हिन्दी में ‘पब्लिक स्फियर’ या लोकवृत्त को लेकर प्रायः बहुत कम बातें हुई हैं, जबकि समूचे विश्व में विचार और संकल्पनाओं की निर्मिति और उसकी साझेदारी में इस लोकवृत्त और उसमें होने वाली बौद्धिक बहसों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यूरोप में कितने ही कॉफी हाउस बौद्धिक उत्तेजना का स्थायी केंद्र रहे हैं और उनसे बहुत से मौलिक विचारकों की संबद्धता भी रही है। विजयदेव नारायण साही के जन्मशती वर्ष पर उनसे जुड़े कई प्रसंग और विमर्श सामने आ रहे हैं, लेकिन वरिष्ठ कवि-आलोचक अनिल त्रिपाठी का यह आलेख अत्यंत रोचक तरीके से साहित्य और विचार के संसार में कॉफी हाउस के बहाने लोकवृत्त के महत्त्व को न केवल रेखांकित करता है अपितु परिमल, विजयदेव नारायण साही और इलाहाबाद के बौद्धिक समाज की कॉफी हाउस में होने वाली गोष्ठियों के माध्यम से हमें उस समय में भी ले जाता है, जहाँ बातचीत का एक अपूर्व, आत्मीय और बहसतलब संसार विन्यस्त है। यह आलेख इसलिए भी विशेष है कि इसके बहाने हम आधुनिक यूरोप की महत्वपूर्ण बहसों और उनके केंद्र रहे कॉफी हाउस का भी एक परिचय हासिल करते हैं। (यह आलेख अनिल त्रिपाठी द्वारा रज़ा फाउंडेशन द्वारा बीते दिनों आयोजित तीन-दिवसीय संगोष्ठी में दिए गये व्याख्यान का व्यवस्थित-संपादित रूप है।)
साहित्यिक वाद-विवाद औरों को चाहे जितना फिजूल लगे, लेखक के लिए तो हमेशा आकर्षक और कभी-कभी तो ज़िंदगी और मौत के सवाल की तरह लगता है।
नई कविता के विख्यात कवि आलोचक विजयदेव नारायण साही का यह जन्मशती वर्ष है। इस अवसर पर साही के योगदान को याद करना, उन्हें देखना, गुनना बीसवीं सदी के इतिहास के उस दौर को याद करना है, जिस दौर में कविता के मूल्य और मानदण्ड के लिये तथा अपने आसपास की चुनौतियों के स्वरूप की पहचान के लिए सबसे प्रबल रूप में सतर्क संवाद और बहस किए गए। साही इन बहसों के केंद्र में थे। उनकी बेलाग और दहाड़ती आवाज इन बहसों का एक पक्ष थी। उन्हें ‘एक बहस करते हुए आदमी’ के रूप में हम याद करते हैं। साही पर बात करते समय उनका यह कथन बराबर ध्यान में रहता है कि “सचमुच बड़ा लेखक, उसमें कुछ भी दम है तो अभिनंदित होने से अधिक समझा जाना पसंद करेगा। अभिनंदन की प्यास दिमागी दुगड़ेपन की द्योतक है।” इसलिए यहाँ इस आलेख में दिए गए विषय ‘कॉफी हाउस की मेज पर साही और साहित्य का लोकवृत्त’ पर बात करते समय भी उक्त बात ध्यान में रहेगी।
साही इलाहाबाद में लगभग चार दशक रहे। उच्च-शिक्षा के लिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में उन्होंने प्रवेश लिया था। पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ दिन काशी विद्यापीठ में अध्यापन करने के बाद वे अंततः इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी-विभाग में अध्यापक हुए। यह सन 1951 की बात है। तब से लेकर अपने अंतिम समय तक साही वहीं रहे और अपने चिंतन, सर्जन और बहसों से उस समय के समूचे वातावरण को वोल्केनिक बनाए रखा। छठे दशक का यह इलाहाबाद साहित्य के लोकवृत्त की दृष्टि से बेहद ऊर्जावान और गहमागहमी से भरा था। यह वही समय है जब साही अपनी वैचारिकी को धार देने के लिए कटिबद्ध थे। इस युग के लेखकों के लिए साहित्यिक वाद-विवाद जिंदगी और मौत के सवाल की तरह लगता है। विजयदेव नारायण साही के लेखों के संग्रह का नाम ही ‘छठवां दशक’ है, जिसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है, “साहित्यिक वाद–विवाद औरों को चाहे जितना फिजूल लगे, लेखक के लिए तो हमेशा आकर्षक और कभी–कभी तो ज़िंदगी और मौत के सवाल की तरह लगता है।”
