कथेतर

इन दिनों इलाहाबाद

इधर हिन्दी की दुनिया में कई शहरों के बारे में संस्मरण सामने आए हैं लेकिन उन सबसे अलहदा यह गद्य युवा लेखक गोविंद निषाद ने लिखा है। इलाहाबाद में पिछले दिनों हुए कुछ साहित्यिक कार्यक्रमों के बहाने उन्होंने बहुत तफ़सील से और बेहद काव्यात्मक ढंग से बरास्ते नैनीताल और दिल्ली, इलाहाबाद (और हिन्दी समाज) के साहित्यिक वातावरण, सपने देखते छात्रों की दुनिया और कठोर यथार्थ से उनकी टकराहटों को दर्ज किया है और ऐसा करने के साथ ही उन्होंने बिना गद्य की लय छोड़े बीच में कोई गंभीर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रश्न भी हौले से हमारे सामने रखा है। ‘सबद’ पर प्रस्तुत है उनका यह बेहद पठनीय और रोचक गद्य :

इन दिनों इलाहाबाद शहर अपनी साहित्यिक गतिविधियों से गुलज़ार है. जाते अक्टूबर में लोगों की हड्डियों में दम कम हो गया है — आधा शहर बीमार है. ऐसे में शहर की साहित्यिक ताजगी देखते ही बनती है. मैं आपको दो-तीन ऐसे कार्यक्रमों की तरफ़ ले चलूंगा जो बीते दस दिनों में इलाहाबाद में आयोजित हुए हैं.

कार्यक्रम की कोई रिपोर्ट प्रस्तुत करने जा रहा हूं, ऐसा सोचकर आप घबराइए नहीं. मैं आपको उद्बोधन या वक्तव्यों की पंक्तियों से बोर नहीं करूंगा — वो तो काम होगा ही. मैं आपको उस दुनिया में ले चलूंगा जो रिपोर्टों में दर्ज नहीं हो पाती है. तो शुरुआत करते हैं सबसे अंतिम हुए कार्यक्रम से, फिर क्रमवार पीछे की ओर जाएंगे.

बालसन चौराहा

17 अक्टूबर को हिंदी के साहित्यकार दूधनाथ सिंह का जन्मदिन होता है. हर साल उनके जन्मदिन पर इलाहाबाद उन्हें याद करता है. इस बार भी याद किया गया. इस बार मुख्य वक्ता के रूप में युवा इतिहासकार शुभनीत कौशिक का व्याख्यान हुआ.

जब पहली बार कार्यक्रम का पोस्टर देखा था, तभी से उत्साहित था कि शुभनीत सर को सुनने का मौका मिलेगा. उन्हें सुनना अच्छा लगता है जिन्हें पढ़कर आप लिखना सीखते हैं. उनके लिखे हुए आलेखों और लेखों को पढ़कर मैंने लिखने में उत्तरोत्तर अच्छा ही किया है. ऐसे में तभी से उत्सुकता थी कि इसमें तो जाना ही जाना है.

मैं दोपहर में झूंसी से निकला तो धूप में आज उतनी तपिश थी कि ललाट रूपी गल से पसीने की बूंदें निकलकर भौंहों के पर्वत में समा जाएं. कल घर भी जाना था और मेरी एक दिली ख्वाहिश थी कि मैं फूलन देवी की तस्वीर अपने घर की दीवार पर लगाऊं. इस बार तय कर लिया था.

कर्नलगंज की वो मुख्य सड़क जो कटरा की तरफ़ जाती है, वहां कई फोटो स्टूडियो हैं. मैं वहां फोटो बनवाने को देकर यूनिवर्सिटी चौराहे पर आया. मेरे साथ मेरी दोस्त थी, जिसके बारे में मैंने आगे लिखा है. उसे कटरा की केनरा बैंक शाखा से पैसे निकालने थे. मैंने सोचा कि जब तक वह पैसे निकाल रही है, मैं जूते पॉलिश करवा लेता हूं.

जीवन में यह दूसरी बार था, जब मैंने जूते पॉलिश करवाए. पहली बार अभी कुछ महीने पहले नैनीताल गया था. वहां पहुंचा तो मैंने इतिहासकार एवं पर्यावरणविद् शेखर पाठक सर से मिलने के लिए कॉल किया. उन्होंने कहा कि शाम को मल्लीताल में एक स्कूल के स्थापना दिवस में वह आ रहे हैं, मैं वहां उनसे मिल सकता हूं.

मैं पता पूछने के लिए वहां जूता पॉलिश कर रहे एक बुजुर्ग सज्जन के पास गया. उन्हें जूते पॉलिश करते देख मैंने सोचा कि क्यों न मैं भी जूते ही पॉलिश करवा लूं. वैसे भी मेरे कपड़े थोड़े गंदे हो गए थे और नया कपड़ा कोई लेकर मैं गया नहीं था. ऐसे में जूता ही चमक जाए तो क्या बात है.

मैंने उनसे पता पूछा तो उन्होंने ऊंगली उठाकर एक चोटी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा — “सीधा चले जाइए, वहां उस चोटी के पास वह स्कूल है.”

मैं पहुंचा. अभी कार्यक्रम शुरू होने में समय था. मैंने सोचा कि तब तक झील के किनारे बैठते हैं. मैं बैठा तो देखा कि रंग-बिरंगी मछलियां बिल्कुल पास में आकर उछल-कूद कर रही हैं. मैंने थोड़ी देर उन्हें खेलते-कूदते देखा, फिर किताब पढ़ने लगा — जो शेखर पाठक की ही हाल में आई किताब ‘क्वथनांक से गलनांक तक’ थी.

यह किताब उनकी हिमालय की दुर्गम यात्राओं पर आधारित है, जिसमें इतिहास हर कदम पर मौजूद है. वैसे यह किताब मैं पहले ही पढ़ चुका था, फिर भी उसके कुछ हिस्सों को जब भी पढ़ेंगे, रोमांचित हुए बिना नहीं रह पाएंगे.

मैं पढ़ ही रहा था कि वहां वोट संचालित करने वाला मेरी ही उम्र का एक लड़का आ गया. उसने पूछा — “आप क्या पढ़ रहे हैं?” मैंने बताया — “हिमालय पर यह किताब है, जो मैं पढ़ रहा हूं.”
उसने उत्सुकता से किताब देखनी चाही, तो मैंने दे दी. उसने देखकर मुझे वापस की.

तब मैंने उससे पूछा — “क्या आप शेखर पाठक को जानते हैं?” पहले तो उसने थोड़ी अनभिज्ञता जताई, लेकिन मेरे द्वारा थोड़ा हिंट दिए जाने के बाद उसने कहा — “हाँ, वो जो भाषण वगैरह देते हैं.”
मैंने कहा — “हाँ, वहीं हैं, इसके लेखक.”

लेकिन वह नहीं जानता था कि उसके शहर में देश का एक बड़ा विद्वान रहता है. उसने बताया कि उसने इतिहास में नेट देने की तैयारी की थी, लेकिन पापा ने बाहर पढ़ने जाने नहीं दिया. अब यहीं बोट का संचालन करता है.

तब तक घड़ी का समय वहां तक पहुंच गया था, जहां से मुझे अब उठकर चलना था.

एक सीधी चढ़ाई के बाद मैं उस स्कूल पहुँचा. कुछ बच्चे वहां बैठे हुए आपस में बातें कर रहे थे. मैंने उनसे कार्यक्रम के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि “हाँ, कार्यक्रम अभी थोड़ी देर में शुरू होगा.”

मैं स्कूल के अंदर गया. स्कूल के उस हिस्से में झील के ऊपर पहाड़ी पर खड़ा उच्च न्यायालय दिखाई दे रहा था. मैं कुछ देर वहां बेंच पर बैठा पहाड़ों को निहारता रहा.

आकाश में उमड़ते बादलों की चादर जैसे झील के ऊपर ठहर गई थी. सूरज की किरणें जब उन पर पड़तीं तो बादलों के बीच से झील पर सुनहरी आभा फैल जाती. हवा में ठंडक थी और देवदार की खुशबू गहराती जा रही थी. सामने की चोटियों पर फैली हरियाली और झील की नीली परछाई — मानो धरती और आकाश का संगम हो.

उमड़ते बादलों को देखकर मुझे नागार्जुन की कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ की याद आ गई. जब याद आ ही गई तो मैंने सोचा कि पढ़ भी लेता हूं. गूगल पर कविता पढ़ी तो उसके कई भावों को उन बादलों में विचरण करते हुए पाया.

मैं कुछ देर वहीं बेंच पर बैठा रहा. बच्चे आते-जाते रहे. धीरे-धीरे मेहमानों का आगमन शुरू हो गया. सब स्कूल के पूर्व छात्र थे, जिनमें अधिकतर की आयु मुझे पैंसठ साल से ज्यादा लग रही थी. वे सब किसी न किसी अच्छे पद पर थे या रिटायर हो चुके थे. ऐसा मैं इसलिए कह पा रहा हूं क्योंकि वहां पर उनका परिचय दिया जा रहा था.

धीरे-धीरे सभी मेहमान आ गए, लेकिन शेखर पाठक सर नहीं आए. मैंने कॉल किया — कॉल उठा नहीं. उन्होंने मुझसे कहा था, “गोविंद, हो सकता है कि आज मैं अपने गांव जाऊं.” मुझे लगा कि वे गांव चले गए होंगे, इसलिए नहीं आ पाए.

