
टिप्पणी एवं प्रस्तुति : मो. हारून रशीद खान
मुग़ल-ए-आज़म की सबसे चर्चित गजलों में से एक ‘हमें काश तुमसे मोहब्बत न होती’ के गुमनाम शायर थे ‘खामोश ग़ाज़ीपुरी’। वैसे तो इस फिल्म में इस ग़ज़ल के शायर के रूप में जो नाम आता है वह है ‘शकील बदायूंनी’ का लेकिन इसके पीछे की एक कहानी है। यह ग़ज़ल दिल्ली से निकलने वाले उस दौर के मशहूर उर्दू रिसाले ‘शमा’ में 1951 में ही ‘खामोश ग़ाज़ीपुरी’ के नाम से शाया हो चुकी थी। जब 1960 में फिल्म प्रदर्शित हुई तो इस बात को जानने वाले खामोश साहब के दोस्त-अहबाब काफी हैरान हुए। उनके न चाहने ने बावजूद उनके दोस्तों वकील इशरत जाफरी, भूरे बाबू, मौलवी फ़ैयाज़ सिद्दीकी, चश्मये रहमत के उस्ताद खलिश ग़ाज़ीपुरी ने रजिस्टर्ड डाक से एक नोटिस शकील बदायूंनी को भेज दी। कहते हैं कि शकील साहब ने मुंबई से दो आदमी भेजे, जो खामोश साहब से आकर मिले और उन्हें एक बंद लिफाफा दिया। उस बंद लिफ़ाफ़े में साढ़े तीन हजार रुपये थे और एक पैगाम कि “तुम चाहो तो मुझे बचा लो या फिर मुझे डुबा दो’’। प्रसिद्ध लेखक राही मासूम रजा ने भी स्वीकार किया था कि ये गजल ‘खामोश गाजीपुरी’ की है।
मुजफ्फर हुसैन खामोश उर्फ ‘खामोश ग़ाज़ीपुरी’ का जन्म पूर्वाञ्चल के एक अति पिछड़े जनपद ग़ाज़ीपुर में 20 जुलाई 1932 को हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा ग़ाज़ीपुर के एक प्रतिष्ठित कालेज चश्मये रहमत से हुई। उच्च-शिक्षा के लिए वे अलीगढ़ गये। पुनः चश्मये रहमत लौटे अध्यापक के रूप में। इश्क और शायरी के नशे में ऐसा डूबे कि नौकरी भी चली गयी, जीविकोपार्जन के लिए दूसरा कोई सहारा न रहा। फिर भी शेरो-शायरी आजीवन उनका ओढ़ना-बिछौना बना रहा। वे 1945 से 1980 तक हिंदुस्तान के कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों की धड़कन बने रहे। वह बड़े खुद्दार शायर थे, उन्होंने कभी दूसरों के सामने हाथ नही फैलाया। लोग उनकी आर्थिक मदद करना भी चाहते तो वे लेने से इनकार कर देते। अफसोस यह है कि खामोश साहब जिस सम्मान के हकदार थे, वह उन्हें न मिल सका। केवल 49 बरस की उम्र में 11 अक्टूबर, 1981 को वे इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गए।
मेरे द्वारा अनूदित एवं सम्पादित इनकी पुस्तक ‘नवाए खामोश’ शीघ्र ही आपके बीच सुलभ होगी। यहाँ पेश हैं उनकी कुछ ग़ज़लें :
एक
भरी महफिल में इज़हारे तमन्ना कर दिया मैंने
यह आख़िर क्या किया उनको भी रुसवा कर दिया मैंने
न होता मैं तो यह मासूम नज़ारे कहाँ जाते
नज़र देकर तेरे जलवे को जलवा कर दिया मैंने
जो ग़म बढ़ते हुए देखा तुम्हारा नाम ले बैठा
भरम खुलने से पहले राज़अफ़्शाँ कर दिया मैंने
मोहब्बत की शिकस्त आरजुओं का लहू देकर
तुम्हारे तज़किरे में रंग पैदा कर दिया मैंने
वह देखो सारी कन्दीले बुझा दीं चाँद तारों की
चले आओ कि हर जानिब अन्धेरा कर दिया मैंने
कहाँ है अब तुम्हारी वह हयादारी वह ख़ुद्दारी
अब आए हो के जब तर्के तमन्ना कर दिया मैंने
नहीं मालूम काबा था कुलैसा था की बुतखाना
बस इतना याद है घबरा के सज़दा कर दिया मैंने
मैं वह हूँ जब सफीने पर कोई खामोश आँच आए
तो हर साहिल पे एक तूफान बरपा कर दिया मैंने
दो
ग़म की जब धूप खिलेगी तो सँवर जाऊँगा
उन का चेहरा मैं नहीं हूँ कि उतर जाऊँगा
मैं वो सूरज हूँ न डूबेगी कभी जिसकी किरन
रात होगी तो सितारो में बिखर जाऊँगा
डूब जाने दो मेरे ज़ेहन को पैमानों में
ज़िंदगी क्या है यह सोचूँगा तो मर जाऊँगा
दैर व काबा का बहुत नाम सुना है मैंने
मैकदे से मिली फुरसत तो उधर जाऊँगा
डूब सकता हूँ मगर ख़ौफ़ से तूफानों के
ये न समझो के मैं कश्ती से उतर जाऊँगा
मैकदे से मुझे क्या काम मगर ऐ वाइज़