इलाहाबाद, परिमल और काफी हाउस साही के व्यक्तित्व के नियामक तत्त्व हैं। लिहाजा इसकी शुरुआत कैसे हुई, कैसा वातावरण था, जिसमें साही का व्यक्तित्व आकार ले रहा था, यह सब जानने के लिए इलाहाबाद के उस दौर को थोड़ा देखना पड़ेगा। आखिर तेन (Hippolyte Taine) ने कृति, कृतिकार और उसके परिवेश के अंतर्संबंधों को बेहद महत्त्वपूर्ण माना है। ‘परिमल’ संस्था अब इतिहास है, लेकिन एक समय में उसकी कितनी बड़ी भूमिका थी, इसका अनुमान सिर्फ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इसके आयोजनों में अधिकांश उस समय के मूर्धन्यों ने भाग लिया था और उस दौर के ज्वलंत प्रश्नों पर बहुत ही सार्थक और गंभीर बातचीत की थी। साही निरंतर इन समस्यामूलक ज्वलंत मुद्दों से प्रश्नबिद्ध रहे। यह प्रश्नबिद्धता उधेड़बुन के रूप में साही के मन-मस्तिष्क को लगातार मथती रही, जो कि साही के आलोचनात्मक लेखों में बहुत ऑबियस ढंग से दिखाई भी देती है।
आखिर एक संस्था कैसे बनी जिसके बारे में हरीश त्रिवेदी का विचार है कि, “परिमल जैसी संस्था न पहले कभी हुई और न अब कभी होगी- सच ही ‘न भूतो न भविष्यति’, यह उसके व्यापक साहित्यिक प्रभाव के कारण तो है ही, कुछ इसलिए भी है कि इसका आयोजन और इसकी पूरी व्यवस्था शायद हिंदी की पूरी प्रकृति के विरुद्ध थी। यह कैसे चल निकली और कैसे इतनी सफल रही, यह आश्चर्य का विषय है।” (तद्भव – 48)
केशवचंद्र वर्मा ने ‘परिमल : स्मृतियाँ और दस्तावेज’ नामक अपनी पुस्तक में परिमल संस्था के इतिहास को बहुत खूबसूरत ढंग से संजोया है। इस पुस्तक में विशननारायण टंडन का एक आलेख है ‘परिमल की स्थापना के समय की परिस्थितियाँ’, यह आलेख विस्तार से इस संस्था के आकार लेने की परिस्थितियों का वर्णन तो करता ही है; साथ ही, साही की भूमिका को भी बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है। विशन टंडन के आलेख से पता चलता है कि साही इलाहाबाद 1941 में ही आ गए थे। वहाँ उन्होंने गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में एडमिशन लिया था। विशन टंडन साथ थे। उन दिनों साही के बड़े भाई विश्वविद्यालय में विशन के पिताजी आर एन टंडन के निर्देशन में शोध कार्य कर रहे थे। विशन टंडन ने साही के बारे उन दिनों को याद करते हुए लिखा है- “विजयी अत्यंत प्रतिभाशाली और मेधावी विद्यार्थी था। उसकी प्रतिभा से प्रभावित उसके सहपाठी और अन्य लोग सहज ही आकर्षित हो जाते थे। इस आकर्षण का एक और भी कारण था, विजयी कविता करता था और अपना एक गीत ‘वह पुरानी बात साथी’ बड़े मीठे और सुंदर स्वर में सुनाया करता था। वैसे वह विद्यार्थी हिंदी का नहीं फ़ारसी का था। हाई स्कूल में भी उर्दू और फारसी पढ़ी थी। बाद में इंटर और बी. ए.