फिर मैं वहां से उतरकर नीचे झील के किनारे आ गया. वहां इतनी भीड़ थी कि शांति के चक्कर में आए आदमी को चक्कर आ जाए. बगल में सिनेमा हॉल देखा तो सोचा — फिल्म ही देख लेते हैं, कितनी देर झील को निहारूं.

‘हाउसफुल 5’ लगी थी — महाबकवास फिल्म! सभी डायलॉग डबल मीनिंग. लेकिन बाहर की हल्ला मचाती भीड़ से अच्छा तो मुझे लगा कि थिएटर में ही बैठा रहूं.

फिल्म खत्म होने के बाद मैं देर तक झील को निहारता रहा. उसके ऊपर उगा हुआ चंद्रमा एक अलग ही आभा पैदा कर रहा था. बीच-बीच में बादलों की अठखेलियां देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता. यह पल में आते और फिर गायब हो जाते.

मुझे नहीं पता था कि सरकारी प्रतिष्ठान के भीतर स्थित डॉर्मिटरी रात नौ बजे ही बंद हो जाती है. मैं पहुंचा तो दस बज चुके थे. एकदम निचंट सन्नाटा. मैं किसको बुलाऊं — समझ नहीं आ रहा था.

पहले तो गेट पर लगी सिकड़ी को बजाया. जब कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, तब मैंने आवाज लगानी शुरू की. मेरी आवाज उस निचाट सन्नाटे में ऐसी लग रही थी जैसे बहुत तेज़ चिल्ला रहा हूं.

मैं आवाज़ लगाते हुए थक गया. सोच लिया कि वापस झील के किनारे चलते हैं, वहीं किसी पत्थर पर सो जाएंगे. लेकिन मुश्किल यह कि पहाड़ों में जगहें देखने में नजदीक लगती हैं, पर चलने में वे कई किलोमीटर दूर होती चली जाती हैं.

मैं वहां से वापस भी नहीं जा सकता था. जहां यह डॉर्मिटरी स्थित थी, वहां गाड़ियां भी मिलनी मुश्किल थीं. फिर मैंने सोचा कि पैदल जहां तक हो सकता है, जाऊंगा.

तभी मैंने सोचा — एक अंतिम कोशिश करते हैं. इस बार प्रतिक्रिया हुई. एक गार्ड चलता हुआ आया और मुझे बुरी तरह डांटने लगा —“यह तुम्हारी खाला का घर नहीं है कि जब मन करे चले आओ! यहां समय होता है आने का. वो बोर्ड पर सामने लिखा है. जाते समय पढ़ा नहीं था क्या?”

मैं चुप — क्या बोलूं? मैंने कहा — “अंकल, सॉरी. मुझे नहीं पता था.”
वह भुनभुनाते हुए मुझे कोसता रहा. अब जाकर मेरी जान में जान आई.

महादेवी वर्मा सृजन पीठ

अगले दिन मैंने महादेवी वर्मा सृजन पीठ जाने की योजना बनाकर शाम को दिल्ली निकल जाने का प्लान बनाया. वहां से महादेवी वर्मा सृजन पीठ चालीस किलोमीटर दूर था. कोई जाने को तैयार नहीं हो रहा था. एक कैब वाला साढ़े तीन हजार रुपए में चलने को तैयार हुआ.

मुझे किसी भी तरह अपनी पुरखिन के घर जाना ही था, फिर पांच हजार ही क्यों न लग जाएं.

वहां पहुंचा. एक गांव की चोटी पर यह घर स्थित है. सामने की तरफ खड़ी चोटियां और सीढ़ीदार खेत अत्यंत सुंदर लग रहे थे. धूप जब उन खेतों पर गिरती, तो हर हरियाली मानो सोने की परत से चमक उठती. हवा में पहाड़ों की ताजगी और चीड़ की पत्तियों की हल्की गंध थी. यही पत्तियाँ जरा से रगड़ होने पर भीषण दावाग्नि में बदल जातीं हैं. ऐसा कैब ड्राइवर ने बताया. 

वहां एक शिलापट्ट पर लिखा था कि यहां की सुंदरता देखकर महादेवी वर्मा जी ने इसे अपने गर्मियों के रहवास के लिए चुना था.

वहां महादेवी वर्मा से जुड़ी सभी चीजों को सहेजकर रखा गया था. जब मैं पहुंचा, तो वहां सिर्फ एक आदमी था जो जूनियर असिस्टेंट के पद पर तैनात थे. उन्होंने मुझे बड़े प्यार से संग्रहालय दिखाया.

जब मैंने थोड़ी साहित्य पर बात की, तब उन्होंने कहा — “मैं पहले सेना में था, इसलिए साहित्य के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है.”

थोड़ी देर बाद असिस्टेंट आ गए. उनसे संग्रहालय से जुड़ी कई बातें हुईं. बातों ही बातों में उन्होंने हिंदवी कविता कैम्पस का ज़िक्र किया, तब मैं खुद को यह कहने से नहीं रोक पाया कि उसका पहला ही विजेता मैं हूं.

वह खुश हुए जब मैंने बद्रीनारायण सर का ज़िक्र किया. फिर उन्होंने मुझे पूरा परिसर घुमाया और मुझसे दोबारा आने का वादा लिया.

मैंने आगंतुक रजिस्टर में लिखा —

“अपनी पुरखिन से मिलकर मुझे ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने दुःख में प्यार से मुझे पुचकारा हो कि — उदास मत हो, सब ठीक हो जाएगा.”

जहां उनकी लिखने की डेस्क थी, वहां से सामने की चोटी का मनोहारी दृश्य दिखाई दे रहा था. उनके द्वारा प्रयोग की गई सभी चीजों को बड़े करीने से वहां रखा गया था.

कुछ पेंटिंग्स लगी थीं, जिनमें कुछ खुद महादेवी वर्मा जी के हाथों की बनाई गई थीं — जैसा कि असिस्टेंट ने बताया.

वहां से नीचे उतरने पर एक लाइब्रेरी थी जिसमें लगभग सभी साहित्यकारों की तस्वीरें लगी हुई थीं.

वहां से मुझे जब सेब के पेड़ दिखाई दिए, तो मैं उन्हें तोड़ने से खुद को नहीं रोक पाया. नीचे उतरा. झाड़ियों के बीच से सेब तोड़ने की मेरी बार-बार की कोशिश असफल होती देख जूनियर असिस्टेंट आ गए और उन्होंने झाड़ी झुकाई — तब मैंने तीन सेब तोड़े, जो अभी कच्चे थे.

फिर बगल में स्थित एक फल देखा जो देखने में काला था लेकिन अंदर से गाढ़ा लाल. उसे तोड़ा और खाया — बहुत स्वादिष्ट था.

ड्राइवर इंतजार कर रहा था. मैंने उससे फल का नाम पूछा, तो उसने कहा — ‘किलीमाड़ू’. उसने एक पेड़ की तरफ़ इशारा करते हुए बताया कि स्थानीय लोग इसे ‘बिच्छू का पेड़’ कहते हैं, क्योंकि इसकी पत्तियां त्वचा पर लग जाएं तो थोड़ी देर बाद तेज़ खुजलाने लगता है.

उसने कहा कि स्थानीय लोग इससे अपने बच्चों को डराते हैं जब वे स्कूल नहीं जाते. उसने परीक्षण के लिए मेरे हाथ पर हल्का सा लगा दिया. सच कह रहा था — थोड़ी देर में हाथ पर खुजली होने लगी.

उसने गाड़ी काठगोदाम के रास्ते की तरफ़ घुमा दी. मैंने कहा — “यहां का कोई स्थानीय गीत लगाइए जो आपको अच्छा लगता हो.”

उसने एक गाना लगाया. मुझे बोल थोड़ा-बहुत समझ आ रहे थे. वह मुझे हर शब्द का मतलब बताता गया. फिर बताया कि इसमें एक प्रेमिका चांदनी रात में अपने प्रेमी को याद कर रही है, जो चाहती है कि उसका प्रेमी इस समय उसके पास होता ताकि वे साथ में चांद को निहारते — लेकिन वह दूर किसी मैदानी शहर में कार्य करने गया हुआ है.

मैंने दिल्ली जाने वाली ट्रेन ली और शाम को दिल्ली आ गया.

अब मैं आपको और बोर न करके मुख्य मुद्दे की तरफ़ ले आता हूं.

…..

हाँ तो — मेरी दोस्त बैंक से पैसे निकाल रही थी. मैं पहुंचा तो लंच का समय था. ढाई बजे से कार्यक्रम है और यहां ढाई बजे से कामकाज शुरू होगा. मैंने कहा कि मैं जा रहा हूं, तुम पैसे निकालकर आओ. बाहर बैटरी रिक्शा का इंतजार कर रहा था. एक रिक्शा रुका तो देखा कि उसमें कवि शिवांगी गोयल भी बैठी हैं. दुआ-सलाम हुआ. वह दीपावली में घर जा रही थीं. मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि चंडीगढ़ का कविता पाठ बहुत शानदार था, जबकि गोरखपुर वाले में समय कम मिल पाया.

