ज्योति शर्मा हरिद्वार में रहती हैं। उनकी कहानियाँ और कविताएं हाल के दिनों में चर्चित रही हैं। उनका एक कविता संग्रह- ‘नेपथ्य की नायिका’ बोधि प्रकाशन से प्रकाशित है। हाल ही में उनका नया संग्रह ‘बहुत दिन चुप रहने के बाद’ हिन्द युग्म प्रकाशन से शाया हुआ है। इसके अतिरिक्त एक साझा काव्य संग्रह भी प्रकाशित है। उनकी कविताएँ, कहानियाँ, डायरी अंश आदि साहित्यिक ऑनलाइन और ऑफलाइन पत्रिकाओं में छप चुके हैं। उनको ब्रज संस्कृति पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं उनके नए संग्रह से दस कविताएं :
एक
यह बरसातों भरे दिन मैंने बिताये है सेल्फ़ी लेने में
यह बरसातों भरे दिन मैंने खोये है किताबें पढ़ते
यह बरसातों भरे दिन मैंने काटे कविताएँ लिखते शब्द काटते जोड़ते
यह बरसातों भरे दिन
बरसा बरसा बरसा
बरसा
पानी बरसा
आकाश से
आँखों से
काँख से
शाख़ से
यह बरसातों भरे दिन मैंने काटे
देखते गंगा के ऊपर जैसे बरसती है गंगा
कैसे दूर अल्मोड़ा के लाड़ बाज़ार में
दूर कोसानी में बरसते है बादल
मेरे जीवन में सुमित्रानंदन पंत नाम का कोई प्रेमी नहीं है
एक कवि है जो किताबों में जब तब आता है
बादलों जैसे लंबे केशों वाला
यह बरसातों भरे दिन मैंने गँवाये है
सूर्यकांत त्रिपाठी जैसे किसी पुरुष की प्रतीक्षा करते
और जो नहीं आया रह गया प्रयागराज में ही
दो
मुनस्यारी
बरसातों के कारण बह रहे है परनाले
झरने और पहाड़ी नदियाँ
तुम दूर चल रहे हो मुझसे
हाथों में नहीं लिया है तुमने मेरा हाथ
कितनी ठंड है यहाँ फिर भी आइसक्रीम
खाने का मन कर रहा है
और तुम्हें गले लगाने का भी
होटल हमारा दूर है तुम मगर पास हो
दुनिया बीच में है
दुनिया मुनस्यारी तक हमारे बीच बीच
चली आई है प्रिय
तीन
अल्मोड़ा का लाल बाज़ार
अल्मोड़ा के लाल बाज़ार में खाना थी
मुझे जलेबियाँ
तुमने रोकी ही नहीं गाड़ी
चलते गये छाते गये भरी बरसात में छाते की तरह
मेरे सिर पर
फिर भी भीग गयी मैं
आड़ुओं का टोकरा ख़रीद लिया
थर्मस में चाय
पीते पीते काठगोदाम आए
यह तो इस यात्रा का बाहरी वृतान्त है
अंदर क्या घटा—
बिनसर में दे आई थी मैं अपना मन
दूसरे आदमी को
और अब इस रात को काठगोदाम के गेस्ट हाउस में
मुझे आ रहा है उसका सपना
प्यास के पहाड़ों पर लेटा है
इच्छा की नदियों में डूब रही हूँ मैं
आडू की गुठलियाँ और अधखाये आडुयों के बीच
मैं इस कविता में बस इतना कहना चाहती हूँ
कि उसका जूठा आलूबुख़ारा खाना चाहती हूँ मैं
चार
साँझ
साँझ घिर आई तुम्हारी कॉफी बनाए
बैठी हूँ खिड़की पर
प्यार खिड़की से आता है और दरवाज़े से
लौट जाता है
प्यार कुछ नहीं बस एक याद है
सामने दिखता ही नहीं
बस पीछे पलटकर देखो तो दिखता है
टाटा करता आंसू भरी आँखों से
साँझ हुई घर आ जा
बैठी हूँ जानती हो तुम आओगे देर से
किसी और से मिलकर
मेरा प्यार तुम्हारे व्यवहार की परछाई नहीं है
तुम कैसा भी मुझसे व्यवहार करो
मैं तुमसे प्यार करती रहूँगी
साँझ हर साँझ तुम्हारी कॉफ़ी लिए
बैठी रहूँगी देखती डूबता दिन
पाँच
मुन्सियारी के रस्ते
वह देख रहा था मुझे बस में मैंने इनके कंधे पर
सोने का अभिनय किया
वह देखता रहा देर तक फिर आँख हटा ली
जब उसने आँख हटाई तब मैंने आँख गड़ाई उसपर
देर तक मैं उसे देखती रही
जे कृष्णमूर्ति जैसे जवान होकर बैठे हो बस में