में भी फ़ारसी उसका एक विषय रहा।” इसके बाद वर्ष 1943-44 में साही स्नातक की पढ़ाई के लिए विश्वविद्यालय आ गए और कायस्थ पाठशाला छात्रावास में रहने लगे। इस दौरान विश्वविद्यालय की सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में जमकर भाग लिया। अंग्रेजी-विभाग में उस समय फ्राइडे क्लब, ड्रामेटिक सोसाइटी जैसी संस्थाएँ थीं, जो एलिटिस्ट थी और जिन पर अंग्रेजीदाँ लोगों का अधिकार था। उन्होंने धीरे-धीरे इन संस्थाओं में अपना प्रतिनिधित्व बढ़ाया और जिस ड्रामेटिक सोसाइटी में केवल अंग्रेजी के नाटक खेले जाते थे, वहाँ अंततः इस सोसाइटी के माध्यम से प्रसाद का नाटक चंद्रगुप्त खेला गया। उस समय भगवत दयाल जो अंग्रेजी विभाग में अध्यापक थे, वे सोसाइटी के अध्यक्ष थे। वे बेहद स्नॉब थे। वे अपने नाम का उच्चारण भी ‘बी डायल’ करते थे। वे विलायत से पढ़े थे। भगवत का उच्चारण भी ‘बैगवट’ ही करते थे। बकौल हरीश त्रिवेदी, उनकी नुमाइशी अंग्रेजी से चिढ़कर एक दिन फ़िराक़ साहब ने उनसे कहा कि “अरे सुनो भाई भगवत तुम अब एक बार फिर विलायत हो आओ, क्योंकि अब तो तुम्हारी अंग्रेजी हमारी भी समझ में आने लगी है।” भगवत दयाल ने साही के चंद्रगुप्त मंचन के प्रस्ताव का विरोध किया था।
ज़ाहिर है, ऐसी ‘स्नोबरी’ से साही को चिढ़ थी। यही वह समय था, जब हिंदी की गोष्ठियों के लिए विशन टंडन, साही और अन्य मित्रों में किसी संस्था की ज़रूरत का बीजारोपण हुआ और वह दिन आया, जब 10 दिसंबर 1944 को हरिमोहन श्रीवास्तव के घर पर इस प्रयास के लिए पहली बैठक हुई। हालांकि कई जगह यह बैठक विशननारायण टंडन के घर पर होना बताया गया है। किंतु विशन टंडन का अपना वर्जन इस प्रकार है- “पहली बैठक 10 दिसंबर 1944 को नए कटरा में हरिमोहन श्रीवास्तव के घर हुई। गिरधर गोपाल से मेरी और विजयी की बात हो चुकी थी। संविधान की कुछ रूपरेखा भी हमने तैयार कर ली थी। बैठक में कुल आठ लोगों ने भाग लिया और इसकी अध्यक्षता की डॉ. राकेश गुप्त ने। भाग लेने वालों में थे– डॉ राकेश गुप्त, हरिमोहन श्रीवास्तव, महेश चंद्र चतुर्वेदी, इंद्रनारायण टंडन, विजयी, गिरधर गोपाल और मैं। और जहाँ तक मुझे याद है, आठवें सज्जन थे रामचंद्र वर्मा। महेश चतुर्वेदी 10 दिसंबर की बैठक के बाद सदस्य नहीं रहे। उस बैठक में संस्था के नाम पर कोई निर्णय नहीं लिया गया लेकिन हरि मोहन श्रीवास्तव उसके संयोजक बनाए गए और उन्होंने मुझे सहायक संयोजक नियुक्त किया। संस्था में किसी अन्य पद की व्यवस्था नहीं की गई थी। यद्यपि गोपेश, जगदीश गुप्त, भारती, केशव, महेंद्रप्रताप पहली बैठक में नहीं थे, उनसे बातचीत हो चुकी थी।” (परिमल : स्मृतियाँ और दस्तावेज, पृष्ठ 114)
संस्था के अस्तित्व में आने के बाद तो गोष्ठियों की झड़ी सी लग गई। 1952 में परिमल पर्व पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बतौर संयोजक एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें विस्तार से विषयवार गोष्ठियों का लेखा-जोखा शामिल था। इन सात वर्षों में 150 गोष्ठियाँ हुईं। इन्हीं में से किसी गोष्ठी में साही ने ‘आधुनिक हिंदी कविता का स्वरूप’ निबंध पढ़ा था, जो आगे के मशहूर निबंध ‘लघु मानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ का बीजरूप था। यहाँ एक बात और रेखांकित करने योग्य है कि चूँकि यह संस्था विश्वविद्यालय की गिरह से दूर थी, अतः शुरुआत में विश्वविद्यालय में गोष्ठियों के लिए जगह मिलने में थोड़ी कठिनाई हुई किंतु साही के प्रयास से कायस्थ पाठशाला का हाल मिलने लगा था। और बाद में बकौल विशन