हिन्दुस्तानी एकेडमी

तब तक हिंदुस्तान एकेडमी आ गया. मैं उतरा और सीधे हॉल के भीतर गया. अभी पीछे की सीटें खाली थीं. बैठा ही था कि मेरी दोस्त का कॉल आया कि मैं नहीं आऊंगी. दरअसल, वह मेरे चले आने से नाराज हो गई थी. मैंने कहा कि भई, किताब तो दे जाओ जिस पर हस्ताक्षर करवाने हैं. फिर जाकर वह आने को तैयार हुई.

स्वागत वक्तव्य देते हुए प्रोफेसर संतोष भदौरिया सर ने दूधनाथ सिंह के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर कुछ बातें रखीं. लेकिन उनके उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ की चर्चा करते हुए उन्होंने एक सवाल फिर उठाया, जो पिछले पंद्रह तारीख को निराला स्मृति सम्मान में युवा आलोचक रामायण राम ने भी उठाया था — कि अस्सी के दशक के बाद हिंदी साहित्य से मुस्लिम पात्र कम क्यों होते गए? इस पर दूधनाथ सिंह की भी चिंता थी, जो उनके उपन्यास से अभिव्यक्त होती है.

दरअसल, मैं यहां थोड़ा गंभीर होना चाहता हूं. हिंदी साहित्य में मुस्लिम पात्रों के कम होते जाने पर चिंतित होना एक वाजिब सवाल है लेकिन क्या हिंदी साहित्यकारों ने रेणु, प्रेमचंद, मायानंद मिश्र और नागार्जुन के बाद कारीगर और नदीय समुदायों — जो कि अति पिछड़ी जातियां हैं, जिन्हें कन्नड़ विचारक और साहित्यकार डी. आर. नागराज ‘टेक्नोसाइड समुदाय’ कहते हैं — अर्थात वह समुदाय जिनकी आजीविका आधुनिकीकरण और तकनीकी के कारण खत्म हो गई — उन पर भी कभी उतनी चिंता दिखाई है?

यह मेरा सवाल है. हो सकता है कि मैं सही न होऊं. लेकिन मेरे अवलोकन में यह साफ़ दिखाई देता है कि यह समुदाय हिंदी साहित्य में अभी भी उस मार्मिकता और अपने से जुड़े सवालों के साथ ठीक तरह से नहीं आ पाए हैं. यह सवाल वर्तमान की राजनीतिक परिस्थितियों में और महत्वपूर्ण हो जाता है कि उदारीकरण के बाद मछुआरों, कुम्हारों, बसवारों और तमाम समुदायों पर किस तरह के संकट आए हैं. इस पर किसी तरह के  साहित्य बहुत ही कम मिलते हैं, जबकि यह समुदाय इस देश का सबसे बड़ा समुदाय है.

फिर हिंदी साहित्य समावेशी कैसे हुआ? इसका समावेशीकरण तब होगा जब इन समुदायों पर भी वैसे ही प्रचुर मात्रा में लिखा और बोला जाएगा. मैं इसे वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में जोड़ते हुए देखता हूं. यह समुदाय आज के समय की सांप्रदायिक ताकतों के लिए सुरक्षित वोटबैंक बन गए हैं. सीएसडीएस के आंकड़ों को देखें तो आप पाएंगे कि इन समुदायों ने पिछले कई चुनावों में उन्हें जमकर मतदान किया है.

हम भले ही इसे अघोषित आपातकाल का दौर कह रहे हों, लेकिन इन समुदायों को उन्होंने जिस तरह साधा है, उसका कोई उत्तर प्रगतिशील ताकतों के पास नहीं है. अब यह मत कहने लग जाइएगा कि — “अरे, वह तो राशन और पैसे पर बिके हुए हैं.” दरअसल, वह इस बात के भूखे थे कि कोई उन्हें भी पूछे, उनकी वंचना और दुःख को देखे लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया — न प्रगतिशील राजनीति ने और न ही साहित्य ने.

ऐसे में एक बड़ा मैदान सांप्रदायिक ताकतों के लिए खाली था, जिसे उन्होंने भर दिया. अब इसे तोड़ पाना मुश्किल हो रहा है. हमें सोचने और विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है कि हमने इतने बड़े समुदाय को साहित्यिक और राजनीतिक परिदृश्य से बाहर कैसे रखा है? तभी जाकर हम वह रास्ता तलाश पाएंगे जो उन्नति और प्रगति की तरफ जाता है.

आप बोर तो नहीं हो रहे हैं? मुझे उम्मीद है कि आप अभी पढ़ने के लिए तैयार हैं. इस व्याख्यान में वैसे तो शुभनीत कौशिक ने इलाहाबाद और देश के भाषाई संगठनों के इतिहास और उनकी कार्यप्रणाली पर महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया, लेकिन मैं उसे यहां नहीं रखूंगा. आप वह उनकी हाल में आई किताब ‘भाषा की राजनीतिज्ञान की परंपरा: हिंदी साहित्य सम्मेलन और हिंदी लोकवृत्त (1910–1965)’ में पढ़ सकते हैं.

उन्होंने वर्तमान समय में उन संस्थाओं के विघटन की प्रक्रिया, साहित्य के स्थानों के खत्म होते जाने, कॉर्पोरेट से संचालित लिट फेस्टों और वर्तमान समय में युवाओं को जनहितकारी साहित्य की तरफ साहित्यिक संगठनों से जोड़ने में विफलताओं का जिक्र किया. मैं उसे थोड़ा विस्तार से आपके सामने रखना चाहता हूं.

उन्होंने कई संस्थानों की दुर्दशा को दर्शाते हुए कहा कि विगत वर्षों में कुछ संस्थाओं को छोड़ दें तो सभी की हालत बहुत दयनीय हुई है. जिस तरह का उनका संचालन है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह संस्थाएं और कितने साल बच पाएंगी. जिस तरीके से हमारे पुरखों ने इन संस्थाओं को संजोया और सहेजा, उसे बचाए रखना हमारे लिए जरूरी है.

उन्होंने कहा कि उन्होंने हमारे इतिहास के एक महत्वपूर्ण खंड को समृद्ध किया और अब उसे संभालने में हमें आगे आना होगा. लेकिन हम उसे संभालने में विफल रहे हैं. उन्होंने एक विशेष प्रवृत्ति की तरफ इशारा किया — कि संस्थाएं किसी एक व्यक्ति के होने पर चलती रहीं, लेकिन उनकी मृत्योपरांत वे धीरे-धीरे खत्म होने लगीं.

उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य सम्मेलन को पुरुषोत्तम दास टंडन जब तक चला रहे थे, तब तक वह अच्छी तरह चलती रही. लेकिन उनके जाने के बाद उस पर संकट के बादल मंडराने लगे. बाद में तो यह सवाल खड़ा हो गया कि यह संस्था बचेगी या नहीं.

एक संस्था तब तक चलती है, अच्छे से समृद्ध होती है जब तक एक महत्वपूर्ण व्यक्ति का उससे जुड़ाव है. लेकिन उस व्यक्ति के जाने के बाद उस पर संकट खड़े हो जाते हैं. बिहार राजभाषा परिषद के साथ यही हुआ है. पहले उसका एक समृद्ध पुस्तकालय हुआ करता था, जो अब खत्म हो चुका है.

उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही — कि जो संस्थाएं विद्यमान भी हैं, उनकी कार्यशैली भी ठीक नहीं है. जिस तरह का व्यवहार इनका शोध छात्रों के साथ होता है, उसे देखकर मैं कह सकता हूं कि एक बार जाने के बाद कोई शोधार्थी दोबारा वहां नहीं जाएगा.

मौजूद कर्मचारी तरह-तरह के फालतू प्रश्न करते हैं — जैसे, “इसे क्या करेंगे?”, “आप क्यों देखना चाहते हैं?”, “हमने इसे लाल कपड़े में बांधकर रखा है, आप चाहते हैं कि हम उसे खोल दें?”

वही जब कोई ‘गौरांग’ आता है तो वह उनके सामने बिछ जाते हैं. थोड़े समय तो मुझे भी नहीं समझ आया कि ‘गौरांग’ का मतलब क्या है. फिर मैं समझ गया. उन्होंने कहा कि वही कर्मचारी उनके लिए धूल से सनी पांडुलिपियों को भी उनके सामने रख देता है. मुझे तुरंत अपना एक वाक़या याद आया जब अभिलेखागार में कार्य करते हुए ठीक यही स्थिति मैंने देखी थी लेकिन तब मैंने नहीं सोचा था कि एक जेएनयू से पीएचडी किए विद्वान अध्यापक के साथ भी ऐसा हो सकता है.

आगे उन्होंने संस्थाओं के राजनीतिकरण का सवाल उठाया — कि संस्थाओं के पास राजनीतिक कार्यक्रमों के लिए पर्याप्त अवकाश और संसाधन हैं, लेकिन उनका प्रयोग संस्था के विकास के लिए न होकर राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए होता दिखाई देता है.

उन्होंने संस्थाओं द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने की बात भी कही — कि संस्थाएं विषय से लेकर वक्ता तक तय करती हैं.

