कथाकविता

एक लघुकथा और तीन कविताएं : अजंता देव

अजंता देव का जन्म जोधपुर में हुआ, यूं उनकी जड़ें बंगाल में रही हैं। राजस्‍थान विश्वविद्यालय से उच्च-शिक्षा पूरी करने के साथ ही वे शास्‍त्रीय संगीत (गायन), नृत्‍य, चित्रकला, नाट्य और अन्‍य कई ललित कलाओं में गहरी रुचि के साथ सक्रिय भी रही हैं। उनकी कविता में छंद, लय और सांगीतिकता मुख्य हैं। व्यंजना उनकी रचनाधर्मिता का मुख्य आधार है जिससे वे समकालीन विमर्श के पुर्ज़े खोलती हैं। ‘राख का क़िला’, ‘एक नगरवधू की आत्मकथा’, ‘घोड़े की आँखों में आँसू’ और ‘बेतरतीब’ उनके प्रकाशित काव्य-संग्रह हैं। कविताओं के अतिरिक्त गद्य में भी वे अभिव्यक्ति करती रहती हैं। उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से विशिष्ट साहित्यकार पुरस्कार के लिए चुना जा चुका है। बांग्ला से नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती व शक्ति चट्टोपाध्याय की कविताओं के और अंग्रेज़ी के जरिये ब्रेष्ट की कविताओं के हिन्दी में अनुवाद। कुछ समय पत्रकारिता करने के बाद अब भारतीय सूचना सेवा में। ‘सबद’ पर प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा और तीन कविताएं :

नया चारुदत्त पुरानी वसंतसेना     

वह शॉल सूती साड़ियों के बीच शान से टंगी थी। रेशम और ऊन से बुनी वह शॉल कश्मीर बॉक्स के पश्मीना के मुकाबले बहुत सस्ती थी ,पर वसंतसेना के लिए अनमोल थी। दो दिन पहले ही यह शॉल भव्य ढंग से उनके कंधों पर डाली गई थी। साथ में पुष्पगुच्छ और प्रशस्तिपत्र । ये उनके पुरस्कार समारोह की बात है। उन्हें उनके लेखन के लिए यह पुरस्कार दिया गया था। दो लाख की राशि भी थी ,जो उनके खाते में जमा कर दी गई थी।

वसंतसेना के पति अपनी पत्नी के पैसों पर आंख गड़ाए रहते थे ,इसलिए वसंतसेना साहित्य से हुई कमाई को तुरंत बैंक से निकाल लाती थी। ये खाता दोनों का जॉइंट अकाउंट जो था। आज भी वे अपने दो लाख रुपए लाकर दराज़ में बंद कर चुकी थीं। अब वे निश्चिन्त थीं । उनकी दराज़ में कोई हाथ नहीं लगाता था।

इधर चारुदत्त को नींद नहीं आ रही थी। चारुदत्त एक प्रतिष्ठित कवि था पर अपुरस्कृत । हर बार उसका नाम बस आते आते रह जाता था। उसे पुरस्कार की बड़ी ज़रूरत थी ,सम्मान की नहीं राशि की। वह हमेशा कहता था उसके पास सम्मान की नहीं , रक़म की कमी थी।वह हर पुरस्कार के विवरण में सिर्फ़ रक़म देख कर अपनी पुस्तक भेजता था और हर बार किसी और के नाम की घोषणा हो जाती थी। इस बार भी उसकी आशा पर धूल डाल कर वसंतसेना को यह पुरस्कार मिल गया। दो लाख …. दो लाख रुपए । वसंत के किस काम के ? काम तो चारु का रुका हुआ है। एक गाड़ी है और उसकी भी किस्तें बकाया। इज़्ज़त मिट्टी हो रही है । उसकी बीवी कई बार ताने मार चुकी है – निकालो ना तुम्हारी मिट्टी की गाड़ी।

चारुदत्त के जबड़े सख़्त हो जाते और गर्दन नीची। क्यों लिखता रहता है वह कविताएं ? क्यों लोग लहालोट होते रहते हैं उस पर ? क्यों वसंतसेना जैसी औसत लेखिका सारे पुरस्कार बटोर ले जाती है ? और पुरस्कार से क्या करना है ,उसे तो वह रक़म चाहिए।

चारुदत्त के मन में एक ही विचार घुमड़ने लगा कि कैसे ? कैसे उसे भी दो लाख रुपए मिल जाए।सारी रात उसे नींद नहीं आई । सवेरे के आसपास आंख लगी । आधी नींद में उसके दिमाग़ ने झटका खाया और एक विचार चमक उठा। वसंतसेना इस रुपए का क्या करेगी, उसके पास कोई कमी है । हां ,सम्मान की कमी ज़रूर है तभी तो जुगाड़ लगा लगा कर पुरस्कार की कोशिश करती रहती है। चारु हंसा । जिसे सम्मान चाहिए उसे रुपए मिल रहे सम्मान नहीं और जिसे रुपए चाहिए उसे सम्मान मिल रहा रुपए नहीं। उसे वह कहावत याद आई – कान रोए गहने को गहना रोए कान को । 

चारुदत्त की नींद उड़ चुकी थी। उसे अब कुछ करना ही पड़ेगा वरना अगले हफ़्ते तक उसकी गाड़ी उठ जाएगी और इज़्ज़त गिर जाएगी। आख़िर क्या ही कर सकता है एक कवि । कविता संग्रह बिकते नहीं । कथाकारों की तरह उनका नेटवर्क नहीं । क्या करे ?

