कथेतर

साहित्य का लक्ष्य सत्य के साथ खड़े होना है : उर्मिला शिरीष

उर्मिला शिरीष जी के बारे में जितना भी लिखा जाए कम है। वे एक चर्चित कहानीकार, उपन्यासकार एवं कुशल संपादक हैं। अब तक उनके 23 कहानी संग्रह, तीन उपन्यास और साक्षात्कार की दो पुस्तकें प्रकाशित हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘खुशबू, धूप की स्याही’, ‘जीवन-मृत्यु’ जैसी कहानियों के संकलन को संपादित किया है। उनका उपन्यास ‘चाँद गवाह’ का अनुवाद कई अन्य भाषाओं में हुआ है। उन्होंने प्रख्यात संपादक, आलोचक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय  जी तथा चित्रा मुद्गल पर पुस्तक संपादित की है और गोविन्द मिश्र जी की जीवनी लिखी है। मध्यप्रदेश संस्कृति-विभाग का राज्य-शिखर-सम्मान, अखिल भारतीय मुक्तिबोध पुरस्कार, स्पंदन-शिखर-सम्मान जयपुर, वागीश्वरी पुरस्कार और कमलेश्वर कथा-सम्मान के अलावा कई और पुरस्कार उन्हें प्राप्त हैं। वे केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की जनरल काउंसिल की मेम्बर तथा स्पंदन संस्था भोपाल की अध्यक्ष तथा संयोजक हैं। प्रस्तुत है मोहम्मद हारून रशीद खान से उनकी विशेष बातचीत।

आपकी लेखन-यात्रा की शुरूआत कैसे हुई? क्या आपकी जन्मभूमि ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ?

मेरे लेखन यात्रा की शुरूआत मेरी जन्मभूमि के परिवेश में बसी साहित्य की खुशबू, संस्कारों तथा परिवार की साहित्यक अभिरुचि के कारण हुई। बचपन में जब मैंने पढ़ने-लिखने का माहौल देखा तो जाहिर है कि मैं भी उसके प्रति आकर्षित हुई। घर का एक कमरा किताबों, पत्र-पत्रिकाओं से भरा होता था। बड़े-बड़े ट्रंको में ग्रंथ और पाण्डुलिपियां रखी होती थी। बाल-पत्रिकाएँ आती थी। पेपर्स आते थे, और रेडियो पर नियमित रूप से समाचार सुने जाते थे। इन्हीं दिनों मैंने तुलसी (रामचरित मानस) कालिदास, चेखव, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद और जैनेन्द्र कुमार के साथ-साथ रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ तथा सुदर्शन की ‘हार की जीत’ कहानियाँ भी पढ़ी थी। इन दोनों कहानियों का मेरे अवचेतन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके किरदार मेरे दिल-दिमाग पर छा गये थे। डाकू खड़कसिंह का हृदय-परिवर्तन होना, उसका घोड़े को वापस करना मानवीय भावनाओं की ऐसी पराकाष्ठा कि आपका हृदय आन्दोलित हो जाये। लगा कहानी बहुत प्रभावशाली विधा है। ‘काबुलीवाला’ को कोई भुला सकता है? इसी बीच हम लोग दतिया आ गये थे वहाँ हम लोगों को पढ़ाने के लिए हिन्दी के एक शिक्षक आते थे। उनकी साहित्य में गहरी अभिरुचि थी। सुंदर लिखावट के लिए कुछ न कुछ लिखने के लिए देते थे। उच्चारण शुद्ध कैसे हो इसके लिए वे कोई कहानी-कविता का पाठ करवाते और कल्पनाशक्ति कितनी उड़ान भर सकती है, इसके लिए वे कोई न कोई विषय देते थे- कहानी अथवा कविता लिखने के लिए। मैंने कहानी लिखी थी। उन्होंने मेरी कहानी पढ़कर कहा कि “तुम कहानी लिख सकती हो”। बचपन में देखे वो पात्र, वे परिवेश, वो पेड़, वो जंगल, वो हरी भरी फसलें, वो गाँव की महिलाओं का कुओं पर, खेतों पर, मंदिर तथा तालाब पर जाना, तीज-त्यौहार मनाना, रात्रि को पुरूषों का जागरण के लिए आल्हा-ऊदल का गायन करना, होली में फागें गाना। महिलाओं द्वारा बारात जाने पर रात में पुरुषों का वेश धारण करके स्वांग धरकर नकटौरा खेलना, सुअटा खेलना। पलाश का दहकता जंगल। मोरों का घर की छत पर आना। गाँव के तालाब में शरारा बाँधकर तैरना सीखना, स्कूल में कविताएं सुनाना। रामलीला की मंडली आती थी और देर रात तक रामलीला चलती थी, कभी नौटंकी वाले आते थे तो कभी नट-नटी का खेल दिखाने वाले। दुबली-पतली लड़कियाँ बांस पर चढ़ती थी। उनके हाथ में उतना ही बडा बांस होता था। हम लोगों के प्राण अटक जाते थे कहीं गिर न पड़े। भोर के समय चक्की पर गेहूँ व अन्य अनाज पीसते हुए महिलाएँ दादरे, भजन, लोकगीत आदि गाती थी। कुएँ से आती घिर्री की आवाज और छपाक से गिरती बाल्टी या मटका। रात में रेडियो का लाउडस्पीकर आसमान की तरफ कर दिया जाता ताकि सारा गाँव एक साथ समाचार सुन सके। पतंगों का उड़ना और कटना डूबते आसमान में आज भी दिखायी देती है और उस समय डकैती पड़ना सबसे बड़ी घटना होती थी। डाकू अकसर रात्रि में डाका डालने आते थे। उनकी पदचाप सुनायी देती थी। सुबह पता चलता किसको पकड़कर ले गये हैं? उस समय डाकुओं की बहुत ज्यादा दहशत रहती थी। गाँव में आकर वे एक साथ घरों में आग लगा देते थे। मेरी लेखन की बहुत ज्यादा भूमिका इसलिए भी रही कि मैं ग्रामीण परिवेश की कोई भी कहानी लिखती हूँ तो वह इंटरनेट पर, टी.वी. पर देखे दृश्य की घटनाएँ नहीं होती। बल्कि मेरी अपनी आंखों से देखी घटनाएं, पात्र या परिवेश होता है।

गाँव से यूँ कभी भी सम्पर्क नहीं छूटा हाँ, अब गाँव में भी काफी बदलाव आ गया है। स्त्रियों का जीवन भी बदला है। नयी पीढी बाहर निकली है। जन्म भूमि ने मेरी सृजनात्मकता के बीज को अंकुरित किया था। वहाँ के परिवेश ने मेरी कहानियाँ को सम्मृद्ध किया था और मुझे यह कहते हुए कभी भी संकोच नहीं रहा कि में गाँव में पैदा हुई, पली-बढ़ी। जिस जन्मभूमि ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और लोक-परम्पराओं का ज्ञान करवाया हो, जिसने लोक-संगीत और प्रकृति के परिवेश में सांस लेना सिखाया हो, जहाँ के लोगों का हृदय आपके सामने खुला हो और जो धरती और आकाश की चमक और कालिमा को दिखाती हो, जो शिक्षा और आगे बढ़ने के सपनों को पल्लवित करती हो, जो साहित्य और किताबों से लगाव करना सिखाती हो, जो ‘प्रेम’ और ‘घृणा’ में भेद करना सिखाती हो, उस जन्मभूमि का अपने जीवन में, साहित्य में, शिक्षा में मैं बहुत ज्यादा योगदान मानती हूँ।

आपकी कहानियों में मानवीय संवेदना प्रमुख रूप से उभरती है। आप अपनी कहानियों के पात्रों को कैसे विकसित करती हैं?

