कविता

केशव तिवारी की कविताएँ

समकालीन हिन्दी कविता के संसार में अपनी तरह के अनूठे कवि केशव तिवारी का जन्म अवध के प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव जोखू का पुरवा में हुआ। वाणिज्य और व्यवसाय-प्रबंधन की पढ़ाई के बाद वे लंबे समय तक हिंदुस्तान यूनीलीवर में सेल्स ऑफिसर के पद पर कार्यरत रहे। नौकरी के दौरान लम्बे समय तक बुंदेलखंड के बाँदा जिले में उनका रहना हुआ, यही कारण है उनकी कविताओं में अवध और बुंदेलखंड का लोकजीवन एकसाथ अपनी साझा चमक सहित मौजूद है। तेलुगु, मलयालम, बंगाली और मराठी आदि भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद हो चुका है। उनकी कविता की चार पुस्तकें- ‘इस मिट्टी से बना’, ‘आसान नहीं विदा कहना’, ‘तो काहे का मैं’ और ‘नदी का मर्सिया तो पानी ही गायेगा’ प्रकाशित हैं। वे स्वभाव से घुमक्कड़ हैं और उनके व्यक्तित्व का आयतन प्रगतिशील-जनवादी मूल्यों से आकार पाता है। ‘सबद’ पर उनकी सात कविताएँ प्रस्तुत हैं।  

वह देखती है अपना स्कूल
और पल भर को ठहर जाती है।
देखती है पुराना उजड़ा पार्क
और तेज़ी से निकल जाती है

इस अनंत धरती पर
कितनी यात्राएँ ठहरी पड़ी हैं
कविता को फिर शुरू करना चाहिए उन्हें
इस यात्रा में शामिल हों पेड़-नदी-पहाड़

जो कहीं नहीं गए
याद करते हैं
मेंड डाँड़ खटते हैं
और हम कवित्त करते हैं

इन हँसते धर्मसिक्त चेहरों का भय
अगर तुम्हें नहीं दिखता तो मुझे
तुम्हारी बीनाई पर कुछ भी नहीं कहना

भोर का सूरज देखने बैठा हूँ
बस पाँव- पाँव आ गई है नदी
उस पार से सुनाई पड़ रही है हलचल

मनुष्य के बारे में भी
उसकी उसी आवाज़ को खोजता हूँ उसमें
जिसे छोड़ अलग होता हूँ

नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा
वह आज काली पड़ चुकी है
मनिहारपुर के घाट के पत्थरों पर

खो चुके शहर में बेटियाँ

बेटियाँ माँ-बाप के न होने पर
मायके आती हैं
और देखती हैं छूट चुका शहर

एक बेटी जब अचानक अपनी बेटी को
अपने मित्रों की स्मृति
नाना-नानी की चिन्हारी
दिखा रही होती है।
तभी कोई बूढ़ा
पिता का मित्र मिलता है
खाँसता हुआ
पूछता है-
भरे गले से-
तुम कब आई
घर क्यों नहीं आई
वह उसी घर की बात कर रहा होता है।
जहाँ ख़ुद रात गए पहुँचता है
और बहू से नजर बचाकर
रखा खाना खा सो जाता है।

यह शहर कितना अपना था कभी
वह पल-पल महसूस करती
फिर भी उदासी छुपाते
चहक चहककर दिखा रही होती है।
नानी की किसी सहेली का घर
जहाँ वह कभी आती थी
जब तुम्हारे जितनी बड़ी थी
साँकल खटकाने का साहस नहीं कर पाती
कौन होगा
अब कौन पहचानेगा

वह देखती है अपना स्कूल
और पल भर को ठहर जाती है।
देखती है पुराना उजड़ा पार्क
और तेज़ी से निकल जाती है

कई बार लगता है
यह बूढ़ा शहर
उनके साथ-साथ
लकड़ी टेकते
पीछे-पीछे
ख़ुद सब देखते-समझते
चल रहा है….