चारु टहलता रहा और फिर बेध्यानी में एक किताब निकाल ली और पन्ने पलटता रहा । अचानक एक शब्द पर उसकी नज़र टिक गई – चोर । 

हां हां ,चारु को याद आया वह पुराना दोहा :

चरन धरत चिन्ता करत,चितवत चारों ओर, सुबरन को खोजत फिरै,कवि व्यभिचारी चोर”

इनमें से एक तो वो है ही ,फिर चोर बनने में क्या रोक।सुवर्ण ही तो खोज रहा है । चारूदत्त मास्क लगाए निकल पड़ा ।

अब चारुदत्त वसंतसेना के फ्लैट के बाहर खड़ा अन्दर घुसने की तरकीब देख रहा था। कुछ उपाय सूझ नहीं रहा था। देखते देखते रात घनी हो गई । सब सो गए । वसंतसेना भी सो ही गई होगी। वसंतसेना के घर कई गोष्ठियों में आ चुका था पर इस भांति आने का कभी सोचा नहीं था। खैर अब आ ही गया है तो काम पूरा करके ही निकलेगा। वसंतसेना अपने रुपए घर पर ला छुपाती है ,ये वह ख़ुद बता चुकी है कई बार। आज भी लाई होगी। चारूदत्त इंतज़ार करने लगा मौके की। 

मौका मिला आधी रात को ,जब घर का नौकर अपनी बीवी से छुप कर बीड़ी पीने बाहर निकला। चारूदत्त खुले दरवाज़े से अंदर सरक गया। उसे वसंतसेना का कमरा खोजने में ज़रा सा भी वक्त नहीं लगा। 

वसंतसेना नींद में मुस्कुरा रही थी । शायद फिर से वही प्रशस्तिपत्र ले रही होगी । मुस्कुराया चारुदत्त भी।

आगे ये हुआ कि अगले दिन सवेरे वसंतसेना ने दराज से रुपए गायब देखे। उसका पूरा पूरा शक़ अपने पति दरबारीलाल पर गया। उसने कई तरह से पूछा मगर दरबारीलाल ने मूंछों पर बल देना जारी रखा और कहा बसंती रुपए तो बैंक में होंगे ना ? या तुम कल निकाल लाई थी ? अब वसंतसेना चुप रह गई । अभी अगर कह दिया तो आगे के पुरस्कारों के रुपए भी दरबारी के हाथ लग सकते हैं । वो मुस्कुरा कर बोली – अरे हां ,मै भी कैसी भुलक्कड़ हूं। रुपए तो बैंक में हैं और देखो मैं दराज में ढूंढ रही हूँ। 

बात बदलने में वसंतसेना का सानी न था।

अगले हफ़्ते एक लोकार्पण समारोह के बाद जब वसंतसेना बाहर निकली तो चारुदत्त ने हल्के से हॉर्न बजाया । खिड़की से हाथ हिलाकर पूछा – वसंतसेना जी ! आइए आपको घर तक लिफ्ट दे देता हूं।

बची खुची औरतें     

सब जा चुकी हैं मैदान या घर में 
ढलते सूर्य की तिरछी रोशनी में 
घाट पर बैठी हैं गिनती की 
बची खुची औरतें 
ये इतनी अकेली हैं कि जी भर के देख रही हैं मछुआरे का कसरती बदन 
देख रही हैं जा चुकी भीड़ के बाद 
दुर्गा की प्रतिमा को आहिस्ता डूबते 
सबसे बाद में डूबता चेहरा 
और अंत में इधर उधर तैरते शस्त्र 
ये उठ जाती हैं विसर्जन के घाट से 
चिल्ला कर पुकारतीं हैं मल्लाह को “भिड़े भिड़े “
उस पार किराया देती हैं सिक्के गिन कर 
मुस्कुरा कर उठा लेतीं हैं अभी अभी पकड़ी ताज़ा मछली 
कहतीं हैं अगली पूजा में चुका देंगी दाम ।

गामोसा कहो या गमछा   

शरीर के सबसे निकट अन्य शरीर नहीं
गमछा होता है
पानी पसीना और आंसुओं को एकसाथ सोखने की कला 
इतना हर समय साथ प्रेम नहीं गमछा ही रहेगा
मुसीबत में उपस्थित
शर्मिंदगी को ढकता
विजय पताका सा लहराता
सत्तू से लथपथ भूख के सामने अड़ा हुआ गमछा
प्रतिरोध की पोशाक सा गर्वित
मफ़लर की तरह मौसम का मोहताज नहीं 
वैराग्य और कामना के रंगों से सजा 
श्वेत लाल गमछा
चाहे उसे अंगोछा कहें या गामोसा
अंग ही उसका पहला अक्षर है
देह ही उसका घर है।

लुकाछिपी 

छिपा कर बचाया मैने वह सब
जो अगले पल ही नष्ट हो जाता
नहीं बताया वह नाम
वह पता
मैने कभी नहीं बताया अपना इरादा
जो बहुत हिंसक है
उसे छिपा दिया अध्यात्म में
घृणा को प्रेम में
दुख को उत्सव में छिपाने की कला में माहिर हूं
मैने अपना डर छिपाया शेखी में
लालच को छिपा दिया सफलता में
रोग शोक को छिपा गई अट्टहास में
सच को छिपा रखा है अच्छे और बुरे में
मेरे हथियार छुपे हैं दो पंक्तियों के बीच
जो तुम्हे ख़ाली जगह से लगेंगे
और तुम पन्ने पलटते रहोगे।

संपर्क : ajantadeo@gmail.com

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