मनुष्य में संवदेनाएँ जन्मजात होती हैं। कुदरत ने उसके स्वभाव में संवेदना को मानवीय स्वभाव, सोच, आचार-विचार में उतारकर उसे सामाजिक जीवन में रचाया-बसाया है। सवाल उठता है कि वह अपनी संवेदनाओं के साथ, कहाँ, किसके साथ, कब, कितनी संवेदशीलता के साथ पेश आता है! क्या वह सड़क पर पड़े मृत व्यक्ति को देखकर भी अनदेखी कर देता है? क्या वह भूखे बच्चों को रोता-बिलखता देख कर भी अनसुना और अनदेखा कर देता है? क्या वह प्राणलेवा सर्दी में सड़क पर सो रहे वृद्धों, बीमारों, बेघरों को देखकर भी स्वंय चैन की नींद सो सकता है? क्या वह अपने सामने हो रहे अत्याचारों को, क्रूरता को अशोभनीय व्यवहार को देखकर भी तटस्थ बना रहता है, क्या वह प्रकृति और जानवरों के साथ हो रहे अमानवीय कृत्यों को देखकर भी चुप रह सकता है, और भी बाते हैं। परिवार, समाज और देश को लेकर अगर वो चुप है, तटस्थ है तो मैं कहूँगी वह घोर संवेदनाविहीन व्यक्त्ति है। वह कठोर हृदय वाला है। उसका मन संवेदनाविहीन है। उसने अपनी संवेदना को कहे-अनकहे स्वार्थों के नीचे दबा दिया है। मैं हमेशा कोशिश करती हूँ कि मेरी कहानियों में जो पात्र आ रहे हैं वो संवेदनशील हो, वो दयालु हो, करूणामय हों। उनमें इतना विवेक हो कि ये अच्छे-बुरे को समझ सकें। अपने व्यवहार से, अपने कर्मो से, अपनी सोच से, अपनी बुद्धि से, अपने सम्बन्धों को समझ सकें। उनके साथ अच्छा व्यवहार कर सकें। वे पारिवारिक और सामाजिक संबंधों की अहमियत को समझ सकें, उनके सामाजिक सरोकारो को, मनुष्यता को, मानवीय मूल्यों को, प्रकृति को, अपने आस पास के परिवेश को संवेदनशीलता से देख समझ सके। इतना ही नहीं मेरे पात्र इन कसौटियों पर खरे उतरने चाहिए। बस मैं यही सोचकर अपने पात्रों को रचने-गढ़ने और लाने की कोशिश करती हूँ।

आपकी पहली कहानी कब और किस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी?

मेरी पहली कहानी ‘कन्या’ थी और यह उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सूर्या इण्डिया‘ में प्रकाशित हुई थी।

उस समय आपकी कहानी पर कैसी प्रतिक्रिया रही?

उस समय उस कहानी पर अच्छी प्रतिक्रियाएं आयी थी। साहित्य समाज में मेरा नाम थोड़ा बहुत जाना जाता था। क्योंकि मैं छोटे-छोटे लेख लिखा करती थी। परिचर्चाओं में भाग लेती थी। दैनिक भास्कर में मेरी एक कविता छपी थी। उस समय मोबाइल तो होता नहीं था। टेलीफोन नम्बर भी मैं नहीं देती थी। हाँ, पता जरूर कहीं न कहीं छपता था तो पत्र आते थे। इस कहानी को पढ़कर मेरे पिता जरूर नाराज हुए थे। उन्होंने अपना विरोध इस मायने में रखा था कि मैने शायद एकतरफा कहानी लिखी है और एक वर्ग विशेष, कुलीन परिवार के व्यक्ति (पंडित) को टारगेट बना है।

मेरे पिता अध्ययनशील व्यक्ति थे। वे साहित्य के साथ अन्य विषयों का भी गहन अध्ययन करते थे। उनका अपना पुस्तकालय था। इसलिए उनका कहना उस समय न मैं गलत मान सकती थी न ही उनके साथ तर्क-वितर्क कर सकती थी पर मुझे तब भी लगता था और आज भी लगता है कि पिता अगर अपनी जगह सही थे, तो एक लेखक के रूप में मैं भी अपनी जगह सही थी। क्योंकि शोषण के खिलाफ लिखना, बच्चियों की पीड़ा को सामने लाना भी जरूरी था। मेरी तमाम कहानियों में ये तमाम बातें उभरी हैं। मेरा मानना है कि स्त्री को अपने जीवन के बारे में सोचने और निर्णय लेने की स्वतंत्रता तो मिलनी ही चाहिए।

आपकी कहानी के भीतर का संसार कैसा है? बाहर की दुनिया से उनका संबंध कैसा है?