 

पता होना चाहिए

कविता को अपनी यात्रा करनी चाहिए
वह कहीं भी हो
संस्थानों, प्रतिष्ठानों, आलोचकों, संपादकों के बस्ते में
उसे निकलना चाहिए
उसे पता होना चाहिए
कि उसे कहाँ जाना है
कहाँ खटना
कहाँ सुस्ताना है
कहाँ मनसायन करना है
कहाँ गाना है
अगर वह अपना रास्ता भटक जाए तो
उसे सरापना चाहिए अपने कवि को
कि वह भी ऐसे ही भटके
और अपनी ज़मीन पर
कभी न लौट पाए

इस अनंत धरती पर
कितनी यात्राएँ ठहरी पड़ी हैं
कविता को फिर शुरू करना चाहिए उन्हें
इस यात्रा में शामिल हों पेड़-नदी-पहाड़
और जागते-ऊँघते लोग
एक नदी तो हमेशा साथ रखनी होगी उसे
कहावत है कि थके के लिए
नदी से बड़ा संगी नहीं
और हारे के लिए
कविता से बड़ा संगाती

हम कवित्त कर रहे हैं

जेठ गया
असाढ़ गया
सावन गया
गया भादों

इनकी ही राह पकड़
चला गया कुआर
इनकी ही पाँत लगे
ना शुकरे यार 

सरपत की धार से
कातिक गया रेत
इन दिनों मन
जैसे कोई ढेलहा खेत

जो कहीं नहीं गए
याद करते हैं
मेंड डाँड़ खटते हैं
और हम कवित्त करते हैं

नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा

आज फिर महसूस हो रहा है
कठुवा के पुल का नंगे पाँव स्पर्श
 
छिले बदन सरपत के जंगलों में
ख़रगोश पकड़ता एक बच्चा
कितना सयाना हो गया
यह सरपतों से नहीं छिलवाना
चाहता अपना बदन
सिर्फ़ अनुभूतियों को सहला रहा है।
 
वह मनिहारपुर के घाट के पत्थरों पर
उन औरतों की बिवाई फटी एड़ियों के
घिसने के निशान खोज रहा है
जिनसे हाथ छुड़ाकर वह अक्सर
दहान में उतर जाता था
 
उसके बचपन की नदी सई
काली पड़ चुकी है
लँगड़ाती-कलझती दम तोड़ती सई का दर्द
न तो बेल्हा माई के मंदिर की घंटियों में है।
न साईं की कुटी से उठती
चिलम की लपट में दिखता है
उसका चेहरा
 
चतुर कवि तो कविता में गाल बजाएगा
नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा

शिकायत

खिले फूलों के बीच ये उदास चेहरे
मेरी शिकायत वसंत से नहीं है।
तुम लाख जिसे देवताओं की नदी मानते हो
हरदम उसे माँ-माँ कहते हो
कितने भी प्यासे हो पर
कड़ा घाट पर
उसका एक चुल्लू
काला पानी नहीं पी सकते
इन हँसते धर्मसिक्त चेहरों का भय
अगर तुम्हें नहीं दिखता तो मुझे
तुम्हारी बीनाई पर कुछ भी नहीं कहना
तुम्हारी और बहुत-सी ख़ुशफ़हमियों को
सलाम है पर
मगर के साथ तुम्हें
जो भी करना है
किनारे ही रहकर सकते हो
नहीं मैंने तुम्हारी तैराकी पर
सवाल नहीं किया
पर जानता हूँ
तुम पानी में
उससे तेज़ नहीं हो

बुद्ध सुन रहे हो

पूस के कोहरे में
केन के छुलछुलिया घाट पर
भोर का सूरज देखने बैठा हूँ
बस पाँव- पाँव आ गई है नदी
उस पार से सुनाई पड़ रही है हलचल
बीच नदी तक आते-आते
दिखी एक स्त्री
गोद में लिए बकरी का बच्चा
और अपने बच्चे की उँगली पकड़े
वह पार कर रही थी नदी
एक अद्भुत दृश्य था मेरे सामने
किनारे आते ही पूछ बैठा मैं
कि बकरी के बच्चे को भी तो
वह पैदल पार करा सकती थी नदी
समेटते हुए अपनी चादर वह बोली-
साहब बकरी का बच्चा अभी गभुहार है
मैं सन्न था सुनकर
गंछा गाँव की उस स्त्री का जवाब
बुद्ध तुम भी सुन रहे हो न
क्या कह रही है यह स्त्री !

आग और आवाज़

इस सर्दी की शुरुआत में
मैं पलाश के जंगलों से गुज़रा
मैं आग के फूल देखने लगा
उनके ओस खाए पेड़ों पर
बिना उन फूलों के
मैं पलाश की कल्पना भी नहीं कर सकता
कभी-कभी मुझे ऐसा ही लगता है।
मनुष्य के बारे में भी
उसकी उसी आवाज़ को खोजता हूँ उसमें
जिसे छोड़ अलग होता हूँ
ये पेड और मनुष्य का मसला नहीं
आग और आवाज़ का मसला है

संपर्क : वसंत विहार कालोनी, कताई मिल, बांदा, उत्तर प्रदेश-210001
मो -7897569310, 8303924723 ; ई मेल- keshavtiwari914@gmail.com

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