टंडन “परिमल की गोष्ठी अधिकतर भारत बाबू के इलाहाबाद काफी हाउस में आयोजित की जाने लगी।” लगे हाथ भारत बाबू को जान लें। भारत बाबू का पूरा नाम भारतेंदु प्रसाद माथुर था। वे एक कुशल और लोक प्रिय पत्रकार थे। राजनीति और साहित्य के उस दौर की उन्हें गहरी समझ थी। इलाहाबाद काफी हाउस इन्हीं के मकान में था और वे इसके संचालक थे। यह काफी हाउस उस समय के साहित्यिक लोकवृत्त का प्रमुख केंद्र था। यह विश्वविद्यालय के पास था। इसी में 1946-47 में कई गोष्ठियाँ हुईं। डा. अमरनाथ झा, जो विश्वविद्यालय के वाइसचांसलर थे और अपनी विद्वत्ता के लिए विख्यात थे, उनकी उपस्थिति में भी इसी काफी हाउस में एक शानदार गोष्ठी हुई थी। इस गोष्ठी में भारती ने अपनी एक कहानी ‘पूजा’ पढ़ी थी। बहरहाल कुल मिलाकर कहना यही है कि परिमल ने उस समय के इलाहाबाद को जीवंत और स्पंदित बनाए रखा।
यहाँ काफी हाउस का ज़िक्र महत्त्वपूर्ण है। एक तो इससे यह जानकारी मिलती है कि इलाहाबाद में 1945-46 में कॉफी हाउस न केवल अस्तित्व में था, बल्कि यूरोपियन अवधारणा के अनुकूल उसका यत्किंचित इस्तेमाल ‘पब्लिक स्फीयर ‘ की तरह हो रहा था। भारत में पहला कॉफी हाउस 1936 में चर्चगेट मुंबई में खुला। यह कॉफी बोर्ड द्वारा संचालित था। उसके बाद ही कलकत्ता, मद्रास, दिल्ली, इलाहाबाद, पटना आदि जगहों पर भी वे खोले गए। बाद में 1957 में इंडियन कॉफी वर्कर्स कॉपरेटिव सोसाइटी के गठन के बाद भारत भर में इंडियन कॉफी हाउस के आउटलेट खुले। इलाहाबाद का इंडियन कॉफी हाउस वर्तमान बिल्डिंग में 1957 में ही खुला। पहले यह इस भवन के पास ही एक अन्य पुराने बंगले में था। जिसकी तस्दीक रामस्वरूप चतुर्वेदी के आलेख ‘कॉफी हाउस : प्रतिपक्ष का सदन’ से होती है। उनके अनुसार ‘नई कविता’ पत्रिका के प्रवेशांक की योजना 1954 में जगदीश गुप्त और भारती के साथ इसी जगह बनी।
कहने का तात्पर्य यह कि बीसवीं सदी के इस छठे दशक में इलाहाबाद के साहित्यिक लोकवृत्त के निर्माण में इन काफी हाउस जैसी संस्थाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। यद्यपि भारत में ये संस्थाएँ अपेक्षाकृत बिल्कुल नई थीं, फिर भी इन्होंने बौद्धिक विमर्श के लिए एक लोकतांत्रिक स्पेस का निर्माण किया। यहाँ रचनाकार, कलाकार, पत्रकार, राजनेता सभी आकर एक कप काफी पर देर तक विभिन्न निजी और सार्वजनिक मुद्दों पर बातचीत कर सकते थे ।
पश्चिम में खासतौर पर योरोप में यह तो रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा ही थी। इस तरह की अनौपचारिक बैठकों ने कितने विचार दिए। हैबरमास की ‘पब्लिक स्फीयर ‘ की पूरी अवधारणा इन्ही ‘टेबल टाक’ और कहवाघरों से ही तो जुड़ी है। टेबल टाक से याद आया कि कितनी महत्त्वपूर्ण किताबें इस पर लिखी गयी है। हैजलिट और सैमुअल टेलर कालरिज की ‘टेबल टाक’ नाम की किताबें तो बहुत मशहूर हैं। पेरिस के कैफे क्रांतिकारी विचारों, बहसों के लिए दुनिया भर के विचारकों, कलाकारों, रचनाकारों के लिए आकर्षण का केंद्र रहे हैं। पेरिस ही नहीं दुनिया के सबसे पुराने कैफों में से एक ‘कैफे द प्रोकोप’ 1686 में स्थापित हुआ था। ज्ञानोदय काल में यहाँ से निकले विचारों ने दुनियाभर को रोशनी दी है। यह सोचकर ही रोमांच हो उठता है कि कभी इसमें वोल्टेयर, दिदेरो और रूसो बैठा करते