मेरे कहानियों के भीतर का संसार बहुत व्यापक और वैविध्यपूर्ण है। उसमें बहुत सारे रंग है, शेड्स है, छवियाँ है। अलग-अलग समाज के, उसमें जाति वर्ग के, सम्प्रदायों के लोग हैं। इस संसार में वृद्धजनों का जीवंत समाज है तो हर वर्ग की, हर उम्र की लड़कियों और महिलाओं का बड़ा समाज भी है जो तमाम तरह की समस्याओं, चुनौतियों का सामना करती हुई, जो संघर्ष करते हुए उनसे बाहर निकलने के लिए कोशिश करती हैं। विरोध झेलती हैं। गालियाँ और कटाक्ष झेलती हैं पर फिर भी जूझती रहती हैं। मेरी कहानियों के संसार में वो किसान हैं जो एक तरफ कुदरत की मार झेलते हैं तो दूसरी तरफ व्यवस्था की मार से प्रताड़ित होते हैं। कुछ लोग किसानी के नाम पर सारे लाभ उठाते है। शोषण और शोषित का यह खेल सादियों से चल रहा है। पर किसान आज भी जो गरीब है वो और भी गरीब होता जा रहा है। मेरी कहानियों के संसार में वो युवा पीढी है जो सपने तो देखती है पर उसके सपने उन व्यवस्थाओं से टूटते हैं वहाँ, जहाँ बेरोजगारी की अंतहीन लाईन लगी है। वे पलायन करते है कभी लीगली तो कभी इनलीगली और फिर एक नया संघर्ष शुरू होता है। बडे़-बडे़ पैकेज पाने वाले युवाओं के पास अपने और अपने परिवार के लिए समय नहीं है। विवाह टूट रहे हैं। परिवार बिखर रहे हैं। पैसा है पर कोई साथ में रहने वाला नहीं है। कहानियों के भीतर का संसार बेहद सूक्ष्म परदे के पीछे छुपा होकर भी छटपटाता हुआ, अपने आपसे जूझता हुआ अपनी रूलाई को, अपने अवसाद को, अपनी मनोव्यथा को बाहर लाना चाहता है। पर डर है जाता है कि बाहर का संसार उस पर यकीन नहीं करेगा। उसका उपहास उड़ायेगा उसको और पीछे धकेल देगा। अंदर का संसार समन्दर की तरह है और बाहर का संसार धूल भरे आसमान की तरह। नीम की तरह कड़वा। और झूठ, फरेब, बेईमानी से भरा। जब ये दोनों संसार एक दूसरे के सामने-सामने आते हैं तो दोनों के बीच का द्वन्द्व, संघर्ष, उठा-पटक जीवन की कहानियाँ बुनता है, अपने मन की बात कहता है इसलिए वे अलग होकर भी एक हैं और एक होकर भी अलग है। जब तक ये मनुष्य समाज है, पृथ्वी है, प्रकृति है, जड़ चेतन है, तब तक इन दोनों संसारों में यह घात, प्रतिघात, द्वन्द्व और संघर्ष चलता रहेगा। मेरी कहानियों में, कहानियों की पृष्ठभूमि में, पात्रों में, उनके चरित्र में, सभी में, ये संसार कहीं प्रकट और कहीं अप्रकट रूप से आये हैं।

इन दिनों आप विदेश में हैं आपने कुछ खास पढ़ा? कोई फिल्म भी देखी?

जी! इन दिनों अमेरिका में हूँ। यहाँ साहित्यिक गतिविधियाँ ऑनलाईन ही होती हैं। पढ़ने का समय मिल जाता है। बहुत कम किताबें ला पाती हूँ। बचपन से किताबों के बीच में रही हूँ हर कोने में, हर टेबल पर किताबें होती हैं तो दूसरे माध्यमों से पढ़ने की आदत नहीं है। जो किताबें  यहाँ की मेरी लाइब्रेरी में हैं उसमे से मैंने ‘ब्रदर्स करमाजोव’ (फयोदोर दोस्तोव्स्की), ‘वो आखिरी पत्ता’ (ओ० हेनरी), ‘एक सोयी हुई दुनिया’ (मोंपासा की चुनिंदा कहानियाँ), ‘बिना कलिंग विजय के’ (यतीन्द्र मिश्र), ‘आदमी की बात’ (विमलेश त्रिपाठी), ‘ये इश्क नहीं आसां’, ‘नैना’ (संजीव पालीवाल), ‘नाच के बाद’ (लियो टॉल्सटाय), ‘न्यायप्रिय’, ‘अजनबी’ (अल्बेर कामू) ‘काला पुरोहित’, ‘टक्कर’, ‘हंसिनी’, ‘तीन बहिनें’, ‘चेरी का बगीचा’ (एंटोन चेखव), ‘दुःख का संगीत’ (विश्व साहित्य की चुनिन्दा श्रेष्ठ कहनियाँ), ‘श्रीयोगबाशिष्ठ महारामायण’, ‘अष्टावक्रगीता’, ‘कामायनी’ (जिसे मैं हमेशा अपने साथ रखती हूँ) आदि किताबें पढ़ी हैं। बिना पढे़ तो रह ही नहीं सकती। मुझे कविता पढ़ना बेहद पसंद है।रही बात फिल्मों की तो वो यहीं आकर देखती हूँ। कुछ बेव सीरिज भी देखी है पर उससे भी ज्यादा आस-पास की चीजों को देखना ज्यादा रुचिकर लगता है।

इस वक्त आपके दिमाग में क्या चल रहा है?

इस वक्त मेरे दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही है। जब आप दो देशों के बीच में होते हैं तो दोनों देशों की राजनितिक और आर्थिक नीतियों पर ध्यान जाता है। क्योंकि उसका सीधा प्रभाव पड़ता ही है। कई देशों के बीच चल रहे युद्ध और संघर्ष भरी घटनाएँ भी चीजें मन को बेचैन करती हैं। अपने देश की घटनाएँ मन को परेशान करती है। प्राकृतिक आपदाओं को देखकर लगता है कि काश अब भी हम प्रकृति की आवाज सुन लें। पहाड़ों से स्वयं दूर हो जायें। प्रकृति के प्रति संवेदनशील हो जायें। जिन चीजों को बनाने के लिए हम प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करते हैं वही चीजें पलक झपकते दूर चली जाती हैं। कुछ कहानियों और उपन्यासों की थीम और पात्र मन में लगातार संवाद करते रहते हैं। सबसे ज्यादा तो दो देशों की जीवन-शैली, रहन-सहन, सभ्यता, संस्कृति, विचार आदि की तुलना दिमाग में निरंतर चलती रहती है।

लॉकडाउन में आपने नया क्या लिखा था? लॉकडाउन के आपके अनुभव कैसे थे?

लॉकडाउन के समय को याद करते हुए आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। चारों तरफ भयावह सन्नाटा और मौत ही मौत नजर आती थी। वो खौफनाक दर्द और छटपटाहट से भरा समय था। अपनों से दूर रहने और अपनों को खोने का त्रासदीकाल था। इससे बड़ा दर्द और बेचैनी कभी नहीं झेली, जब आप अपने परिचितों, मित्रों, परिवारजनों से ना मिल सकें। उन्हें छू ना सकें। मजदूरों की लम्बी लम्बी कतारें, भूले-भटके लोग, ट्रेन और बसों की मारामारी और हम सब बेवस निगाहों से देखते भर रह जायें। पति डॉक्टर थे। हेडक्वाटर छोड़ने की अनुमति सरकार की तरफ से नहीं थी। हर पल एक ही डर बना रहता था कि कभी कोविड हो जाने की खबर न आ जाये। आखिर कब तक बचते। एक दिन तबियत खराब हुई पता चला कोरोना पोजीटिव है। तीसरे दिन मैं भी कोरोना पोजीटिव हो गयी। लगा अब जिन्दगी अपने हाथ में नहीं है। शिरीष जी घर पर ही अपना इलाज कर रहे थे और मैं हास्पिटल में एडमिट हो गयी। आई०सी०यू का वो नजारा जहाँ जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष चलता रहता था। वहाँ से लौटने के बाद मुझे सोने नहीं देता था। डॉक्टर्स की वही आँखें नजर आती थी। सफेद रंग की किट में, तब डॉक्टर देवदूत नजर आते थे। पर अगल-बगल वाले किसी की हालत खराब हो जाती थी, तब दिल दहला देने वाली स्थितियाँ पैदा हो जाती थी। कोई जीने की इच्छा बताते हुए रोता-गिड़गिड़ाता था, तो कोई पैसे की व्यवस्था में पागल हो रहा होता था। उन तमाम घटनाओं, परिस्थितियों, दृश्यों को मैंने अपनी लम्बी कहानी ‘ए देश बता तूझे क्या है’ में लिखा है।

आपने डा. प्रभाकर श्रोत्रिय जी पर एक ग्रंथ संपादित किया था। ग्रंथ संपादित करने की बात आपके मन में कब और क्यों आई?

