1954 को ग्यूला (हंगरी) में जन्मे लाज़्लो क्रास्नाहोर्काई ने अपने पहले ही उपन्यास ‘सेंटेटेगो’ (सातांतंगो) से साहित्य के क्षेत्र में एक ख़ास पहचान बनाई। यह पहचान भले किसी स्वप्न-कथा जैसी लगे, लेकिन उसकी नींव में अपने समय की आंख में आंख डाले खड़ा एक ऐसा लेखक है, जो जीवन की कड़वाहट और मधुरता को जिस रूप में ग्रहण करता है और उसी रूप में अभिव्यक्त करने का जोखिम भी लेता है। विशाल भाषाई भण्डार,बौद्ध दर्शन से लेकर यूरोपियन बौद्धिक परंपरा तक विस्तृत वैश्विक ज्ञान, जुनूनी पात्र और बारिश से भीगे दृश्य भले लाज़्लो के लेखन में आधुनिकतावादी-अहं का प्रभाव छोड़ते हों, लेकिन कई स्थानों पर वे किसी पॉइंटलिस्ट की तरह विशुद्ध मजाकिया और सुरुचिपूर्ण लहज़े में व्यंग्योक्तियां करते भी नज़र आते हैं। जो दिलचस्प भी होती हैं और पैनी भी…
लाज़्लो में गुरुता का आकर्षण है और यह आकर्षण उनकी रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देता है। हालांकि दुनिया ख़ुद को जिस तरह से अभिव्यक्त करती है,उस अर्थ में लाज़्लो की बातों की संगत तलाशना कठिन है, लेकिन यही असंगतता लाज़्लो के कहन को प्रभावी बनाती है। सौम्य व्यक्तित्व, हंसता -मुस्कुराता चेहरा, सबकी चिंता करने वाला कोमल मन, लंबे बाल और शोकपूर्ण आंखें… लाज़्लो सही मायनों में एक बड़ी शख़्सियत हैं। किसी संत की तरह वे एक ही समय में पूर्णतः प्रकट भी होते हैं और हज़ारों गोपन रहस्यों से भरे भी।
यह आंकलन बहुत हद तक सटीक और सुसंगत है और इसका उदाहरण है लाज़्लो के ‘बिग आयडियाज़’… असल में कुछ समय पहले लाज़्लो ने दार्शनिक प्रश्न ‘सत्य क्या है?’ (व्हाट इज़ रियलिटी) को आधार मानकर आलेखों की एक श्रृंखला लिखी थी, जो ‘द बिग आयडियाज़’ शीर्षिक से प्रकाशित हुए हैं. प्रस्तुत हैं इसमें सम्मिलित एक महत्वपूर्ण आलेख री-पेन्टिंग द कैनवास’ का हिन्दी अनुवाद;
यह हमारी सोच, हमारी वास्तविकता, हमारी दुनिया में एक बड़ा बदलाव था। मेरा मानना है कि कलाकारों में इस संज्ञानात्मक क्षेत्र का विस्तार करने की क्षमता है। आखिर यह हमें लगातार अपनी निजी वास्तविकताओं पर पुनर्विचार करने और उसे पुनर्परिभाषित करने के लिए प्रेरित करता है।
महामारी फैलने के कुछ महीने बाद, 2020 की गर्मियों में, मैंने अपने बच्चों को एक वीडियो गेम खेलते देखा। यह एक बेहद लोकप्रिय गेम था, जिसने सुंदर ग्राफ़िक्स और मनोरंजक गेमप्ले से अपने प्रशंसकों को मंत्रमुग्ध कर रखा था। गेम में दुनियाभर के खिलाड़ी एक साझा डिजिटल स्पेस में इकट्ठा हो सकते थे, एक-दूसरे से मिल सकते थे, एक साथ रह सकते थे और एक-दूसरे के सृजन यानी उस रिक्त द्वीप को परिपक्व होते देख सकते थे, जिसे बनने का काम प्रत्येक खिलाड़ी को सौंपा गया था।
जैसे-जैसे दुनिया महामारी की चपेट में आ रही थी और हमारी सामाजिक बंधन कमज़ोर होते जा रहे थे, यह गेम एक तरह से रामबाण साबित हुआ। ख़ासतौर पर उन तमाम बच्चों को, जो घरों में जबरन बंद थे, इसने एक आभासी जगह प्रदान की, जहां वे अपने दोस्तों के साथ को जी सकते थे। मेरे लिए, यह एक जागृति का क्षण था। यहां, रचनात्मक दृष्टि और कोडिंग द्वारा निर्मित डिजिटल परिदृश्य में, मेरा सामना उस चीज़ से हुआ जिसे अब कई लोग मेटावर्स (एक आभासी (virtual) समय, जिसमें लोग कंप्यूटर या वीआर हेडसेट जैसे उपकरणों का उपयोग करके आभासी दुनिया में सामाजिकता, सहयोग, खेल और खरीदारी कर सकते हैं।) कहेंगे। यह हमारी सोच, हमारी वास्तविकता, हमारी दुनिया में एक बड़ा बदलाव था। मेरा मानना है कि कलाकारों में इस संज्ञानात्मक क्षेत्र का विस्तार करने की क्षमता है। आखिर यह हमें लगातार अपनी निजी वास्तविकताओं पर पुनर्विचार करने और उसे पुनर्परिभाषित करने के लिए प्रेरित करता है। दरअसल मेटावर्स में, वास्तविकता और कल्पना के बीच मौजूद द्वंद्व विलीन हो जाता है, फलतः एक ऐसे स्पेस का निर्माण होता है जो अपने अस्तित्व में अति-वास्तविक होता है। जो तकनीक से भी प्रेरित होता है, साथ ही साथ कल्पना से भी…इस अति-वास्तविकता की संभावना ने मुझे, मेरी सोच, मेरे काम को न केवल एक अलग तरह से उत्साहित किया, बल्कि उसमें नई ऊर्जा भी भर दी। मैं अब ऐसे कार्यों पर ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ जो मेटावर्स या उस डिजिटल स्पेस में प्रामाणिकता लाने का प्रयास करते हैं जहां हम अब रहते हैं।
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