कविता

रवि सुमन पाटीदार की कविताएँ

रवि सुमन पाटीदार का जन्म 17 दिसम्बर 1987 को भोपाल, मध्य प्रदेश, में एक किसानी परिवार में हुआ। उन्होंने हिन्दी साहित्य में बी.ए. किया है। पेशे से वे मुख्यत: किसान हैं। उनके खेत भोपाल के बाहरी इलाके में हैं। साहित्य और कलाओं में विशेष रुचि रखते हैं।

रवि सुमन पाटीदार की ये कविताएं हमें वरिष्ठ कवि रुस्तम की मार्फत मिली हैं। आस-पास के दृश्यों में अपने व्यक्तित्व को घोलता हुआ-सा उनका कवि मन जीवन के एक अनिर्वचनीय संगीत को अपनी कविताओं में दर्ज करता है। परिदृश्य की साधारणता का सौन्दर्य एक सहज लेकिन असाधारण काव्य-भंगिमा में अभिव्यक्त करती हुई कविताएं लोक के रहस्य को रेखांकित करती हैं और ऐसा करते हुए हमें गोपन और चिरंतन सौन्दर्य के प्रति आश्वस्त भी करती हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए कहीं न कहीं ऐसा लगता है कि जीवन का यह सुंदर दृश्य तो हमसे अभी अनदेखा रह गया है, छूट गया है। ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं उनकी दस कविताएं :

एक     

जब मैं तुम्हें सोचता हूँ
सोचने को नहीं रह जाता कुछ भी शेष

जब मैं तुम्हें देखता हूँ
कुछ भी और देखने को बचता नहीं 
सारे दृश्य अँधेरे में समा जाते हैं
जो तुम्हारी रोशनी के नीचे दबा होता है

जब मैं तुम्हें सुनता हूँ
तुम्हारे हर शब्द पे झंकृत होता मैं
हो जाता हूँ एक वाद्ययन्त्र
जो पता नहीं कब से मौन पड़ा था।

दो   

जब अँधेरे और रोशनी का संगम होता है
शाम हो जाती है
थोड़ी देर के लिए

शाम का शाम होना तय है

शाम को आती है
कस्तूरी की ख़ुशबू

जाग उठता है एक हिरण
अंगड़ाई लेता है

जब अँधेरे और रोशनी का संगम होता है
शाम हो जाती है
थोड़ी देर के लिए

तीन 

झील के किनारे से
देखे जा सकते हैं
पानी में
हवाओं के पैरों के निशान

उनकी भाषा
सुनी जा सकती है

खुले आसमान में 
गूँजता संगीत
हवाओं के कन्धों पर बैठकर आता है

संगीत 
जिस पर 
सूरज की किरणें
नृत्य करती हैं

धरती पर वृक्ष
झूमने लगते हैं

और पक्षी उड़ने लगते हैं
उसकी ताल पर

चार  

कब से
ख़ाली एक पन्ना खोले
उँगलियों में कलम घुमा रहा हूँ

कब से सोच रहा हूँ कि
कुछ लिखूँ

कुछ ऐसा
जो कभी लिखा नहीं गया

वही-वही बातें
अलग-अलग शब्दों में
कितनी बार लिखी जा चुकी हैं!

क्यों कुछ भी नया नहीं घटता
जबकि कुछ न कुछ
रोज़ ही बढ़ रहा है

पाँच   

नहीं रहेगा ये सब
जो इस समय है

जो था
वो भी हम कहाँ ही बचा पाये हैं

किसी दिन
एक पेड़ का दम घुटेगा

हर जगह मृत्यु घूमती मिलेगी

यह लिखा मिलेगा —-
खुले में साँस नहीं लेना

आख़िर कैसे रहेगा ये सब
जो इस समय है

छः    

जब कुछ नहीं में से
सब कुछ घटा दिया
तब मैं बचा

और मैं फिर से 
सब कुछ की तरफ़ चल दिया

क्यों बार-बार मेरे कदम
मुझसे चलकर 
फिर मुझ तक ही पहुँच जाते हैं

जबकि सब कुछ घटाने के बाद
मैं बचा हूँ
और मैं कुछ नहीं हूँ

दुनिया घूमकर लौटना
और आइना देखना

जो धुला चेहरा लेकर चला था
उस पर धूल की महीन परत जमी है

रोज़ धूल की एक परत
मुझमें जुड़ती जाती है

धूल का एक बहुत बड़ा गुबार बन रहा है

सात     

फूल
तुम कब तक ज़िन्दा रहते हो

आख़िर
कब निकलते हैं तुम्हारे प्राण

क्या तुम ज़िन्दा थे
जब तुम टूटकर मेरे हाथ में आये

तुम्हारे अन्दर एक ताज़गी थी
एक ख़ुशबू लगातार झर रही थी

मेरी उंगलियों में पड़े 
तुम मुझमें भी तो 
अपनी ताज़गी का संचार कर रहे थे

कैसे मान लूँ कि तुम
तब मृत थे

आख़िर कब निकलते है तुम्हारे प्राण
ओह मेरे प्यारे फूल

आठ      

हाँ,
मैं अपने भगवान से डरता हूँ
और मुझे डराया गया है
ईश्वर का प्रकोप दिखाकर

अब भी मैं डराया जाता हूँ
हर रोज़

डर मेरे हृदय की गहराइयों में
काई की तरह उग गया है
और लगातार बढ़ रहा है
दिन दोगुना
रात चौगुना

घर से लेकर बाहर वालों तक
(और इसमें ग्रन्थ भी शामिल हैं)
हर कोई मुझे डरा रहा है

और इस क्रम में
मेरा ईश्वर 
सुन्दर नहीं लग रहा

डर मेरे 
बिल्कुल सामने है
उसे जीतने के लिए
मैं अपना भरोसा त्याग दूँगा

नौ      

आज चन्द्रमा साफ़ है

उसकी आँखों में
देखता हूँ तुम्हारी आँखें

उनमें दिखता है समुद्र

चाँद नमक समेट कर
ख़ुद पर ही मल रहा है 

मेरी देह से उगती
स्मृतियों पर
चाँदनी पड़ रही है

रोंगटे खड़े हो रहे हैं

मैं उसकी आँखों से 
बाहर आता हूँ

आज चन्द्रमा साफ़ है।

दस       

घास है
जब सूखेगी
सूख जायेगी

फैलेगी
और नहीं भी
कुचली जायेगी
फिर और बढ़ेगी

हटा दो
दुबारा उग आयेगी

ढीठ है
घास है

संपर्क : rustamsingh1@gmail.com

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