डॉ० प्रभाकर श्रोत्रिय जी मेरे गुरु थे। इस मायने में कि मैने उनके निर्देशन में अपनी पी०एच०डी का रजिस्ट्रेशन करवाया था। उनका आभा मंडल कुछ ऐसा था कि सीधे-सीधे उनसे बात करने की हिम्मत नहीं पड़ती थी।धीरे-धीरे हमारे पारिवारिक संबंध बनते गये थे। शादी के पहले और शादी के बाद भी उनका स्नेह हमारे प्रति बना रहा। उनकी लाईब्रेरी देखकर मैं बहुत प्रभावित हुई थी। उन जैसा अध्ययनशील व्यक्ति उस समय मैंने नहीं देखा था। गंभीरता, स्पष्टवादिता और अपने सिद्धांतों पर चलने वाले पारिवारिक व्यक्ति थे। वे जितने बडे़ विद्वान थे उतने ही अच्छे संपादक और आलोचक भी थे। उन्होने अक्षरा, वागर्थ और नया ज्ञानोदय का संपादन किया था। उन्होंने कविता, नई कविता, तमाम कवियों पर बहुत ही सुंदर आलोचनात्मक किताबें तथा संपादकीय लेख लिखे थे। उनके तीन नाटकों में से एक नाटक ‘इला‘ तो बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुआ था और उसका मंचन भी कई शहरों में हुआ था। मुझे लगा श्रोत्रिय साहब ने जितना काम साहित्य आलोचना संपादन, के क्षेत्र में काम किया है। उतना उनके ऊपर काम नहीं हुआ है। तब मैनें डा. प्रभाकर श्रोत्रिय ‘आलोचना की तीसरी परम्परा’ किताब संपादित की थी जिसमें उनके व्यक्तित्व, उनकी आलोचनात्मक पुस्तकों, नाटकों, संपादन आदि पर विस्तार से लेख लिखवाये थे। आज मैं इस प्रसंग के बहाने हिन्दी समाज के आदरणीय लेखकों, आलोचकों, उनके मित्रों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त्त करती हूँ। इतना ही नहीं ‘स्पंदन संस्था भोपाल’ के साथ उनके सभी शिष्यों, मित्रों तथा शुभचिन्तकों के द्वारा भोपाल में उनका ‘अमृत महोत्सव’ भी मनाया गया था। मुझे लगता है कि अपने वरिष्ठ साहित्यकारों के प्रति आदर सम्मान का भाव व्यक्त करने की परम्परा बनी रहनी चाहिए।

जीवन के अंतिम समय के पहले बीमारी की अवस्था में वे भोपाल आये थे इलाज करवाने के लिए वही आखिरी भेंट थी। उनके माध्यम से मैने हिन्दी के तमाम साहित्यकारों को जाना। उनकी सादगी एवं वक्तृत कला, उनका स्नेह और जीवन के मूलभूत सूत्र कभी भुलाये नहीं जा सकते। ज्योति आंटी से मेरी अभी भी बात होती है। वे भी मुझे बहुत ज्यादा स्नेह करती है। उनके दोनों बच्चों और बहू से भी मेरी उतनी ही आत्मीयता है।

पश्चिम के स्त्री-चिंतन से भारतीय स्त्री-चिंतन साहित्य, संगीत, कला और प्रेम को आप किस तरह से देखती है?

मुझे लगता है कि हर देश का स्त्री-चिंतन उसकी अपनी सभ्यता, संस्कृति, परम्पराओं और मूल्यों से एक आकार, भाव और सोच ग्रहण करता है। हमारी सभ्यता, संस्कृति और चिंतन की बुनियाद अलग है और पश्चिम के स्त्री-चिंतन की अलग। वैदिक काल से लेकर आज तक स्त्री-चिंतन की दशा और दिशाओं में समयकाल के अनुसार परिवर्तन आया है पर हम सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग तथा कलियुग के प्रभाव को आज भी अपने चिंतन में पाते हैं। भारतीय स्त्री-चिंतन की आधारभूमि अध्यात्म, दर्शन, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक व्यवस्थाएँ रही हैं, जहाँ स्त्री हर क्षेत्र में स्वाधीन थी। वह राजसिंहासन पर राजा के साथ बैठती थी। वह युद्ध के मैदान में जाती थी। शास्त्रार्थ में भाग लेती थी। जितने भी हमारे पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक ग्रंथ है, उनमें स्त्री-चिंतन की अनेक धाराएं आपको दिखाई देगी। हमारे यहाँ परम्परा से आई चीजों को विशेष महत्व दिया जाता है। पश्चिम का स्त्री-चिंतन उनके अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों से पैदा हुआ चिंतन है। पश्चिम में स्त्री-मुक्त्ति के आंदोलन हुए जिसका प्रभाव दुनिया के तमाम देशों पर पड़ा। वहीं कुछ देशों में स्त्री के संदर्भ में उनकी सोच या चिंतन में स्त्री ‘मनुष्य‘ के रूप में थी ही नहीं। उसे महज एक वस्तु माना जाता था। हमारे यहाँ स्त्री को सौन्दर्य, समृद्धि और शक्ति का प्रतीक माना जाता है और आप देखेंगे, या किसी भी भाषा का साहित्य उठाकर देख लीजिए, संगीत चाहे वह शास्त्रीय संगीत हो या लोकसंगीत, प्रेम और संघर्ष के तमाम प्रतीक और पात्र सबमें आपको स्त्री-चिंतन का रूप दिखाई देता है। साहित्य, नृत्य और अन्य कलाओं में (किसी भी युग की कला क्यों न हो) स्त्री को लेकर कोई संकीर्णता या कुरूपता दिखाई नहीं देती है। हाँ! उसका संघर्ष, श्रम, त्याग तथा समर्पण जरूर दिखाई देगा।