उससे बात करने का मन हुआ
मन हुआ पियूँ उसके साथ चाय
मन हुआ मुन्सियारी न जाकर
उतर जाऊँ वहीं जहाँ वह उतरे
छः
धनोल्टी
जहांगीर के लिए श्रीनगर स्वर्ग था मेरे लिए धनोल्टी है
यहीं मुझे याद आता है मेरा मनुष्य होना
यही स्त्री शरीर से ऊपर उठकर होती हूँ
मैं शुद्ध प्राण, एकात्मा, ख़ालिस मुहब्बत
यहीं बादलों से बचते बचाते आती है धूप
यहीं पृथ्वी चलने लगती है
गढ़वाल छोरी का बनाकर रूप
और सूरज मेरा सखा मेरा लवर अनूप
कभी कभी आता है वह, धूप ऐसे नरम
जैसे माँ की गोद में ऊन का गोला
यही से सीढ़ी लगाकर या ट्रॉली में बैठकर
मैं करूँगी स्वर्गारोहण
पाण्डवों की तरह
पैदल पैदल नहीं जानेवाली मैं जन्नत
सात
काँस के फूल
तुम्हारे दाढ़ी के नये नये सफ़ेद बाल
मुझे काँस के फूलों की याद दिलाते है
वर्षा बीत चली
और आनेवाले है आश्विन के गर्म दिन
जब हम सूखते जंगलों के छोर तक जाएँगे
जहाँ बहती थी बरसाती नदी
उस पत्थरों के बिस्तर पर सूखी घास बिछाकर
तुम मुझे प्यार करोगे
इस डर से हम ज़्यादा उत्तेजित होंगे
कि कोई हमें देख न ले
जीवन समेट रहा है जब ख़ुद बहुत धीमे से
हमारे निर्वस्र शरीरों पर गिरेंगे पीले पत्ते बहुत धीमे से
तुम कहोगे बहुत धीमे से कि मैं पैर से पैर
इतना पास न सटाऊँ, तुम पैर से पैर बहुत धीमे से
दूर कर लूँगी और तुम्हारे बहुत पास आ जाऊँगी
देखती तुम्हारी दाढ़ी के वे पहले पहले सफ़ेद बाल
आठ
यात्रा की तैयारियाँ
यात्रा की तैयारी से ज़्यादा औरत घर पर रहे जानेवालों के लिए
तैयारियाँ करती है
जितनी दिन की यात्रा उतने दिन की भाजी
उतने दिन की रोटी उतने दिन का दूध
नाश्ते का सामान पति दारू अकेली न पिए
इसलिए चखना तक लाती है औरत
और खुद के लिए क्या करती है औरत यात्रा से पहले
औरत के लिए इस देश में अकेले यात्रा
हो सकती है उसकी अंतिम यात्रा
इसलिए बहुत प्यार से पलटकर देखती है वह अपना घर
बेटे के सिर पर हाथ फेरती है
पति से कहती है, मेरे साथ ऐसा व्यवहार करो
जैसा किया था पहली रात
औरत की यात्रा यात्रा से ज़्यादा यातना है
फिर भी इसे सहना सुख है, औरत के हर सुख की तरह
यात्रा का सुख यातना से होकर गुज़रता है
नौ
फ़िल्मों में आत्महत्या
क्या लोग फ़िल्में देखकर आत्महत्या करते है?
फ़िल्में देखकर कभी प्यार तो किया नहीं
आत्महत्या क्या करेंगे
जो लोग ऐसा सोचते है वे कितने नादान है प्रभु
इन्हें सदबुद्धि दे
कविताओं से क्या स्त्रियाँ आज़ाद हुई है?
या आज़ाद स्त्रियाँ कविताएँ लिखती है?
जो सोचते है उनकी कविताओं से क्रांति आएगी
उन्हें सदबुद्धि दे प्रभु
विमर्श से क्या दुनिया बदल जाएगी?
विमर्श करके हम सभी औरतों को
घर चले जाना है
आदमी की कमाई रोटी तोड़ने
यह कहकर कि घर चलाना भी तो नौकरी है
अगर घर चलाना नौकरी है
तो मैं किसकी नौकर हूँ प्रभु?
दस
आती हुई सर्दियों के लिए
छोटी दुपहरें होंगी तुम्हारे बिना
लंबी रातें होंगी तुम्हारे साथ
और भागती हुई सुबहें
केतली में उबलती चाय के बुलबुलों सी छोटी सुबहें
गंगा पर धुँधलका होगा
और मन होगा दिवाली पर साफ़ किए
दर्पण सा साफ़
जिसमें दिखाई देती है तुम्हारी छवि
रोज़ लिखकर एक कविता तुम्हें सुनाऊँगी मैं
और तुम कहोगे ठीक ही है
बहुत अच्छी नहीं
ऐसे बीत जायेंगी सर्दियाँ हमारी
प्यार करते झगड़ते हुए चाय पीते हुए.
संपर्क : jyotigaurav116@gmail.com