थे। फ्रेंच रेवलूशन की बुनियाद यहीं पड़ी। इस कैफे में नेपोलियन बोनापार्ट आते थे। राव्स पियेर, बालज़ाक, विक्टर ह्यूगो, वर्लेन, अनातोले फ्रांस भी प्रायः इसी कैफे में आते। बालज़ाक ने ‘द ह्यूमन कामेडी’ के कई हिस्से यहीं लिखे। उनके बारे में कहा जाता है कि वे कॉफी के भयंकर पियक्कड़ थे। दिन में पचास कप पी जाते थे। अधिक कॉफी पीने से ही उनकी मृत्यु हुई। ऐसे ही कैफे ‘द फ्लोर’ और ‘कैफे द मैगोट’ ने भी खूब प्रतिष्ठा अर्जित की। ‘कैफे द मैगोट्स’ तो अनेक रचनाकारों, कलाकारों, दार्शनिकों की वैचारिक बहसों का साक्षी रहा है। वर्लेन, रिंबो जैसे कवि यहाँ आते। आधुनिक फ्रांसीसी कविता में सुरियलिज्म यहीं से निकाला। अपोलनियर, एलुआर, अरागों, आंद्रे ब्रेटों, डेरेन, डिसनोस आदि यहीं बैठते। हेमिंग्वे और जेम्स जोयस यहीं बात करते। हेमिंग्वे के संमरणों की शानदार पुस्तक ‘अ मूवेबल फीस्ट’ जो पेरिस प्रवास के दौरान लिखी गई थी, उसकी शुरुआत और अधिकांश लेखन इसी कैफे में हुआ। और तो और, सार्त्र और सीमोन का यह स्थाई अड्डा था। कहना न होगा कि कितने ही किस्से और विचार इन्हीं कॉफी हॉउसेज़ की अनौपचारिक बैठकों में नमूदार हुए। कॉफी हाउस के इतिहास पर एक बहुत सुंदर किताब मार्कमैन एलिस की है- ‘द कॉफी हाउस : अ कल्चरल हिस्ट्री’, जिसमें विस्तार से पश्चिम में कॉफी हाउस की भूमिका को रेखांकित किया गया है।
साही अंग्रेजी के अध्यापक थे और यूरोप के इस सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक लोकवृत्त से परिचित थे। इलाहाबाद पहले से ही, यानी आजादी के लिए होने वाले संघर्ष के दिनों से ही अपनी बौद्धिक और आधुनिक राजनीतिक चेतना के लिए विख्यात था, ऐसे में जब कॉफी हाउस खुला तो एक लोकतांत्रिक स्पेस के रूप में इसने शहर के तमाम बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों और राजनेताओं को अपनी ओर आकर्षित किया। साही भी उनमें शामिल थे। वे कॉफी हाउस के रेगुलर विज़िटर थे। साही जोर देकर कहा करते कि इस देश में कुल तीन हाउस हैं- अपर हाउस, लोअर हाउस और कॉफी हाउस।
साही के कॉफी हाउस जाने और वहाँ होने वाली बातचीत के मुद्दे, गप्पों, ठहाकों आदि के बारे में कोई विधिवत सामग्री तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन ऐसे प्रसंगों के सूत्र यत्र-तत्र बिखरे जरूर हैं। साही के लेखन, उनकी डायरियों, भाषणों में कई जगह इस बात के संदर्भ हैं। रामस्वरूप चतुर्वेदी की पुस्तक ‘आलोचकथा’ में काफी हाउस के दिनों की थोड़ी विस्तार से चर्चा है। मलयज की डायरी से भी यत्किंचित प्रकाश पड़ता है। काश! कॉफी हाउस की मेज पर साही की इन बातों को कोई लिख पाया होता तो वह अप्रतिम दस्तावेज होता। शायद उसका भी वैसा ही महत्त्व होता जैसा कि बासबेल द्वारा रिकार्डेड सैमुअल जानसन की बातचीत का है। वैसे भी साही जानसन को पढ़ाते थे और उन पर जानसन के विट्स का गहरा असर था। साही कॉफी हाउस में कितने नियमित थे, कृष्णनाथ की एक बातचीत से पता चलता है। वे बताते हैं कि “वह (यानी साही) बार-बार कहते थे कि अगर तुम कोई नई बात हिंदी में सुनो तो यह जान लो कि वह बात 15 दिन या महीना पहले मैं इलाहाबाद के कॉफी हाउस में कही होगी। वहीं से वह फैली है।” (पूर्वग्रह के साही विशेषांक से उद्धृत) वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य