पश्चिमी चिंतन की अपनी धाराएँ है। सिमोन द बोउवा सहित अन्य स्त्रीवादी चिंतकों ने स्त्री के अस्तित्व को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से पारिभाषित किया, जिसमें उसकी देह, उनका मन, उसकी आत्मा, बुद्धि तथा विचार भी शामिल थे। दुनिया भर में चलने वाले विमर्शों ने स्त्री-चिंतन को विस्तार दिया है। उसकी अस्मिता, उसकी पहचान, उसके अधिकारों के लिए आवाज़ उठायी। इस पर बहुत विस्तार के साथ अलग से बात करने की आवश्यकता है। लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में समाज सुधारकों, चिंतकों तथा विचारकों ने जो सुधार किये हैं, वह भले ही ‘स्त्री-मुक्ति‘ के सांचे में न बाँधे गये हो पर वो थे तो स्त्री जीवन में परिवर्तन लाने वाले आंदोलन ही। उस जमाने में बहुत सारी स्त्रियाँ, कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा आदि क्षेत्र में काम कर रही थी।

कभी अखिलेश की चिट्ठी, उदय प्रकाश की ‘पाल गोमरा का स्कूटर’, सृंजय की ‘कामरेड का कोट, मो. आरिफ की ‘लू‘, असगर वजाहत की ‘शाह आलम कैंप की रूहें, जैसी कहानियाँ सामने आई थी। ऐसा लगा कि नई पीढ़ी की पदचाप सुनाई पड़ने लगी। आज केवल पिष्टपेषण है। अर्थात इतना सन्नाटा क्यों है?

देखिए असगर वजाहत जी काफी सीनियर लेखक हैं। बाकी जिन लेखकों के नाम आपने लिए हैं वे मेरे भी प्रिय लेखक हैं। इन लेखकों ने अपने-अपने कथा-कौशल से कहानी के क्षेत्र में नये मापदण्ड स्थापित किए थे। समकालीन तीन पीढ़ियों में ये सर्वाधिक चर्चा में रहे हैं। लेकिन आप जिस सन्नाटे की बात कर रहे हैं वह उतना गहरा सन्नाटा नहीं है। इनके बाद आने वाली पीढ़ी ने भी अपनी कहानियों से हिन्दी-साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज की। उनकी कहानियों को भी पढ़ा और सराहा गया है। कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने उम्मीद जगाई थी, भले ही उन्होंने वह मुकाम हासिल न किया हो जो आपके पसंदीदा लेखकों ने हासिल किया है। पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि हर लेखक का अपना अनुभव क्षेत्र होता है, दृष्टिकोण होता है, लेखकीय कौशल होता है उसकी तुलना किसी अन्य लेखक से करके उसे कमतर नहीं आंका जाना चाहिए।

कभी कबीरदास जी ने कहा था ‘ठगनी क्या नैना चमकावै‘ और एडवर्ड सईद ने कहा था “जिस समाज में जितना अधिक विज्ञापन दिखाई देता है समाज के लोग उतना अधिक बिकाऊ होते है।” शायद आज की नयी पीढ़ी के कथाकारों की कहानियों का यही हाल है? आपकी क्या राय है।

लगता है आप नयी पीढ़ी से काफी निराश या नाराज हैं। आपकी शिकायत सोशल मीडिया पर आने वाले, लिखने वाले कथाकारों और कवियों से है? फेसबुक पर बहुत सारे ग्रुप बने हुए है जो अपने-अपने ग्रुप को या यूँ कह सकते हैं पसंदीदा कथाकारों, कवियों को सपोर्ट और प्रमोट करते हैं। निश्चय ही रातो-रात उन्हें लोकप्रियता और प्रशंसा मिल जाती है। इसमें बुराई क्या है? यह बात लेखक संगठनों, संघों में नहीं थी क्या? अपनी-अपनी विचारधारा के लेखकों को क्या वे सपोर्ट और प्रमोट नहीं करते हैं। आज की नयी पीढ़ी अगर विज्ञापन करके स्वयं को स्थापित कर भी रही हैं। बेस्टसेलर की श्रेणी में आ रही है तो हमें भी खुश होना चाहिए। थोड़ा इंतजार करना चाहिए। समय ही बताएगा। सोने की चमक बरकरार रहेगी और मुलम्मा उतर जायेगा। मैं चीजों को हमेशा सकारात्मक रूप में देखती हूँ। मैं अपनी नयी पीढ़ी की प्रशंसक हूँ। मेरा मानना है कि जिन कहानियों में मनुष्यता की आवाज होगी, जिनमें हमारा समय और समाज (जीव-जगत) प्रतिबिम्बित होगा, जिनमें जीवन भी धड़कन सुनाई देगी, वही कहानियाँ पाठकों के हृदय में, मन में जिंदा बची रहेगी। वहाँ न विज्ञापन की चमक-दमक होगी न ही उसका प्रभाव ।

स्त्री की स्वाधीनता सिर्फ वाह्य स्वाधीनता नहीं होती है असल स्वाधीनता होती है मानसिक। वह अपनी अंतरात्मा को, अपने विचारों को, अपनी सोच में स्वयं को कितना व्यक्त कर पा रही है?

आज की नयी पीढ़ी अगर विज्ञापन करके स्वयं को स्थापित कर भी रही हैं। बेस्टसेलर की श्रेणी में आ रही है तो हमें भी खुश होना चाहिए। थोड़ा इंतजार करना चाहिए।

आपका उपन्यास ‘चाँद गवाह’ स्त्री-जीवन और पर्यावरण को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। उसके बारे में बताइये। ये स्त्री की स्वतंत्रता का पक्षधर है या उसकी ‘पहचान’ पाने का संघर्ष?

‘चाँद गवाह’ उपन्यास एक स्त्री के बहाने कई पीढ़ियों के स्त्री जीवन की कहानियाँ कहता है। हमको लगता है कि जो स्त्री-आन्दोलन हुए थे- उसकी मुक्ति को लेकर, सशक्तीकरण को लेकर, उसके अधिकारों को लेकर, उसके अस्तित्व को लेकर उसने हमारे समाज को बदल दिया होगा या शिक्षा ने समाज को एकदम सारी रूढ़ियों-संकीणताओं से मुक्त कर दिया होगा, यह महज भ्रम है। नहीं, ऐसा होता नहीं है कि अचानक सारी सोच बदल जाये। समाज को बदलने की गति धीमी होती है। वह सदियों पुरानी मान्यताओं को, सोच को, परम्पराओं को यकायक उतार कर फेंक नहीं देता है। ‘चाँद गवाह’ की नायिका दिशा एक पढ़ी-लिखी, बुद्धिमान, संवेदनशील कलाओं में अभिरुचि रखने वाली स्त्री है। विवाह के पहले और विवाह के बाद भी वह उन्हीं सामाजिक, पारिवारिक दायरों के बीच जीती है, लेकिन मानसिक यातनाओं के बीच, अपनी इच्छाओं और सपनों को दबाकर। बीच-बीच में वह ऐसे लोगों का सहयोग पाने की कामना में काम करती है जो उसकी अभिरुचियों को, उसके सपनों को साकार करने में सहयोग कर सके। अंततः उसे संदीप नाम का आदमी मिलता है जो न सिर्फ उसके टूटे हुए आत्मविश्वास को लौटाता है बल्कि वो भी प्रकृति-पर्यावरण के संरक्षण के लिए जिस तरह से अपने लक्ष्य को पाने में संलग्न रहता है दिशा को भी उसके साथ जोड़ लेता है। संदीप का दिशा का साथ देना ही पूरे परिवार को यहाँ तक कि उसकी बेटियों को भी उसके खिलाफ खड़ा कर देता है। भारतीय समाज की जो मानसिक बुनावट है वा इस बात को कभी भी स्वीकार नहीं कर पाती है कि अधेड़ उम्र में आकर कोई स्त्री अपने लिए, आपने जीवन के लिए थोड़ी सी स्वतंत्रता ले ले या अपने मन का काम कर ले। पूरा परिवार और समाज उसे अपनी-अपनी तरह से सजा देने के लिए तैयार हो जाता है।

