराय सब
भटकाते हैं
लय ताल टूट जाती है
भक्ति के अनहद नाद की।
जब लौ लगी हो
तब भटकना क्यों
समाधि में रहना अकंप
मार्ग व्याधि क्यों सहना।
ब्रह्म से लगन का तार क्यों टूटने देना
अकारथ क्यों भटकना।
सहज अर्थ :
मार्ग में चलते रहने से कंथा टूटती है। निरंतर चलने से काया छीजती है। शरीर जर्जरित विचलित होता है। भगवद् भक्ति योग-ध्यान में व्यवधान होता है और समाधि टूट जाती है। तो रुको यात्रा पर विचार करो। अपने मोक्ष माध्यम शरीर को सहेजो। कंथा-काया को नष्ट न होने दो।
पाया लो भल पाया लो, सबद थांन सहेती थीति।
रूप संहेता दीसण लागा, तब सर्व भई परतीति।।
कवितान्तर :
मुझे मिल गया
जो अच्छा और सच्चा पाने का संकल्प था
शब्द के बाण ब्रह्म-लक्ष्य-वेध
करा दें सही-सही तो
समझो सही स्थान पहुँचे।
तब मुक्ति का संदेह मिट गया
जब ब्रह्म प्रकाश का झिलमिल
झलक मिलने लगा।
अब कैसी दुविधा
कैसा द्वंद्व
जब सच्चा पाया
अच्छा पाया
मनचाहा पाया।
मुक्ति का द्वार लखाया
मोक्ष का विश्वास जगाया।
सहज अर्थ :
‘मैंने पा लिया है।’ ‘अच्छा पाया’। शब्दों के द्वारा ब्रह्म पर सहित स्थिति जाए तब मुक्ति में कोई संदेह नहीं रहता। तत्व को जान ले और ब्रह्म के साक्षात् दर्शन होने लगें और सब प्रकार से विश्वास हो यही सत्य है योग का।
चालिबा पंथा के सीबां कंथा । धरिबां ध्यांनं कै कथिबा ग्यांनं।
एकाएकी सिध के संग। बदंत गोरषनाथ पूता न होयसि मन भंग।।
कवितान्तर :
या चलते रहो
या कंथा सुधारते रहो
उसकी उधड़ी बखिया सही करते रहो
फटे की करते रहो तुरपाई
सीते रहो हर टूटी सीवन को
ध्यान धरो या ज्ञान का संधान करो
रहो अकेले या दुकेला करो तो
किसी अपने जैसे एकाकी के साथ
जो सिझा हुआ है जगत के जाल से उबर कर
उसकी संगति में रहो
वह मोह की ओर मोड़ कर
अंतर्मन को किसी बाड़ी-झाड़ी में
फंसाएगा नहीं।
सहज अर्थ :
या तो मार्ग में चलते रहना चाहिए, या कंथा सीते रहना चाहिए या ध्यान धरे रहना चाहिए या ज्ञानोपदेश करते रहना चाहिए। इस प्रकार एकाकी रहने से अथवा निर्लिप्त सिद्ध की संगति में रहने से मनोभंग नहीं होता। योग से ध्यान न हटे यही योग का मर्म है।
चापि भरै तो बासण फूटै, बारै रहै तो छीजै।
बसत घणेरी बासण बोछा । कहो गुरु क्या कीजै ।।
कवितान्तर :
मिट्टी का भांडा
बहुत ठूंस कर भरने से
टूट-फूट जाता है
नव लघुचेता शिष्य को बहुत सिखाने से
वह न कर पाए दिये ज्ञान के अनुसार
तो सारा मर्म बाहर छलक-उफन गिर जाता है।
बाहर बह गया तत्व किस काम का
उसे व्यर्थ होना ही है।
सामान अधिक है
मंजूषा छोटी है उतनी ही
क्या करे गुरु
कैसे भरे क्षुद्र मन में
अपार उदधि-सद्ज्ञान।
सहज अर्थ :
मिट्टी के भांडे में खूब दबा करके भरने से बर्तन फूट सकता है, बहुत ठूंस करके शिष्य में ज्ञान भरने से वह उसके अनुसार कार्य न कर सके और मार्ग को छोड़ दे और यदि कुछ बाहर रहने दिया जाए तो जितना अंश बाहर रहेगा वह नष्ट हो जाएगा। वस्तु बहुत है अधिक, और पात्र बहुत छोटा है। ऐसे में गुरु ही दिखाए राह, कहो हे गुरु! क्या किया जाए?