उन्होंने पिछली पीढ़ी द्वारा सौंपी गई विरासत को बचाए रखने की चेतावनी दी कि यह हमारी जिम्मेदारी है — अगर हमने पिछली पीढ़ी को भुला दिया तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या दे पाएंगे? हमें इन्हें फिर से संभालना पड़ेगा.

आगे उन्होंने कहा कि पोस्ट-ट्रुथ के दौर में कारमाइकल लाइब्रेरी या अन्य लाइब्रेरी की क्या जरूरत है? जब सोशल मीडिया और व्हाट्सएप से हमें ज्ञान मिल रहा है, तो फिर इसकी क्या आवश्यकता रह जाती है? हमे इन लाइब्रेरीज को बचाने के बारे में भी सोचना होगा कि इनकी आवश्यकता आज भी महत्वपूर्ण है.

उन्होंने लिटफेस्टों को कुकुरमुत्ते की तरह उगते जाने पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि जिन शहरों में साहित्य का दायरा सिकुड़ता जा रहा है, वहीं लिटफेस्ट बढ़ते जा रहे हैं. बनारस के लिटफेस्ट को सनबीम ग्रुप का मधोक परिवार संचालित करता है.इससे आप समझ सकते हैं इसमें पूंजी किस तरह दख़ल दे रही है.

उन्होंने इनके बहिष्कार के प्रश्न पर कहा कि हमारे लिए इनका बहिष्कार कर पाना अभी संभव नहीं है. हम इनके समानांतर आयोजन कर सकते हैं. इलाहाबाद में सृजन, परिमल, जलेस और प्रलेस जैसी संस्थाएं यह कर रही हैं और इन्हें बनाए रखने की जरूरत है.

इस संदर्भ में उन्होंने युवाओं को जोड़ने की बात कही — कि जब लिटफेस्ट में वह जत्थे के जत्थे जा रहे हैं, तो वे हमारे साथ क्यों नहीं जुड़ पा रहे हैं? हमें इस पर भी सोचना चाहिए.

साथ ही उन्होंने साहित्यिक स्पेस के घटते जाने की प्रक्रिया का भी विश्लेषण किया — कि धीरे-धीरे सभी स्पेस हमारे हाथ से निकलते जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में खत्म होते जा रहे ऐसे स्पेस पर इलाहाबाद के युवा लिख भी रहे हैं.

विश्वविद्यालय में अन्य सभी तरह की गतिविधियां हो रही हैं और उसके लिए विश्वविद्यालय के संसाधन उपलब्ध हैं. उन्होंने आगे भाषा और पर्यावरण के सवाल को एक-दूसरे से जोड़ते हुए गणेश देवी के माध्यम से बताया कि पर्यावरण संकट किस तरह भाषाओं को खत्म कर रहा है.

यह मुद्दे अलग-अलग नहीं हैं, इसलिए हमें अलग-अलग लड़ाइयां नहीं, बल्कि साझा लड़ाई लड़ने की जरूरत है.

इसके बाद हेरंब चतुर्वेदी सर ने दूधनाथ सिंह से जुड़े कई संस्मरणों का जिक्र किया — यह कहते हुए कि इतने बढ़िया व्याख्यान के बाद वे इस पर बोलकर इसे “डिमाइस” नहीं करेंगे.

पीछे मुड़कर देखा तो पूरा हाल भरा हुआ था. बाहर चाय और बिस्कुट पर लोग टूट पड़े. वहां शुभनीत कौशिक के व्याख्यान की तारीफ़ हर कोई कर रहा था. मैंने हेरंब चतुर्वेदी सर की किताब ‘हिंदी के बहाने’ पर हस्ताक्षर करने को कहा, लेकिन यह भी जोड़ दिया कि — “आप अकबर इलाहाबादी या फ़िराक़ गोरखपुरी का कोई शेर लिखेंगे.”

बाहर निकला तो कवि और गद्यकार प्रदीप्त प्रीत ने कहा कि हरिश्चंद्र पांडे सर पूछ रहे थे — “यह खलनायक कौन है?” उसने बताया — “गोविंद निषाद.”

वह कहने लगे — “इतना अच्छा नाम है, बिगाड़ क्यों रहा है?” फिर वहीं बगल में खड़े सूर्य नारायण सर और विवेक निराला सर इस बात पर चर्चा करने लगे कि किसका नाम क्या रखा गया था. उन्होंने कहा कि नाम किसी का बिगाड़ो तो वह पहले से खराब हो, नहीं तो क्या फायदा! मैंने हंसते हुए कहा — “बिलकुल सही बात है सर.”

बाहर निकला तो मेरी दोस्त अपने दोस्तों के साथ चाय की दुकान पर खड़ी थी. वहां पहुंचा तो हिंदी के पांच अन्य शोध छात्र पहले से मौजूद थे. कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद हम कटरा पहुंचे. वहां से फूलन देवी की तस्वीर ली और झूंसी आ गया.

….

पंद्रह अक्टूबर को हिंदी साहित्य के कवि महाप्राण निराला की पुण्यतिथि होती है. इस दिन इलाहाबाद का साहित्यिक समाज निराला को याद करता ही है, साथ में उनके परिवार और संस्था ‘निराला के निमित्त’ द्वारा ‘निराला स्मृति सम्मान’ दिया जाता है.

रोज़ की तरह आज भी सुबह हुई. सुबह उठते ही व्हाट्सएप स्टेटस पर देखा कि हिंदी के प्रेमी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय के पास स्थित निराला की मूर्ति पर माल्यार्पण कर चुके थे. इन दिनों व्हाट्सएप ने एक बढ़िया टूल उपलब्ध करा दिया है कि आप किसी के भी स्टेटस को अपने स्टेटस के रूप में साझा कर सकते हैं.

मैंने भी तुरंत एक व्हाट्सएप स्टेटस साझा करते हुए निराला को याद किया. आज तय किया था कि ‘निराला स्मृति सम्मान’ में चलना ही है.

मेरी एक दोस्त — जिससे मेरी दोस्ती के पंद्रह साल पूरे हो गए हैं — वह ‘नेशनल फेलोशिप’ के लिए केनरा बैंक में खाता खुलवाने आई थी. उसने कहा कि “तुम भी आ जाओ.”

मैं आज उठा और जैसे ही नलकूप खोला — पानी ही नहीं आ रहा था. पूछने पर पता चला कि आज टुल्लू बनने के लिए गया है. आरओ वाटर से मुंह धोया और चल दिया कटरा स्थित केनरा बैंक की शाखा की ओर.

खाना तो बनाया नहीं था. विज्ञान संकाय के पास एक दीदी ने चाय की दुकान खोली है. मैंने सोचा — चलो चाय पीकर चलते हैं. उनसे चाय मांगी तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा — “पोहा खाएंगे क्या?”

मैं उनकी मुस्कान के आगे परास्त हो गया. वैसे भी मुझे भूख लगी थी. मैं पोहा खा ही रहा था कि मुझे अपने एक सीनियर दिखाई दिए — वही सीनियर जिन्होंने मेरा पहली बार इंट्रो लिया था. वो भी उस हालत में, जब पुलिस की रेड के बाद पूरा हॉस्टल डीजे हॉस्टल में भर गया था. इसका किस्सा आप चाहे तो “बेला” हिन्दवी पर ही पढ़ सकते हैं — जो मैंने लिखा था.

उन्हें जिस हालत में मैंने देखा, मुझे उन पर तरस आ गया. वह फटेहाल वहां बैठे थे. मैंने प्रणाम किया तो खुश हो गए. पास बुलाया तो बड़े प्यार से दुलारते हुए पूछा — “आजकल क्या कर रहे हो?”

मैंने जब बताया कि — “सर, पीएचडी कर रहा हूं और जेआरएफ हूं.” — तो वह बहुत खुश हुए. उनकी ख़ुशी देखकर मेरी आंखों में बरबस आंसू टपकने को हो आए.

मैंने तब उन्हें खूब गरियाया था, जब उन्होंने मेरा इंट्रो लेते हुए लताड़ा था.

मैं पोहा खा ही रहा था कि कुछ अधेड़ लेकिन मठाधीश टाइप तीन-चार लोग वहां प्रकट हुए. बैठते ही बोले — “चाय दो.”

उस दीदी ने कहा कि — “आकर ले लीजिए.” तो उनमें से एक आदमी बोला — “तुम वहां तक चाय देने जाती हो, तो यहां तक लाकर नहीं दे सकती हो?”

ख़ैर, उन्होंने चाय दी. मैं अपना पैसा देकर केनरा बैंक की तरफ़ मुखातिब हुआ.

वहां मेरी दोस्त पहले से मौजूद थी. उसने कहा — “सब तो हो गया, लेकिन पासबुक लेने के लिए खाते में पैसा भेजना पड़ेगा.”

मैंने कहा — “भेज दो.”

उसने कहा — “मेरे पास तो नहीं हैं, तुम भेज दो ना.”

अरे यार! तुम्हारे लिए जान हाज़िर, फिर ये पांच हजार रुपए क्या चीज़ है. मैंने तुरंत उसे पांच हजार रुपए भेज दिए. उसे पासबुक मिल गया.

कार्यक्रम का समय ढाई बजे दोपहर में था. अभी हमारे पास डेढ़ घंटे का समय था. मुझे पता था यह डेढ़ घंटा हम कहां आराम से गुज़ार सकते हैं. मेरे दिमाग़ में तुरंत ‘माही कैफ़े’ आया.