पुरुषों की भाषा बदल जाती है। सबसे संबंध टूट जाते हैं और एक अकेली स्त्री को गुनहगार की तरह कटघरे में खड़ा कर देते है। इस उपन्यास में नयी पीढ़ी की लड़कियों की जीवन-शैली, उनकी अपनी सोच, विवाह के प्रति उनका नकारात्मक नजरिया, इनमें न रहने की पक्षधरता को भी मैंने निधि और पारूल के माध्यम से बदलते हुए समय की वास्तविक तस्वीर प्रस्तुत की है। मेरी चिंता इसी बात को लेकर है। अंततः हम कहाँ जा रहे है और भविष्य में इसका दुष्परिणाम क्या निकलेगा!

भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों को समझने और देखने का नजरिया हमेशा विवादास्पद रहा है। आज जब हर क्षेत्र में स्त्री और पुरुष साथ में काम कर रहे हैं ऐसे में बहुत स्वाभविक होता है कि उनके बीच आत्मीयता और मित्रता से भरे संबंध ज्यादा विश्वसनीय और पवित्र होते हैं। वैचारिक स्तर पर भी इन संबंधों में जेण्डर मायने नहीं रखता है। ये आत्मिक संबंध देह से परे होते है लेकिन इनकी पवित्रता को, इनकी रूहानियत को देखने का नजरिया वही सदियों पुराना है। उपन्यास में दिशा इसी मानसिकता का सामना करने के लिए अभिशप्त होती है।

मैं शुरू से ही प्रकृति के बहुत करीब रही हूँ। पेड़-पौधों, नदी, तालाबों से मेरा गहरा रिश्ता रहा है। शायद इसीलिए भी कि बचपन गाँव के खूबसूरत परिवेश में बीता है। जब भी पेड़ों को कटता, जंगलो को उजड़ता हुआ देखती हूँ, परिन्दों और जानवरों को भूखा-प्यासा सड़क पर भटकते देखती हूँ, तो मुझे बेहद तकलीफ होती है। उसी पर्यावरण, को प्रकृति को बचाये रखने के लिए दिशा तथा संदीप लगातार काम करते हैं और अंततः दोनों उसी स्थान पर जाते हैं, जहाँ पेड़ बचाओ आन्दोलन चलाया जा रहा। जीवन में यदि प्रकृति का संरक्षण नहीं किया गया तो चारों  तरफ जो विनाश हो रहा है वो कैसे रुकेगा? मनुष्य को अपनी गलतियाँ सुधारनी होगी।

उपन्यास लिखते समय लेखक (मैं अपनी बात कह रही हूँ) कोई एजेण्डा लेकर नहीं चलता है। वह कोशिश करता है कि अच्छी कहानियाँ या उपन्यास अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में लिखे जायें। इसी कोशिश में कथा को चुनता है। अपने किरदारों को गढ़ता है। कोशिश करता है कि भाषा और शिल्प मे कुछ नयापन हो। सम्प्रेषणीयता हो। पाठकों द्वारा पढ़ा जाये और वह जो कुछ कहना चाहता था वह उन तक पहुंच जाये। मैंने भी यही कोशिश की थी। उपन्यास में कविताएँ अनायास आ गयी हैं क्योंकि दिशा अपने को, अपने अंतरजगत को, कविताओं के माध्यम से ज्यादा व्यक्त कर पाती है। पुरानी पीढी की स्त्रियों की कुछ जीवन छवियों और भावनाओं को सात कपाटों के द्वारा व्यक्त किया गया है तो इसी तरह कहीं डायरी-शैली है तो कहीं पत्र भी।

स्त्री की स्वाधीनता सिर्फ वाह्य स्वाधीनता नहीं होती है असल स्वाधीनता होती है मानसिक। वह अपनी अंतरात्मा को, अपने विचारों को, अपनी सोच में स्वयं को कितना व्यक्त कर पा रही है? उसी स्वाधीन चेतना से वह अपनी पहचान बनाती है। अपना अस्तित्व सबके बीच खोजती है। वह जानना चाहती है कि एक स्वाधीन इंसान के रूप में उसकी अपनी पहचान क्या है? जब उसे अपनी पहचान मिलती है तब तक सारे रिश्ते, सारे अपने पराये लोग उससे दूर जा चुके होते हैं शेष बचता है उसका अपना संघर्ष। उसका अपना लक्ष्य। अंततः वह अपनी खोज में कामयाब होती है। वह उन बेसहारा औरतों के लिए काम करती है जो नितान्त अकेली है। वह उन पेड़ों को बचाने का काम करती है जिन्हें संदीप और उसने मिलकर लगाये थे। और उस रास्ते पर निकल पड़ती हैं जिस रास्ते पर उसे प्रकृति का संरक्षण करना है। स्त्री और प्रकृति को एक दूसरे का पूरक माना गया है क्योंकि इस पृथ्वी पर सृजन का काम यही दोनों करती हैं। इस सृष्टि को बचाने के लिए स्त्री ही सबसे ज्यादा सक्रिय रहती है। असल में स्त्री-जीवन के अनकहे, अनसुने दर्दों और दबे हुए सपनों को साकार करने के संघर्ष की कहानी है यह उपन्यास। उन सवालों की कहानी है यह उपन्यास जिनके जवाब दिशा और दिशा जैसी असंख्य स्त्रियाँ एक न एक दिन पाना ही चाहेंगी। हमारी प्रकृति हमारी नदियाँ, पेड़, पहाड़, सब जैसे एक दूसरे को अपनी कहानी सुना रहे हैं। चारों तरफ जो प्राकृतिक आपदाएँ आ रही हैं, पहाड़ दरक रहे है, जंगल काटे जा रहे है, पेड़ो ने जिस तरह मिट्टी को पकड़कर रखा था वह जड़ों को छोड़ रही हैं। यह सब मनुष्य का किया हुआ है। मुझे हर पल ‘कामायनी‘ की पक्तियाँ याद आती रहती हैं-