नोट- सबदियों का मूलपाठ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल जी की गोरखवाणी नामक पोथी से और सहज अर्थ पाने के लिए गोविंद रजनीश की किताब महायोगी गोरखनाथ साहित्य और दर्शन के साथ डॉ. कमल सिंह की पुस्तक गोरखनाथ और उनका हिन्दी साहित्य से सहायता ली गई है। उन सबका आभार।
उत्तर प्रदेश के भदोही जनपद के भिखारीरामपुर गाँव में जन्मे बोधिसत्व का मूल नाम अखिलेश कुमार मिश्र है। यूजीसी के फेलो रहे बोधिसत्व ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से ‘तार सप्तक कवियों की कविता और काव्य-सिद्धान्त’ विषय पर शोधकार्य किया, जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित है। उनके अब तक पाँच कविता-संग्रह- ‘सिर्फ़ कवि नहीं’, ‘हम जो नदियों का संगम हैं’, ‘दुःखतंत्र’ ‘ख़त्म नहीं होती बात’ और ‘अयोध्या में कालपुरुष’ प्रकाशित हैं। उनकी किताब ‘महाभारत यथार्थ कथा’ पिछले दिनों चर्चित रही, जिसमें महाभारत की कथाओं के आन्तरिक सूत्रों का एक नवीन अध्ययन किया गया है। उनका छठवाँ कविता संकलन ‘संदिग्ध समय में कवि’ प्रकाशित होने वाला है। ‘गोरख काव्य प्रबोध’ नाम से गोरखनाथ की सौ सबदियों और एक पौराणिक नाटक के साथ बादशाह अकबर के आंतरिक जीवन और विचार पर एक किताब भी प्रकाशन के अधीन है।
उनकी कविताओं के भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हैं। कुछ कविताएँ मास्को विश्वविद्यालय के एम.ए. के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। वे साहित्य और सिनेमा दोनों में बराबर दखल रखते हैं। लगभग दो वर्ष ‘स्टार न्यूज़’ के सम्पादकीय सलाहकार और दो दर्जन से अधिक टीवी धारावाहिकों और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म के शोज़ की स्क्रिप्ट्स का प्रमुख हिस्सा रहे बोधिसत्व के क्रेडिट में ‘शिखर’ और ‘धर्म’ जैसी फ़िल्में भी शामिल हैं। पिछले दिनों स्टार प्लस पर प्रसारित हुए धारावाहिक ‘विद्रोही’ का निर्माण उन्होंने अपने प्रोडक्शन हाउस ‘गाथा प्रोडक्शंस’ से किया है। विख्यात टीवी धारावाहिक ‘देवों के देव महादेव’ के लिए शोधकार्य कर चुके हैं। उन्हें उनकी कविता के लिये ‘भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार’, ‘संस्कृति अवार्ड’, ‘गिरिजाकुमार माथुर सम्मान’, ‘फ़िराक़ गोरखपुरी सम्मान’ समेत कई पुरस्कार प्राप्त हैं। वे सम्प्रति साहित्य और सिनेमा के साथ टीवी धारावाहिक के लिए लेखन और निर्माण में व्यस्त हैं। उनसे ई-मेल : abodham@gmail.com और मो. 9820212573 पर संपर्क किया जा सकता है।
सबद एक नया मंच है।
इसका आभार कि इसने मुझे प्रकाशित करने योग्य पाया!
गोरख सबद प्रमोद श्रृंखला के अंतर्गत ये काव्यानुवाद महत्वपूर्ण है।सबदियों को इस तरह पढ़ना एक नया अनुभव है। बोधिसत्व निश्चित रूप से महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
इस श्रृंखला का काव्यानुवाद मैंने पढ़ा। बोधिसत्व ने गोरखनाथ के सबदियों का बहुत सुंदर और सहज भाषा में काव्यानुवाद किया है।यह हिन्दी के साथ अन्य भाषा भाषियों के लिए भी महत्वपूर्ण है। इससे गोरखनाथ को समझने में सुविधा होगी।