माही कैफे

चलिए, थोड़ा फ्लैशबैक में ले चलता हूं आपको. मैं हालैंड हाल हॉस्टल का अन्तःवासी था. यह कैफ़े उसी हॉस्टल के परिसर में ही स्थित है. तब मैं यहां आने से भी डरता था क्योंकि यहां कुछ सीनियर छात्र हमेशा बैठे रहते थे.

वो कब किस मूड में हों, मुझे पता नहीं रहता था.

एक बार गलती से चला गया. तभी वहीं बैठे सीनियर ने बुला लिया. मैं पास पहुंचा तो बोले —
“भों…ड़ी के, यहां अकेले आते हैं?”

मैंने कहा — “क्या हुआ सर?”

“तुम्हें नहीं पता कि यह जगह कपल्स के लिए मशहूर है?”

“नहीं सर, मुझे तो नहीं पता.”

“अच्छा छोड़ो, ये बताओ कि कोई लड़की-वड़की पटाई कि खाली क्लास ही किए जा रहे हो?”

“नहीं सर, अभी तो कोई लड़की नहीं पटाई.”

सीनियर ने थोड़ा और पास बुलाया और बैठाते हुए कहा — “देखो बालक, तुम्हें लग रहा होगा कि बस बी.ए. करते ही पीसीएस हो जाओगे. बालक, यह नहीं होने जा रहा है. जब तुम एम.ए. कर लोगे और तुम्हारे पास नौकरी नहीं होगी तो कहां जाओगे रोने? रोने के लिए एक महिला मित्र तो चाहिए ना, जो तुम्हारे आंसू पोंछ सके. इसलिए बालक, थोड़ा क्लास से इतर भी ध्यान दो, नहीं तो हम लोगों की तरह माही कैफ़े में बैठकर मक्खी मारोगे.”

मैंने कहा — “ठीक है सर, अब मैं बिल्कुल यही करूंगा.”

उन्हें क्या पता था कि मैं महिला मित्र के चक्कर में ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने आया हूं — पढ़ने नहीं, उसी के साथ के चक्कर में आया हूं.

मैंने उन्हें कहा — “सर, जल्द ही इसी कैफ़े में मैं एक महिला मित्र के साथ मिलूंगा.”

उसके बाद तो माही कैफ़े का नाम सुनकर ही मेरे शरीर में झुनझुनी दौड़ने लगती थी.

फिर ‘मोस्ट सीनियर’ होने तक मैंने इस कैफ़े की तरफ़ देखा भी नहीं.

‘मोस्ट सीनियर’ मतलब नहीं समझे आप? मैं समझाता हूं — देखिए, जो छात्रावास में एम.ए. पूरा करने के बाद भी बना रहे, वह ‘मोस्ट सीनियर’ हो जाता है. हमारे समय में तो कैंब्रिज कोर्ट सिर्फ़ मोस्ट सीनियर्स से भरा हुआ था.

इसलिए मैंने तय किया कि जब तक मोस्ट सीनियर नहीं हो जाता, इस कैफ़े में नहीं आऊंगा.

अब मैं ‘मोस्ट सीनियर’ की श्रेणी को भी पार कर ‘बुजुर्ग सीनियर्स’ की श्रेणी में आ गया हूं.

बुजुर्ग कहना तो अपने साथ ज्यादती है — मैं तो अभी तीस का भी नहीं हुआ हूं और मेरे खुद के सीनियर्स पड़े हुए हैं. तो मैं खुद को ‘मोस्ट सीनियर’ ही मानता हूं.

अब मैं माही कैफ़े में ‘मोस्ट सीनियर’ की हैसियत से बैठता हूं. मुझे पता है कि जो भी अब यहां आएगा, मेरा जूनियर ही होगा.

लेकिन कहां पता था कि ‘मोस्ट सीनियर्स में मोस्ट’ हो चुके सीनियर यहां आ सकते हैं.

हाँ, तो कल जब मैं और इलाहाबाद के उभरते गद्यकार और कवि प्रदीप्त प्रीत के साथ बैठा हुआ था, तभी मेरे विश्वविद्यालयी लड़कपन के हीरो विवेकानंद सर का चेहरा अपनी ओर आता हुआ दिखा.

लेकिन इस बार तो मैं पूरे आत्मविश्वास में था. सर के आते ही मैंने हास्टलीय शैली में प्रणाम किया. वह भी हमें देखकर चमक गए.

विवेकानंद सर को जानते हैं आप? नहीं जानते तो मैं बता देता हूं — अभी वह कांग्रेस पार्टी में ‘उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी’ के महासचिव हैं. लेकिन यह पहचान से ज़्यादा मुझे उनका छात्रसंघ वाला रूप प्रिय है — जो छात्रों के मुद्दों पर अक्सर दहाड़ते हुए छात्रसंघ भवन या वीसी ऑफिस के पास मिल जाया करते थे.

विवेकानंद सर की भाषण शैली की बहुत तारीफ होती थी. वह बहुत ही वाकपटु वक्ता थे. जब बोलते थे तो शमा बाँध देते थे. पास से गुजरता हुआ कोई भी व्यक्ति उनके भाषण से सम्मोहित हुए बिना नहीं रह पाता था.

मेरे से एक साल सीनियर, जो पिछले साल उपमंत्री का चुनाव लड़ चुके थे, वे अक्सर विवेकानंद सर की भाषण शैली की प्रशंसा किया करते थे.

मैंने भी तय कर लिया था कि इस बार जो छात्रसंघ चुनाव होने जा रहे हैं, उसमें वह जहां भी बोलेंगे, मैं जाऊंगा.

जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय आया, तब वे एनएसयूआई में थे. एनएसयूआई की तब यहां बहुत ज़्यादा पकड़ नहीं थी, लेकिन विवेकानंद सर के सभी दीवाने थे.

मैंने उन्हें पहली बार सुना, जब वे छात्रसंघ चुनाव में अपने प्रत्याशी के लिए दक्षता भाषण के बाद ‘यूनिवर्सिटी रोड’ पर होने वाली माइक रैली में अपने प्रत्याशी के समर्थन में बोल रहे थे. क्या नज़ारा होता था वो!

फिर तो मैं मुरीद ही होता गया.

इसके बाद विश्वविद्यालय कैम्पस में उन्हें कई बार सुना — जब तक छात्रसंघ चुनाव होते रहे. लेकिन 2018 में छात्रसंघ पर प्रतिबंध के बाद वे राष्ट्रीय राजनीति में चले गए. इसके बाद उन्हें अक्सर फेसबुक पर ही बोलते हुए सुना.

आज जब वे माही कैफ़े में बैठे तो मेरा मन भर आया कि जिससे बोलने का जज़्बा सीखा था, वह मेरे पास बैठा हुआ है.

मैंने प्रदीप्त को सर से परिचित कराया. हो सकता है कि प्रदीप्त जानता हो, लेकिन मेरे लिए तो यह अपने विश्वविद्यालयी हीरो को देखने का सुखद अवसर था.

हमने सर के साथ देश और विभिन्न राज्यों की राजनीति पर बातें कीं. कहीं से भी नहीं लग रहा था कि वे वही हैं जो छात्रसंघ की सभाओं में दहाड़ते थे, जिन्हें मैं देखा करता था.

सर के साथ मैं खुद फ़ोटो खिंचवाना चाहता था — वैसे भी मैं बहुत कम ही लोगों के साथ फोटो खिंचवाने को लालायित होता हूं. इसलिए आप समझ सकते हैं कि मैं उन्हें किस भाव से देख रहा था.

मैं कहता उससे पहले उन्होंने खुद ही कहा — “चलो यार, एक फोटो हो जाए.”

हम माही कैफ़े के गेट पर आए. चार नये-नवेले बालक खड़े थे.

मैंने कहा — “भाई, कल तुमने तिलक भवन में हुए नाटक में बहुत बढ़िया अभिनय किया था.”

वह खुश हो गया और उसने हमारी फोटो खींची. फिर सर चले गए.

मैं प्रदीप्त के साथ राधाकृष्णन हॉस्टल चला गया, जहां से हमें शाम छह बजे स्वराज विद्यापीठ में देश के प्रसिद्ध रंगकर्मी अनिल रंजन भौमिक द्वारा निर्देशित नाटक ‘6 अगस्त 1945’ देखना था.

……

हाँ, तो मैं और मेरी दोस्त माही कैफ़े में आए. मैंने नीम के पेड़ के नीचे बैठने को कहा. वहां बैठकर ऐसा लग रहा था कि हम गांव में आ गए हैं. बगल में आ रही चिड़ियों की चहचहाहट इस दृश्य को और सुंदर बना रही थी.

मैंने अपनी दोस्त को इशारे से बताया — “जानती हो, बीए के दिनों में मैं तुमसे कहां बैठकर बातें किया करता था?”

वह तो एकदम उत्साहित हो गई. मैंने इशारे से बताया — “वो जो नीम का पेड़ देख रही हो, वहीं मैं अक्सर तुमसे बातें किया करता था. कभी-कभी तो पूरी रात.”

अब सोचता हूं तो डर जाता हूं कि कैसे पूरी रात यूनिनार कंपनी के रात्रीकालीन फ्री कॉल पर हम बातें किया करते थे.