ने भी इसी अंक में यह उल्लेख किया है कि “साही ने मुझे एक बार कहा था कि उनके दो घर हैं- एक 14 बैंक रोड में है और एक काफी हाउस में ….. यहाँ साही अपना काफी समय गुजारते थे- विचार–विमर्श करते, टिप्पणियाँ करते, आगे सोचने का पुरुषार्थ करते हुए। घर उन लोगों के लिए बंदीगृह होता है, जो दुनिया के उदात्त घेरे की ओर बढ़ने की आकांक्षा रखते हैं। राममनोहर लोहिया ने, जिनके पास अपना कोई निजी घर नहीं था अपनी जिंदगी का अधिकांश हिस्सा बिताने के लिए दिल्ली के खुले हुए काफी हाउस का वरण किया।”
मलयज ने भी अपनी डायरी में साही और कॉफी हाउस का संदर्भ दिया है। एक जगह वे लिखते हैं कि “कल शाम कॉफी हाउस में साही जी से स्फूर्तिप्रद भेंट। साही जी के लिए दिल में इज्जत कई गुना बढ़ गई। और वह इसलिए कि खुद अपने लिए अपनी निगाहों में इज्ज़त करने का एक नया पाठ मिला।” ( मलयज की डायरी, 3 अगस्त, 1961) ऐसे ही एक दिन की और टिप्पणी अत्यंत मानीखेज है। निश्चित ही बहस गंभीर रही होगी और साही जी को उकसाया गया होगा। 7 अक्टूबर, 1963 को मलयज ने यह दर्ज किया है- “एक दिन कॉफी हाउस में साही जी ने नए लेखकों पर कटाक्ष किया कि वे कोई नया विचार–दर्शन क्यों नहीं स्थापित करते, यदि वे समझते हैं कि नई परिस्थितियों में वह नया अनुभव कर रहे हैं, जैसा कि हम लोगों ने अपने समय में किया था। उनकी चुनौती दिमाग में जाकर फंसी रही।” मलयज ने आगे लिखा है कि सोचता हूँ उनकी पीढ़ी ने केवल चिंतन किया, विचार किया, अधिकतर अपनी परिस्थितियों से बाध्य होकर, इसलिए कि उन्हें किसी से मोर्चा लेना था, शायद यह प्रगतिवाद रहा हो। मलयज जब यह अंश लिख रहे थे तो उनके मन में परिमल की एक गोष्ठी थी जिसमें दूधनाथ सिंह की एक कहानी पर बहस हुई थी, जिसमें देवराज, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी और साही शामिल थे और इसमें विचार और अनुभूति के सवाल उठे थे।
लेकिन कॉफी हाउस का नजारा और वातावरण कैसा होता था? मलयज की 7 अगस्त, 1963 की डायरी इसे बहुत ही रोचक ढंग से रखती है। पूरा वर्णन कितना मूर्त है – “काफी हाउस में- मुंह लटकाए साहित्यकार, उमस और ऊब। उधर मानव जी की टेबुल है, इधर साही जी की, जिसे रघुवंश जी, विपिन जी और अज्ञात जी ने बांट लिया है। मेरी टेबुल पर नरेश मेहता ने चश्मा लगा रखा है- नया-नया ही पहना है। देखने से दुबले, परेशान लगते हैं या बेतरह ऊबे। लक्ष्मीकांत का पसीना लोगों की प्लेटों और प्यालियों में टपक रहा है और लोग उसे गर्म बहस के साथ सिप कर रहे हैं। बिल्कुल ‘पसीने की मशीन’ हैं लक्ष्मीकांत। श्री राम वर्मा उनसे खफा हैं कि …. जी को क्यों उन्होंने परिमल में कविता पाठ को निमंत्रित किया। रघुवंश जी श्री राम वर्मा का पक्ष ले रहे हैं। दोनों ओर से चेहरे तन जाते हैं और आवाज़ ऊंची उठ जाती हैं। एक प्याला गर्म काफी । … चारों ओर अजब बदहवासी का आलम है, सब जल्दी-जल्दी में है पर उठने का नाम नहीं लेते। एक उकताहट है, जिसे वे शिष्टतापूर्वक मुस्कान में लपेटकर दूसरों के सामने पेश करते हैं- लीजिए। लगता है सब देहाती घर में बीवी से झगड़ कर आए हैं या ऑफिस में डांट खाकर आए हैं।”