                   ‘निकल रही थी मर्म वेदना, करूणा विकल कहानी सी।
                   वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती सी पहचानी सी।
                   वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार।
                   उमड़ रहा था देव सुखों पर दुःख जलधि का नाद अपार।’

शायद यही चिंता संदीप और दिशा की रहती है। वे उन चिंताओ से वाकिफ रहते हैं और लगातार संवाद करते रहते हैं। इसीलिए इस उपन्यास के मूल में स्त्री और प्रकृति का बार-बार जिक्र आता है। उन दोनों के जीवन का स्वप्न तभी पूरा होता है जब वे पेड़ों के बीच पेड़ों के साथ होते हैं।

‘चाँद गवाह’ स्त्री और प्रकृति कीपर्यावरण कीपीढ़ियों के द्वन्द्व की कहानी कहता है। भारतीय समाज में स्त्री की अस्मिता की आवाज उठाता है तो आपके अन्य दो उपन्यास ‘खैरियत है हुजूर‘ तथा ‘कोई एक सपना’ किस दुनिया में ले जाते है। इन उपन्यासों की रचना प्रक्रिया के बारे में थोड़ा विस्तार से बताइए।

‘खैरियत है हुजूर‘ एक अलग ही पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है। अपने उपन्यासों के बारे में बताना अजीब लगता है मगर आपके प्रश्नों का उत्तर देना भी मेरी नैतिक जिम्मेदारी बनती है। यह उपन्यास न्याय-व्यवस्था, कानून, पुलिस और जेल की आन्तरिक व्यवस्था को उजागर करने की कोशिश करता है। आये दिन हम सुनते हैं कि हमारे न्यायालयों में लाखों केस पेंडिंग है। उन्हीं लाखों केसों की सुनवाई न होने के कारण न जाने कितने बेगुनाह जेलो में बंद होंगे। कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे होंगे। सबूतों के अभाव में बेगुनाही साबित नहीं कर पाते होगें। सालों साल केस चलते रहते हैं। और इस उपन्यास के पात्र को भी पच्चीस-छब्बीस वर्षों बाद पता चलता है कि वह बेगुनाह था। उसके ऊपर कोई केस बनता ही नहीं था। उसके खिलाफ की गई शिकायत में कोई सच्चाई थी ही नहीं। इसमें एक ऐसे ही पढ़े लिखे युवक की कहानी है जो फर्जी सर्टीफिकेट के आरोप में किसी तीसरे आदमी औरत की शिकायत पर जेल भेज दिया जाता है शिकायतकर्ता का मकसद कई बार (खासकर औरतों को माध्यम बनाया जाता है) पैसों के लालच में आकर इस तरह की हरकतें कर बैठते हैं। महीनों बाद जमानत पर रिहा होने के बाद पच्चीस साल तक उसके ऊपर केस चलता रहता है। लगातार उसे कोर्ट में हाजिरी लगाने के लिए जाना पड़ता। पच्चीस साल तक केस लड़ते हुए उसको जिस मानसिक यातना, प्रताड़ना, अपराधबोध में जीना पड़ता है उसका जवाबदेह कौन होगा? उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा, कैरियर सब कुछ खत्म हो जाती है उसका जवाबदेह कौन? उसका परिवार, पिता, पत्नी बच्चे जिस मनः स्थिति में जीते हैं उनका जवाबदेह कौन है? ऐसी तमाम परिस्थतियों को यह उपन्यास उजागर करता है। इस उपन्यास को लिखते हुए मुझे काफी खोज करनी पड़ी था। विषय बहुत पेचीदा था और नाजुक भी। उस पूरे वातावरण को, परिवेश को पात्रों को, उनकी पृष्ठभूमि को, बारीकी से जानना जरूरी थी। सच्चाई और सबूतों के बीच गुनाहों और बेगुनाहों के बीच झूलता हमारा कानून और उसमें बंधी हमारी न्याय-व्यवस्था इसी द्वन्द्व का, इसी व्यवस्था को जितना समझ पायी थी, उसी के आधार पर यह उपन्यास लिखा था। एक लेखक के रूप में पूरी ईमानदारी से कोशिश की थी। मेरा तीसरा उपन्यास ‘कोई एक सपना’ मुझे इन दोनों उपन्यासों से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। इस में शिक्षित युवा बेरोजगारों को जो सपने दिखाये जाते हैं सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा, उसका दूसरा पक्ष कितना भयावह और फ्राड होता है यह जानना जरूरी है। भ्रष्टाचार के कारण फाइलें दबा दी जाती है और बैंकों द्वारा जो शिक्षाऋण या अन्य ऋण दिये जाते हैं उनकी वसूली के तरीके, उसका ब्याज, सब कुछ कैसे उन युवाओं को तोड़ देते हैं यह इस उपन्यास में आया है। जो युवा पढ़ाई करने के बाद अपना भविष्य बनाना चाहते है, बिजनेस करना चाहते है, वे जब इन योजनाओं में फंसते हैं तब उन्हें सच्चाई पता चलती है। प्रतिभा पलायन के लिए बेबस युवा बाहर के देशों में भी संघर्ष करके अपना कैरियर बनाते हैं पर वहाँ के कानून, वहाँ की जीवन-शैली अपनाने में उन्हें तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अपने परिवार खासकर माता-पिता के साथ विदेश में रहना उनके लिए आसान नहीं होता है। अगर माता-पिता को भारत में छोड़ते है तो एक नैतिक दवाब उनके ऊपर होता है और अपने साथ रखते है तो माता-पिता विदेशी वातावरण में स्वयं को एडजस्ट नहीं कर पाते हैं। दोहरी जिम्मेदारी, दोहरे तनाव उनको पैसा होने के बावजूद भी दोराहे पर खड़े होने के लिए विवश कर देता है। ऐसी ही समस्याओं, परिस्थितियों, भ्रष्टाचार तथा संघर्षों की कहानी इस उपन्यास की है। चूंकि युवाओं के साथ मेरा सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्ध रहा है इसलिए जब उनको यूँ भटकते हुए, ठोकर खाते हुए पलायन करते हुए देखती थी तो मुझे बेहद तकलीफ होती थी। उन सरकारी गैर सरकारी योजनाओं को चलाने वाले लोगों, संस्थानों तथा बैंकों आदि पर गुस्सा आता था जो बिना पैसे के एक कागज आगे नहीं बढ़ाते थे। उनका मकसद अपने टारगेट पूरे करने होते थे। जो विज्ञापनों में सुनहरा भविष्य दिखाकर युवाओं को गुमराह कर रहे होते हैं। भ्रष्टाचार में डूबा पूरा तंत्र जब आपके आसपास जाल बुनता है, तो आप फड़फड़ाकर अपना जीवन बचाने की कोशिश कर रहे होते हैं ऐसी ही परिस्थितियों में कितने युवाओं ने आत्महत्या की है एक सच्चा रचनाकार वही होता है। जो अपने समय के साथ चलता है। अपने समय को अपनी रचनाओं में पकड़ता है, वही रचनाकार सत्य के साथ खड़ा होता है। इसी सत्य को सामने लाना मेरी कोशिश रहती है।

इन दिनों आप क्या लिख रही हैं?