वह चहक गई और कहने लगी — “अब तो तुम्हारे पास समय ही नहीं होता मेरे लिए.”

मैं फिर एक दुष्चक्र में न चाहते हुए भी फंस गया. मैंने कहा — “यार, वो दिन कुछ और थे, अब कुछ और हैं. तब तो हमें बस बीए पास होना था, अब तो नौकरी और परिवार के चक्कर में ज़िंदगी कितनी बदल गई है.”

उसने जब मेरी बात से सहमति जताई तो मेरी सांसों में सांस आई.

हम बड़ी देर तक वहीं बैठे रहे. मैंने मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लों को राहत फतेह अली खान की आवाज़ में लगा दिया — गज़ब का शमा बंध गया.

पराठा खत्म हुआ तो मैंने अचानक मोबाइल उठाई और फोटो उतारनी शुरू कर दी. मेरी दोस्त को मेरी फोटो उतारने की बड़ी उतावली होती है, और मैं ठहरा कैमरा देखकर भागने वाला. लेकिन फोटो अच्छी आती देख मैंने उससे लगातार फोटो क्लिक करते रहने को कहा. अचानक सूझा कि किताब पढ़ते हुए फोटो खिंचवाते हैं.

उसके बैग में कोई किताब नहीं थी. मैं तो वैसे भी खाली हाथ झुलाता हुआ ही आता हूं. हाँ, कॉपी थी उसके पास. मैंने कॉपी ली तो लगा कि लिखने का नाटक करने से अच्छा है कि कुछ लिख ही दूं.

मैंने उसे संबोधित करते हुए एक पत्र लिख दिया, जिसमें लिखा — “तुम्हारे बाद हालैंड हाल हॉस्टल और यह शहर मेरा दोस्त है, जिसे छोड़ते हुए मुझे बहुत दुख होगा.”

खैर, हॉस्टल छोड़ने का दुःख तो मैं भोग चुका था, लेकिन शहर छोड़ने के विचार से ही मेरे भीतर सिहरन होने लगती है. मैंने पत्र पूरा किया और उसमें तारीख़ और जगह का नाम लिखते हुए उसे सौंप दिया. वह देखकर खुश हो गई.

सेंट जोसेफ कॉलेज

तब तक दो बजकर बीस मिनट हो चुके थे — यानी अब हमें सेंट जोसेफ कॉलेज के हॉगेन हॉल जाना था, जहां आज ‘निराला स्मृति सम्मान’ कथाकार और उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह को दिया जाना था.

हम पहुंचे ही थे कि प्रेमशंकर सर की गाड़ी रूकी. मैंने उन्हें प्रणाम किया तो देखा कि बगल में रामायण राम सर — जो आज के मुख्य वक्ता थे — वे गाड़ी में ही बैठे थे.

प्रेमशंकर सर ने कहा — “गोविंद, मुख्य वक्ता को हॉल तक ले चलो.” हम हंसने लगे. रामायण राम सर को भी आप नहीं जानते होंगे? चलिए, उनसे भी आपको रू-ब-रू करवा ही देता हूं.

वह अभी शिक्षा विभाग में काम करते हैं, लेकिन एक समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संघर्षशील छात्र नेता हुआ करते थे. उन्होंने 2012 के छात्रसंघ चुनाव में आइसा की तरफ़ से अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था. वह चुनाव भले हार गए, लेकिन आइसा और वामपंथी राजनीति को एक नई धार देकर गए. वह जल्दी ही छात्र राजनीति से अकादमिक दुनिया में आ गए और एक उभरते युवा आलोचक के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई. वह मेरे जिले आज़मगढ़ के ही हैं.

हां तो हम जैसे ही प्रांगण में प्रवेश किए, बसंत सर, सूर्य नारायण सर और लक्ष्मण सर वहीं मिल गए. उनसे दुआ-सलाम के बाद मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय की उभरती हुई लेखकीय पीढ़ी की ओर अग्रसर हुआ, जो थोड़ी ही दूरी पर बातचीत कर रहे थे. वहां कवि पूजा कुमारी, कवि सबिता एकांशी और कवि और गद्यकार प्रदीप्त प्रीत के साथ शोध छात्र अनुराग थे. मेरे पहुंचते ही उन्होंने हंसी का माहौल बनाने के लिए कहा — “आ गए, इलाहाबाद के बड़े साहित्यकार.” सभी हंस पड़े. मैंने कहा — “इतना भी मजा न लीजिए.”

सब लोग हंस ही रहे थे कि कवि शिवांगी गोयल का भी आगमन हो गया. इसके साथ ही इलाहाबाद के लगभग नवोदित लेखक तो वहां आ ही गए. देश के बड़े कवि हरिश्चंद्र पांडे सर को मैं कैसे भूल सकता हूं. जब-जब भी मिलते हैं तो इतनी आत्मीयता से मिलते हैं कि मन खुश हो जाता है. अब मुख्य अतिथि साहित्यकार अब्दुल बिस्मिल्लाह आ गए थे. उनके आने के साथ कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत हुई.

संचालन सूर्य नारायण सर कर रहे थे. उन्होंने सम्मानित साहित्यकार के स्वागत के लिए लक्ष्मण सर को बुलाया. लक्ष्मण सर ने अपनी ग़ज़ल-आधारित रचनात्मकता का परिचय देते हुए जिस तरह से अब्दुल बिस्मिल्लाह सर का परिचय दिया, वह एक ललित गद्य में बदल गया. उनके किताबों के शीर्षकों को उन्होंने जिस तरह से सुर में बांधा, उससे एक संगीत बजता हुआ नज़र आया.

अध्यक्षीय वक्तव्य रामायण राम सर ने लिखित रूप में पढ़ा, हालांकि बीच-बीच में वह अपनी दूसरी बातें भी कहते रहे. मैं नहीं चाहता कि मैं आपको उनके उद्बोधन का सार लिखकर बोर करूं, लेकिन कुछ बातें मैं कह देता हूं जो बहुत जरूरी हैं.

उन्होंने कहा कि अब्दुल बिस्मिल्लाह के साहित्य की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने अपने लेखन के जरिए मुस्लिम समुदाय के ‘अन्यीकरण’ का प्रतिवाद किया है. एक जगह उन्होंने कहा कि विचार के स्तर पर हिंदी साहित्य ने एक समय मुसलमानों से दूरी बना ली थी, जिसके बारे में शालिनी और गुलशेर खां शादी ने सवाल उठाया था — कि आधुनिक कालीन हिंदी साहित्य से मुस्लिम पात्र गायब क्यों हो रहे हैं?

उन्होंने कहा था कि ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि हिंदी के लेखकों में प्रेमचंद और यशपाल के बाद किसी के भी पास अनुभव की वह संवेदना नहीं है जिसमें मुस्लिम साइकी, उसकी तकलीफें, उसके अनुभव वहां तक पहुंच सकें. अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि मुस्लिम समुदाय की एक असभ्य, बर्बर और हिंसात्मक निरूपण का जो प्राच्यवादी औपनिवेशिक विचार तैयार किया गया था, उसका खंडन बाद में एडवर्ड सईद ने किया.

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जिन लोगों को अपने साहित्य के केंद्र में रखा है, यह सभी राष्ट्र, संस्कृति और समाज से बहिष्कृत लोग हैं — जो पेट के बल रेंगकर मुख्य धारा में शामिल होने के संघर्ष में लगे हुए हैं.

आगे उन्होंने एक जगह कहा कि मुस्लिम समुदाय पर भारत विभाजन के समय से ही कहानियां लिखी जाती रही हैं. साम्प्रदायिकता और उसके राजनीतिक-ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल भी पुराने कथाकारों ने की है. यशपाल, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती और राही मासूम रज़ा के उपन्यासों में यह सब मौजूद है. लेकिन स्वतंत्र भारत के आम जनमानस में साम्प्रदायिक सोच और व्यवहार किस तरह आकार ले रही है — यह अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियां बहुत बारीकी से दर्ज करती हैं. उनकी सबसे दिलचस्प विवेचना — अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानी ‘रफ़ रफ़ मेल’ की थी, जिसमें उन्होंने उसकी वर्तमान प्रासंगिकता को इस तरह व्याख्यायित किया कि लगा कि ऐसी विवेचना कहानी की हो ही नहीं सकती.

उन्होंने जर्जर बस को देश की संज्ञा दी, जिसे एक पूर्व में दर्ज़ी रह चुके और अब ड्राइवर बनने की चाहत रखने वाले बदरूद्दीन को चलाने के लिए मालिक ने दे दिया है, जिसे वह रंग-रोगन करके चलाने लायक बनाने में लगे हुए हैं.

इसके बाद अध्यक्षीय भाषण के लिए वीरेन्द्र यादव आए. उन्हें सुनते हुए रश्क होता है कि अगर इनका आधा भी वर्तमान पीढ़ी में आलोचकीय गुण बचा, तो हिंदी का सौभाग्य होगा. यह बात मैं होशो-हवास में कह रहा हूं.

यह बात सिर्फ़ पैतीस साल से नीचे के आलोचकों के लिए है — उससे ऊपर वाले इसे अपने सिर पर न लें. मैं क्यों कह रहा हूं, आगे स्पष्ट कर दूंगा. वीरेन्द्र यादव को मैं इस हॉल में बोलते हुए दूसरी बार सुन रहा था. पहली बार तब सुना था जब वह दूधनाथ सिंह की पुण्यतिथि पर बोलने के लिए आए थे.