साही जायसी संबंधी अपने अध्ययन को भले ही उधेड़बुन कहते रहे हो, लेकिन जायसी के अध्ययन के लिये उन्होंने लम्बी तैयारी की थी। कुछ आलोचकों का ध्यान इस बात पर गया है कि धर्मनिरपेक्षता की खोज में साही जायसी तक पहुंचे ,तो कुछ ने बताया है कि सन् 1956 में एशियाई लेखक सम्मेलन में भी तुलसीदास और जायसी व्याकुल करने वाले प्रश्न की तरह मौजूद है। उन्होंने एक जगह लिखा है कि मुझे एथिक्स की समस्या बहुत परेशान नहीं करती, लेकिन मनुष्य का हृदय उसकी पीड़ा से अवश्य में हार जाता हूँ। यह ‘मानुष प्रेम भयउ वैकुण्ठी’ का आधिकारिक स्वप्नबीज था जो आरम्भ से ही साही के उधेड़बुन का हिस्सा रहा है। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में साही जायसीमय थे। वे पद्मावत को बाकायदा गा गाकर पढ़ते थे। केशवचंद्र वर्मा ने लिखा है कि “जायसी का संपूर्ण विवेचन करने से पहले वह एकाध बरस तक पद्मावत का सिर्फ गा गाकर पारायण किया करते थे। मैं उनके गाए हुए पद्मावत के तमाम खंड झेल चुका हूँ।” वे इस क्रम में अपने प्रश्नात्मक संशयों को विचार-व्याख्या की ठोस जमीन पर उतारने से पहले काफी उधेड़बुन करते। शुक्ल जी की जायसी संबंधी आलोचना पढ़ते हुये जब साही को यह लगा कि अपरिचय की जो दीवार जायसी ढहा देना चाहते थे उसका विस्तार शुक्ल जी ने अपनी आलोचना में नहीं किया तो वे तड़पकर रह गये। उस तड़प में उन्हें लगता है कि काश शुक्ल जी ने कालरिज की ओर ध्यान दिया होता (जिसका संकेत जायसी ने खुद ‘आदि अंत जस कथा कहै /लिखि भासा चौपाई कहै’ कहकर दिया था) तो निश्चय ही शुक्ल जी कहीं और पहुंचते। निश्चय ही साही का जायसी संबंधी अध्ययन जायसी के अबतक के अध्ययन में एक नई खिड़की खोलता है। यह सब बहुत लंबे समय से साही के मन में चल रहा था। दो दशक से अधिक समय तक जायसी साही के चिंतन में एक अनसुलझे प्रश्न की तरह मौजूद थे।
रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि, “जायसी पर लिखने की तैयारी के समय हम लोगों का बहुत साथ रहा। इस अवधि में उनकी जो नई उद्भावना होती, उसका पहला परीक्षण जैसे वह मुझ पर करते। जायसी पर लिखते समय साही प्राय मेरे यहाँ आ जाते या कॉफी हाउस चलते। रास्ते में स्कूटर पर और कॉफी हाउस पहुँचकर उस पर गंभीरता से बात करते। दरअसल ‘जायसी’ से वे इतना भरे रहते कि बड़े उच्छलित भाव से अपनी नई मान्यताएँ प्रस्तावित करते और आचार्य शुक्ल के विवेचन में यदि कहीं कुछ चूक हुई है तो उसके निराकरण का मार्ग सुझाते।”
निश्चय ही काफी हाउस में साही की उपस्थिति और उनकी बातचीत से साहित्य का लोकवृत्त समृद्ध तो होता ही था। साथ ही राजनीतिक और सामाजिक लोकवृत्त भी कम समृद्ध नहीं होता। रामेंद्र त्रिपाठी, जो साही जी के विद्यार्थी रह चुके हैं और 1965 से 70 के दौरान वे भी प्रायः साही जी के साथ काफी हाउस जाते थे। बताते हैं कि “केवल साहित्य के लोग ही नहीं आते थे, राजनीति से जुड़े कई धुरंधर भी आते। जनेश्वर मिश्र उनमें प्रमुख थे। लोहिया जब भी इलाहाबाद आते वे जरूर आते। साही इन सबसे बातचीत करते, बहस करते। साही का विट, सेंस ऑफ ह्यूमर, व्यंग्य गजब का था।” साही ने लोहिया से बातचीत के एक संदर्भ का उल्लेख अपने अंतिम भाषण में किया था। जो 11 अक्टूबर , 1982 को गांधी, लोहिया, जयप्रकाश जयंती के अवसर पर पटना में दिया गया था। विषय था- ‘सामाजिक परिवर्तन की दिशाएं और लोकतंत्र की कसौटियां’। जो बेहद दिलचस्प