तेरी ख्वाहिश है तो कुछ देर ठहर जाऊँगा
तीन
हालात बदलने में ज़रा देर तो होगी
उस रात को ढलने में ज़रा देर तो होगी
क्यूँ ज़ुल्मते आलम से घबराई है दुनिया
सूरज के निकलने में जरा देर तो होगी
टकराई है तूफान से तलातुम से लड़ी है
कश्ती के सभलने में जरा देर तो होगी
यह शमा नहीं महर नहीं माह नहीं है
दिल है उसे जलने में जरा देर तो होगी
आएगी दुल्हन बनके नई सुबह भी लेकिन
परदे से निकलने में ज़रा देर तो होगी
ज़ाहिद भी तेरे हुस्न से मरहूब है लेकिन
पत्थर के पिघलने मे ज़रा देर तो होगी
खामोश उसे याद फिर आई है किसी की
अब दिल के बहलने में ज़रा देर तो होगी
चार
ऐ काश हुस्न व इश्क़ की दुनिया जवाँ रहे
जब तक यह महताब रहे कहकशाँ रहे
हर लम्हा निशात की क़ीमत कहाँ रहे
हर लम्हा निशात अगर जावेदाँ रहे
बादे खिज़ा उड़ा न मेरी खाक़ आशियाँ
जाती हुई बहार का कुछ तो निशां रहे
छाती रही निगाह पे रंगीन जमाल
जलवे हमारे साथ रहे हम जहाँ रहे
पूछे कोई यह वारिसे फस्ले बहार से
आई थी जब चमन में खिज़ा तब कहाँ रहे
हम लाख आशियाँ की हिफ़ाज़त करे मगर
बिजली वहीं गिरेगी जहाँ आशियाँ रहे
इस वास्ते के और बढ़े ज़ौक़-ए-जुस्तजू
दिल से रहे करीब नज़र से निहाँ रहे
पाँच
फुरसत ही ग़मे दौऱा से नहीं फ़िक्रे ग़मे जाना कौन करे
दिल यूँही परेशान रहता है अब और परेशान कौन करे
क्यूँ आँख मेरी नम रहती है यह भेद ज़माना क्या जाने
तूफान से बेगाना रहकर अन्दाजा तूफान कौन करे
गुलशन में बक़दरे शौक अगर गुंचे भी नहीं कांटे भी नहीं
फिर तंगी दामन का शकूह ऐ तंगी दामन कौन करे
परवानों का वह आलम भी नहीं और शमा की लौ में दम भी नहीं
अब आँख में अश्के गम भी नहीं महफिल में चिरागा कौन करे
खामोश तक़ाज़ा मौसम का हैं खूब समझता हूँ लेकिन
बरबाद शिकस्ते तौबा से तौबा को पशेमाँ कौन करे
छह
उम्र जलवों में बशर हो यह ज़रूरी तो नहीं
हर शबे गम की सहर हो यह ज़रूरी तो नहीं
चश्मे साकी से पियो या लबे सागर से पियो
बेखुदी आठों पहर हो यह ज़रूरी तो नहीं
बे इरादा सरे तस्लीम जहाँ खम कर दो
वह तेरी रहगुजर हो यह ज़रूरी तो नहीं
सब की नज़रों मे हो साकी यह ज़रूरी है मगर
सब पे साकी की नज़र हो यह ज़रूरी तो नही।
मैं शबे ग़म तेरे आने की दुआ क्यूँ माँगू
तेरे आने पे सहर हो यह ज़रूरी तो नहीं
नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उन की आगोश में सर हो यह ज़रूरी तो नहीं
मैकशी के लिए ‘खामोश’ भरी दुनिया में
सिर्फ खय्याम का घर हो यह जरूरी तो नहीं
सात
इश्क़-ए-ग़म बिखरने दो दामन व गरीबाँ में
कुछ चिराग बढ़ जाए महफिल चिरागाँ में
जिन्दगी का हर साहिल घिर गया है तूफानों में
फिर भी लोग उलझे हैं गैसवें परेशां में
गुलिस्ता के दीवानों ढूंढ के जरा देखो
क्या न था बयाबान में क्या नहीं बयाबान में
हुस्न देखने वालों यह न भूल जाना तुम
बर्क भी है पोशिदा गैसवें परेशां में
रह चुके हैं जो शामिल बिजलियों की साजिश में
पल रहे हैं वह फितने आज भी गुलिस्ताँ में
अब सुकून कहाँ खामोश अब तो ज़िंदगी यह है
एक कदम है साहिल पर एक कदम है तूफान में
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले युवा लेखक मु. हारून रशीद खान लंबे अरसे से रचनाकर्म में संलग्न हैं। विशेषतः साक्षात्कारों में उनकी रुचि भी है और विशेषज्ञता भी। ‘सृजनपथ के पथिक’ और ‘मेरी गुफ्तगू अदीबों से है’ शीर्षक से साक्षात्कारों की दो पुस्तकें और अन्य कई संपादित और मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘कुबेरनाथ राय रचनावली’ का भी सम्पादन किया है। उनसे मोबाईल नंबर : 9889453491 और ई-मेल : mdharoon.khangzp786@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।