उन्होंने उस समय दूधनाथ सिंह के उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ को वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में पढ़े जाने की बात कही थी. आज उन्होंने निराला के प्रगतिशील धारा से जुड़े होने पर अपनी बात शुरू की.

उन्होंने कहा कि आज़ाद हिंदुस्तान में 1948 में तेलंगाना आंदोलन के बाद कम्युनिस्टों पर दमन का एक दौर चला. उस समय अमृतराय ‘हंस’ का संपादन कर रहे थे. तब ‘हंस’ का दमन-विरोधी अंक प्रकाशित हुआ था. उस अंक पर निराला का साफा-बांधे चित्र छपा था, जिस पर उनकी कविता की मुख्य पंक्तियां लिखी थीं —

“खुला भेद, विजयी कहाए हुए जो लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं…”

इसे उन्होंने प्रगतिशील परम्परा से निराला के जुड़ाव के रूप में व्याख्यायित किया.

एक दूसरा प्रसंग उन्होंने यह सुनाया कि जब निराला बहुत बीमार हुए तो यह कहा गया कि सरकार से मदद मांगी जाए. उस समय जो उत्तर प्रदेश के वित्तमंत्री थे, कृष्णा दत्त पालीवाल, उन्होंने कहा— “अगर हम मदद कर देंगे तो लोग कहेंगे कि हमने एक कम्युनिस्ट की मदद कर दी.”

तो निराला को सत्ता भी एक कम्युनिस्ट के रूप में देख रही थी.

इसके बाद उन्होंने 1986 के आसपास प्रकाशित उपन्यासों जैसे — ‘कसप’, ‘कुर-कुर स्वाहा’, ‘दीवार में खिड़की रहती थी’, ‘नौकर की कमीज़’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ — का जिक्र किया. इन उपन्यासों में एक आस्वाद था जो उन दिनों सराहा जा रहा था.

इसी दौर में 1979 में जन-पक्षधर धारा में जो पहला उपन्यास आया, वह मन्नू भंडारी का ‘महाभोज’ था. यहां समाज का एक यथार्थवादी चित्र था, जहां एक दलित का शोषण यथार्थ रूप में चित्रित हो रहा था. और इसी दौर में 1986 में ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें बनारस के बुनकरों का जीवन भलीभांति चित्रित हुआ.

इसके बाद उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों के जरिए राही मासूम रज़ा, मंज़ूर एहतराम और अन्य साहित्यकारों के लेखन की तुलना करते हुए एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया — कि अब्दुल बिस्मिल्लाह से पहले के साहित्यकार मुस्लिम जगत को अभिजात्य और विभाजन की विभिषिका के भीतर ही रूपांतरित करते हैं.

लेकिन अब्दुल बिस्मिल्लाह अपने पहले उपन्यास ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ में पहली बार उस मुस्लिम जगत को साहित्यिक लेखन के दायरे में लाते हैं, जो श्रमिक है. वह इसे इतिहास-लेखन में उभरे सबाल्टर्न इतिहास लेखन से जोड़कर कहते हैं कि इस साहित्यिक परिवेश में मुस्लिम सबाल्टर्न समुदाय का भी प्रादुर्भाव उनके उपन्यासों में दिखाई देता है.

इसके साथ ही उन्होंने कई महत्वपूर्ण आलोचकीय वक्तव्य दिए, जिन्हें यहां विस्तारित रूप में देना इसे इतना लंबा कर देगा कि आप बोर होकर रील्स देखने लगेंगे. हां, भविष्य में यह व्याख्यान लिखित रूप में पढ़ने को जरूर मिलेगा, तो उस पर मैं ज़्यादा बल देने की जरूरत नहीं समझता.

इसके बाद उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की खोज की पड़ताल करते हुए भारतीय समाज में विद्यमान जाति व्यवस्था को देखा. उन्होंने कहा कि निम्न जाति का व्यक्ति चाहे हिंदू हो या मुसलमान — वह कहीं न कहीं उस जाति के अभिजात्य तबके के नीचे दबा हुआ है.

इस संदर्भ में उन्होंने अब्दुल बिस्मिल्लाह की एक कहानी के पात्र चूड़ीहारा का जिक्र किया, जिसमें वह बताते हैं कि इसमें वही सामंती अवशेष विद्यमान हैं जो पहले से थे. सत्यनारायण पांडे की बेटी की शादी में चूड़ीहारा नहीं पहुंच पाता, तो लोग यह नहीं मानते कि अली चूड़ीहारा किसी बीमारी या किसी और वजह से चूड़ी पहनाने न आया हो.

कहानी में सत्यनारायण पांडे कहते हैं — “गांधी ने यह कैसा देश बना दिया! यहां मुसलमान का रहना अच्छा नहीं है, मुसलमान यहां से पाकिस्तान चले जाएं.”

अपने व्याख्यान में उन्होंने धर्मांतरण का भी जिक्र किया. उन्होंने कहा — “देखिए, अगर कोई मुसलमान है या ईसाई है, तो उसके यहां भी जाति किसी न किसी रूप में विद्यमान है.”

वह ‘मुखड़ा’ उपन्यास में भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जड़ों को देखते हैं और कहते हैं कि यहां से देखा जा सकता है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उत्स कहां से हो रहा है, और यह जो समरसता की बात है, उसमें कौन-सी बातें छिपा दी जाती हैं.

इन सभी परतों को यह उपन्यास उधेड़कर हमारे सामने रख देता है. इसलिए आज के समय में अब्दुल बिस्मिल्लाह का लेखन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.

अंत में उन्होंने ‘कुठाँव’ उपन्यास का जिक्र किया, जिसमें वह कहते हैं कि इसमें पसमांदा का विमर्श आता है — जिस पर पहले तो बात ही नहीं होती थी, अब थोड़ी बहुत बातें होने लगी हैं. इस उपन्यास में अब्दुल बिस्मिल्लाह ने मुस्लिम समाज के सबसे निम्नतर हेला जाति को अपने उपन्यास का केंद्रीय पात्र बनाया है. यह साहित्य में पहली बार था. अब्दुल बिस्मिल्लाह यह इसलिए कर पाए क्योंकि मुस्लिम समाज के भीतर उनकी समझ बहुत गहरी है. इससे पहले के मुस्लिम साहित्यकारों के लेखन में यह बात नहीं आई थी.

इसके बाद तो जो हुआ, वह केवल और केवल मेरे लिए विस्मित करने वाला था. अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने संबोधन की शुरुआत नरम लहजे में की — यानी उम्र के लिहाज से आदमी जैसा बोल सकता है — लेकिन जल्द ही उनकी आवाज़ में एक भारीपन आ गया और वह ऐसा बोलने लगे जैसे कोई चौबीस साल का युवा साहित्यकार बोल रहा हो.

उन्होंने पूरे वक्तव्य में खूब किस्से सुनाए और सबको खूब हंसाया. उन्होंने कहा —

“मैं यहां बैठकर तब से अपनी प्रशंसा सुन रहा हूँ. महाभारत में कहा गया है कि प्रशंसा सुनने से उम्र कम हो जाती है. अरे, हो जाए उम्र कम! मैंने तो अपना जीवन जी लिया है.”

जिस मुद्रा में उन्होंने यह कहा था, उसे सुनकर सभी तालियां बजाते हुए बस हंसते ही रहे.

उसके बाद उन्होंने कुछ कहावतों का जिक्र किया — जैसे कि कोई कितना भी बड़ा विद्वान हो, अपने घर में तो उसे कोई विद्वान मानता ही नहीं: “घर का जोगी जोगड़ा और घर की मुर्गी दाल बराबर.”

फिर उन्होंने कहा —“भई, मैं तो इलाहाबाद का ही हूं, और घर है यह मेरा. और घर में सम्मान मिलना तो बड़ी बात है.”

फिर उन्होंने संस्कृत भाषा के पढ़ने और उसकी पूरी कहानी का बयान किया — कि कैसे उनके पिता जी ने मिशनरी स्कूल में दाखिला दिलवाया, और प्रिंसिपल ने जब कहा कि —“आपके लड़के का प्रवेश हम तभी लेंगे जब आप ईसाई हो जाएं.” उनके पिता जी कट्टर सुन्नी मुसलमान थे. उन्होंने कहा — “ऐसे कैसे धर्म परिवर्तन कर लें? अरे, हम तो शासक रहे हैं!”

फिर उनके पिता और प्रिंसिपल में इस्लाम और ईसाईयत को लेकर बहस हुई.
उनके पिता ने प्रिंसिपल को इस्लाम के पक्ष में बहस करके हरा दिया.
उसके बाद उनका दाखिला हो गया. उन्हें एक विषय के रूप में संस्कृत पढ़ने को मिली क्योंकि वहां उर्दू नहीं पढ़ाई जाती थी.