है। साही ने डॉक्टर राममनोहर लोहिया से एक बार कहा था कि, “डॉक्टर साहब आपके पास इतने नए विचार हैं और आप गांव-गांव घूमते रहते हैं। पार्टी बनाने का प्रयास करते हैं। इससे तो अच्छा यही है कि आप ब्रिटिश म्यूजियम में चले जाएं और वहां बैठकर कार्ल मार्क्स की तरह कुछ किताबें लिख डालें। पार्टी बनाने का काम तो और लोग भी कर सकते हैं लेकिन विचार देने का काम नहीं कर सकते”। डॉक्टर लोहिया ने उन्हें जवाब दिया और कहा- “प्रोफेसर ! मैं जल्दी में हूँ। मार्क्स को इतिहास ने सौ बरस दिए मुझको इतिहास इतना समय देगा नहीं।” ऐसे ही लोहिया ने कभी सिमोन द बोउआर की किताब की खूब तारीफ करते हुए ‘द सेकंड सेक्स’ को साही को पढ़ने के लिए कहा था। लोहिया सिमोन से प्रभावित और असहमत दोनों थे। बाद में पेरिस जाकर वे सिमोन से मिले भी। ऐसी या इसी तरह की कितनी बातें कहीं खुले या काफी हाउस में हुई होंगी, इसका हम अनुमान लगा सकते हैं।
बहरहाल हमेशा ही गंभीर बातें नहीं होती थी, कई बार खूब ठहाके लगते और हल्की-फुल्की बातें भी होतीं, जिसे हम सड़क-साहित्य के नाम से जानते हैं। रामस्वरूप जी बताते हैं कि इसमें जो प्रमुख भागीदार होते उनमें साही, सर्वेश्वर, भारती, जगदीश, विपिन, केशव और मैं।
कभी कभी साही जी कंचनलता साही के साथ भी कॉफी हाउस आते। तब वे कॉफी हाउस के फैमिली एरिया में बैठते और अपने हिस्से का एकांत कंचन जी के साथ जीते। ऐसे ही एक संस्मरण में कंचन जी ने साही जी के व्यक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं को छुआ है, वे लिखती हैं – “यह काफी हाउस- परिवार कक्ष में हम दोनों। बगल की मेज पर एक लड़का, एक लड़की। वे पूछते-
‘बोलो के जी! ये शादीशुदा हैं, or is it a liaison?’ ‘अभी नहीं बता सकती- वेटर को उनका बिल लाने दीजिए तब बताऊंगी।’
‘कैसे बताओगी?’ ‘Look if the boy pays, its a liason, if the girl pays they are married’, फिर हमारा बिल आता है और इन्होंने मुस्कुराकर बिल मेरी तरफ बढ़ा दिया है- ‘ बिल आप पे कीजिए हम शादीशुदा हैं ना’..।” (पूर्वग्रह साही विशेषांक पृष्ठ 101)
और अंत में साही जी की जन्मशती के इस अवसर पर इलाहाबाद, कॉफी हाउस और साही को याद करते हुए साही की ये पंक्तियाँ-
‘हम होंगे न होंगे मंज़िल तक वुसअते दिल हम राह रहे, जाओगे जहाँ तक लख्ते जिगर आवाज हमारी जाएगी।’
चर्चित कवि-आलोचक अनिल त्रिपाठी का जन्म उ.प्र. के सुल्तानपुर जिले के एक गांव तिवारीपुर में हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.ए., एम.फिल. और पीएच.डी की शैक्षिक यात्रा के अनंतर वे संप्रति हिन्दी-विभाग, श्रीजयनारायण पी.जी.कालेज लखनऊ में प्रोफेसर हैं। उनके अबतक दो कविता संग्रह ‘एक स्त्री का रोजनामचा’ और ‘अचानक कुछ नहीं होता’ तथा एक आलोचनात्मक पुस्तक, ‘नई कविता और विजयदेव नारायण साही’ प्रकाशित हैं। उन्होंने ‘मिट्टी की रोशनी’ (केदारनाथ सिंह पर एकाग्र), ‘प्रतिनिधि कविताएं-केदारनाथ सिंह’ तथा ‘कवि की वर्तनी’ (राजेश जोशी पर एकाग्र) पुस्तकों का संपादन किया है। उन्हें आलोचना के लिए प्रतिष्ठित देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान प्राप्त हो चुका है। उनसे मो. 9412569594 तथा E mail – aniltripathi13@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।