इन दिनों में उपन्यासों पर काम कर रही हूँ। ये मेरा बहुप्रतीक्षित उपन्यास है। एक उपन्यास अगले साल तक आपके पास आ जायेगा। दूसरे में थोड़ा समय लगेगा। एक कहानी-संग्रह भी आना चाहिए। कुछ कहानियाँ पत्रिकाओं में आने वाली है।

मैं अंत इस प्रश्न से करना चाहता हूँ कि आपका साहित्य में आना लगातार कहानियाँ लिखते रहनाइस पूरे सफर में किन सकारात्मक व नकारात्मक मंजिलों से गुजरना पड़ा?

मेरा साहित्य में आना कोई संयोग नहीं था बल्कि सिलसिलेवार ढंग से मैं इस दुनिया में आई थी। मैं बचपन से ही साहित्य, सहित्यकारों, उनके द्वारा रचे गये पात्रों के बीच भावनात्मक, मानसिक और वैचारिक रूप से उनके बीच यात्रा करती रही थी। मेरा बचपन किताबों की दुनिया के बीच बीता था। मैंने अपने आसपास किताबों का संसार बनते देखा था। स्कूल-कालेज की पढ़ाई के दौरान मैंने अपनी साहित्यिक दुनिया को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ा था। बल्कि जैसे-जैसे मैं बड़ी होती जा रही थी, मेरी किताबों की दुनिया भी मुझसे कई गुना बढ़ती जा रही थी। कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे एहसास हुआ कि कहानी कैसे मनुष्य के मन को, हृदय को, विचारों को यहाँ तक कि जीवन की धारा को बदल देती है, उसकी इस ताकत का एहसास मुझे दो कहानियों ने करवाया। पहली थी सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत‘ और दूसरी थी रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘काबुलीवाला‘। उसके साथ ही अनगिनत कहानियाँ थी आँधी, पुरस्कार (प्रसाद), पाजेब (जैनेन्द्र कुमार), उसने कहा था (गुलेरी), कफन, पूस की रात, दो बैलों की कथा, बूढ़ी काकी (प्रेमचंद), वार्ड नं. छ:, शर्त, गिरगिट, सजा, क्लर्क की मौत, दुलहन, कलाकृति (चेखव), वो आखिरी पत्ता (ओ हेनरी), नाच के बाद (टाल्स्टाय), बरणांजली (गोविन्द मिश्र), वापसी (उषा प्रियंवदा), परिन्दे (निर्मल वर्मा) अर्धांगिनी (शैलेश मरियानी), भूख (चित्रा मुद्गल), चीफ की दावत (भीष्म साहनी), त्रिशंकु (मन्नू भण्डारी), कितनी ही कहानियाँ जिनको पढ़कर लगता था कि कहानी सबसे सशक्त और प्रभावशाली विधा है।

जब मैं उस समय की पत्रिकाओं में लेखक-लेखिकाओं की फोटो देखती थी तो मुझे लगता था ये कितने विशिष्ट और अलग लोग हैं। मैंने बी.ए. में हिन्दी-साहित्य, संस्कृत-साहित्य तथा भारतीय इतिहास लिया था। संस्कृत के कवियों का, नाटकों का भी मेरे ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा था। एम.ए. भी मैंने हिन्दी साहित्य में किया था। वर्ष 1983 में मेरा पहला कहानी-संग्रह आ गया था। उसकी समीक्षा भी ब्लिट्ज सहित तमाम पत्र-पत्रिकाओं में छपी थी, मेरी पहली कहानी ‘सूर्या इंडिया’ में छपी थी। सकारात्मक मंजिल तो यही थी कि साहित्य के माध्यम से आप दुनिया के लोगों से जुड़ जाते हैं। उनके सुख-दुःख, उनकी समस्याएँ, उनकी भावनाएँ आपकी अपनी हो जाती हैं। आप अपने विरोध को, प्रतिरोध को अपनी कहानियों के माध्यम से कह सकते हैं। नकारात्मक मंजिल यह कि आप ईमानदारी और अपनी मेहनत से कितना भी चलना चाहें, नहीं चल सकते। अगर अकेले चलने का हौसला आप में है तो लंबा रास्ता आपके सामने होता है और कोई आपको सहयोग करेगा, इसकी अपेक्षा आपको बिल्कुल नहीं करनी चाहिए। जब तक चीजें आपको समझ में आती हैं आप बहुत पीछे रह जाते हैं। आज मुझे लगता है कि कई चीजों में मेरा चयन, मेरी दृष्टि गलत रही थी। फिर मैंने उन तमाम चीजों से स्वयं को अलग-थलग किया और अपना रास्ता स्वयं बनाया। किताबें ही मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा बनी। मेरी लेखनी ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया। पाठकों का मुझे भरपूर स्नेह मिला। अपनी यात्रा पर अकेले चलने का विश्वास ही था कि आज व्यापक साहित्य-समाज के बीच में हूँ। हर पीढ़ी के साथ मेरा संवाद है और यही सब मेरे लेखकीय जीवन की ताकत है। जो चीजें, बातें, व्यक्ति मेरी यात्रा में, मेरी मंजिल के बीच आना चाहते थे, उनके बारे में मैंने सोचना बंद कर दिया है। आपको शायद पता हो कि मैं सैंतीस साल तक सरकारी नौकरी (कालेज में प्राध्यापक) में रही हूँ, बीस वर्ष से ‘स्पंदन संस्था भोपाल‘ के बैनर तले सम्मान समारोह, रचना-पाठ, पुस्तक चर्चा तथा व्याख्यान, शिविर आदि का आयोजन करती आई हूँ। मेरे पास, नौकरी के साथ, परिवार की जिम्मेदारियाँ थी मुझे बहुत समय के अनुशासन में रहना पड़ता था इसलिए मेरा दायरा भी इन्हीं तीनों के ईर्द-गिर्द रहता था। अब तो बस लिखते रहने और ‘स्पंदन संस्था भोपाल‘ के कार्यक्रम करते रहने के सिवा कोई दूसरा काम है ही नहीं। यात्राएँ बहुत करती हूँ।

गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले युवा लेखक मु. हारून रशीद खान लंबे अरसे से रचनाकर्म में संलग्न हैं। विशेषतः साक्षात्कारों में उनकी रुचि भी है और विशेषज्ञता भी। ‘सृजनपथ के पथिक’ और ‘मेरी गुफ्तगू अदीबों से है’ शीर्षक से साक्षात्कारों की दो पुस्तकें और अन्य कई संपादित और मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘कुबेरनाथ राय रचनावली’ का भी सम्पादन किया है। उनसे मोबाईल नंबर : 9889453491 और ई-मेल : mdharoon.khangzp786@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

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