फिर एक दिन जब वह ‘पाठ’ शब्द का रूप याद कर रहे थे, तब उनकी मां भड़क उठीं कि — “लड़का हमारा मज़ाक उड़ा रहा है.” यह कहकर कि — “पाठानि पठामि पठामै” — क्यूंकि वह पठान थीं. यह बात उन्होंने उनके पिता को बताई; तब वह भी भड़क गए कि यह सब क्या है. उन्होंने बताया कि वह ‘पाठ’ शब्द का रूप है. पिता ने कहा — “तो तुम्हें वहां संस्कृत पढ़ाई जा रही है!”

इसके बाद वह फिर प्रिंसिपल से भिड़े, लेकिन नियमों और उर्दू अध्यापक की अनुपलब्धता का हवाला देकर उन्हें संस्कृत ही पढ़ते रहने को राज़ी कर लिया गया. पिता जी उन्हें घर पर ही पढ़ाते थे, और मुसलमानों की तरह कुरान नहीं बल्कि उर्दू भाषा वह पढ़ाते थे.

यह कहकर उन्होंने हंसी का माहौल बनाया कि उनके पिता ने कहा —“लड़का बड़ा होकर कुरान पढ़ना होगा तो पढ़ लेगा.” इस तरह उन्होंने हाई स्कूल और इंटरमीडिएट में संस्कृत पढ़ी, लेकिन स्नातक में एक पेंच फँसा — संस्कृत विषय होने के बावजूद उपस्थिति रजिस्टर में उनका नाम ही नहीं लिखा जा रहा था, और यह महीनों चलता रहा. एक दिन वह अध्यापक के पास गए और कहा —

“गुरूजी, अगर आप रजिस्टर में मेरा नाम नहीं दर्ज करेंगे तो मैं अनुपस्थिति के कारण परीक्षा देने से वंचित हो जाऊंगा.” उनके अध्यापक किस्सागो बन गए और एक किस्सा सुनाया —

“एक बार एक अंग्रेज संस्कृत सीखना चाहता था. उसने बहुत कोशिश की लेकिन कोई ब्राह्मण उसे संस्कृत सिखाने के लिए तैयार नहीं हुआ, क्योंकि इससे उन्हें अपवित्र होने का खतरा था. किसी ने बताया कि एक गांव में एक पंडित को जाति से बहिष्कृत कर दिया गया है, वह आपको पढ़ा सकता है. अंग्रेज उनके पास गया और बताया कि वह संस्कृत सीखना चाहता है. ब्राह्मण मान तो गए, लेकिन शर्त रख दी कि दो घड़ा पानी और दो धोती-कुर्ता उन्हें रोज देना पड़ेगा — एक बार वह पढ़ाने से पहले नहायेंगे और दूसरी बार इसलिए नहायेंगे कि अंग्रेज को पढ़ाकर अपवित्र हो जाएंगे, तो दूसरी बार पवित्र होने के लिए स्नान करेंगे.”

फिर अध्यापक ने कहा — “बेटा, इसलिए हम तुम्हारा नाम रजिस्टर में नहीं दर्ज कर रहे हैं.”

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कहा —

“गुरूजी, एक बात बताइए — जब अंग्रेज को संस्कृत नहीं आती थी और ब्राह्मण को अंग्रेजी नहीं आती थी, तो दोनों में शर्तें किस भाषा में तय हुईं?” अध्यापक सन्न रह गए और उन्होंने उनका नाम रजिस्टर में दर्ज कर लिया.

इसके बाद हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा.

फिर उन्होंने अपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आने के किस्से बयान किए. वह स्नातक करने के बाद बीएचयू न जाकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय आ गए, जबकि वहां के अधिकतर छात्र बीएचयू चले जाते थे. यहां आने के कारणों में से एक उन्होंने अपने जन्मस्थान का यहां होना बताया. उन्हें प्रवेश दिलाने में हिंदी साहित्य सम्मेलन के तत्कालीन सचिव का महत्वपूर्ण साथ रहा.

पहली बार जब वह प्रवेश के लिए गए तो संस्कृत में आवेदन कर आए. सचिव ने पूछा — “किस विषय में आवेदन किया?” उन्होंने बताया — “संस्कृत में.”

सचिव ने कहा — “जाओ, हिंदी में आवेदन करके आओ.” उन्होंने कहा — “अब तो पैसे नहीं हैं.” तो सचिव ने उन्हें पांच रुपये थमाए और कहा —

“जाओ, हिंदी में आवेदन करके आओ क्योंकि तुम्हारा संस्कृत में प्रवेश हो पाएगा नहीं. अभी जो विभागाध्यक्ष हैं, वह तुम्हें कत्तई प्रवेश नहीं देंगे.”

उन्होंने कहा कि — “नाम नहीं बताऊंगा उनका.” तो हेरम्ब चतुर्वेदी सर ने हंसते हुए कहा — “अरे सर, बता दीजिए.”

इसके बाद वे ग़ालिब के लेखन की तरफ आए और उनकी ग़ज़लों को राजनीतिक व्याख्या करते हुए कुछ कठिन शेर पढ़े और उनकी व्याख्या की.

जिस बेबाकी और साफगोई से वह बोल रहे थे, उसे देखकर मन की तरंगें लहराने लगीं. मुझे उनका बार-बार कुर्ते की बांह को मरोड़कर ऊपर खींचना बहुत अच्छा लग रहा था — जैसे कोई पहलवान कह रहा हो, “आओ, हिम्मत हो तो लड़ो.”

पुरस्कार के संबंध में भी उन्होंने अपने मंतव्यों को रखा. उन्होंने कहा कि —

“पहले तो सरकारी संस्थाएं पुरस्कार देती थीं, लेकिन अब तो सरकार तय करने लगी है कि किसे पुरस्कार देना है.” साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल भी उनके वक्तव्य में इस रूप में आया कि —

“अगर इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग मुझे व्याख्यान के लिए बुलाए, तो पहले वीसी को बताना पड़ेगा, वीसी को ऊपर बताना पड़ेगा और ऊपर से मेरे नाम पर कट ही मिलेगा.”

वह हर बात को ऐसे लहज़े में कह रहे थे कि वह व्यंग्य में परिवर्तित हो जा रहा था, जिसके कारण दर्शक तालियां बजाते हुए हँसने को मजबूर हो जा रहे थे.

उन्होंने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि अंग्रेज इस मामले में सफल रहे कि उन्होंने हमें यह बता दिया कि — हिंदी हिंदुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमान की.

बात यहां तक तो ठीक है, लेकिन आजादी के पचहत्तर साल होने पर भी हम इस भेद को मिटा नहीं पाए. तो क्या इसके लिए अंग्रेजों को ही दोष दें? कुछ सवाल तो हमें खुद से भी पूछने चाहिए.

इस सवाल का जवाब शायद सत्रह अक्टूबर को हिंदुस्तान एकेडमी में आयोजित व्याख्यान में मिलेगा, जिसमें हिंदी लोकवृत और इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश पर वक्ता के रूप में युवा इतिहासकार शुभनीत कौशिक और इतिहासकार हेरम्ब चतुर्वेदी होंगे.

खैर, अब्दुल बिस्मिल्लाह के ओजस्वी भाषण के बाद धन्यवाद-ज्ञापन बसंत त्रिपाठी ने दिया. और जैसे ही कहा गया कि पीछे चाय-पकौड़े का इंतजाम है — लोग उधर ही टूट पड़े.

एक लड़का, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन कर रहा है, वह एक लड़की से कुछ पूछ रहा था. मैंने पूछ लिया — “हां, क्या कह रहे हैं आप?”

उसने मुझे ऐसे घूरकर देखा जैसे मैं उनके बीच में गले की हड्डी बनकर आ गया होऊं. फिर वह अनिल रंजन भौमिक दा को — “ऐ अंकल, ऐ अंकल, आगे बढ़िए” — कहकर प्लेट का जुगाड़ करने लगा.

मैंने सोचा — क्या मैं किसी को यहां ‘अंकल’ कह सकता हूं? हाँ, मेरी दोस्त को सेंट जोसेफ का एक छोटा सा छात्र जरूर बोल गया कि —

“आंटी जी, पीने का पानी उधर है.”

वह बेचारी शर्माकर हंसने लगी.

मैंने भी न खाने की सोचते हुए मिठाई और कचौड़ी ठूंस ही ली — बाद में बहुत पछताया कि क्यों खा लिया मैंने! इसके बाद सब अपने-अपने काम पर लग गए — अरे वही काम, ग्रुप में गपशप. मुझे तो कोई पूछे भी न. खैर, उनकी भी क्या गलती है जब मैं खुद ही अकेला रहना चाहता हूं.

मैं सीधे निकला और चल दिया कंपनी बाग — बहुत दिनों बाद. फेसबुक खोलते ही अविनाश मिश्र की पोस्ट देखी तो पढ़े बिना रह नहीं पाया. वैसे देखा तो मैंने पहले ही था, पर पढ़ा अब. फिर कमेंट पढ़ने लगा.

मेरी दोस्त भड़क गई — “जब तुम्हें मोबाइल ही चलाना था तो यहां क्यों आए?” “अरे यार, तुम कुछ देर के लिए चुप नहीं रह सकती क्या?” “जाओ, मरो अपनी मोबाइल में.“

मैं उसे कैसे समझाऊं कि बहुत ज़रूरी काम कर रहा हूं. खैर, थोड़ी देर के सन्नाटे के बाद मैंने खुद कहा — “चलो, अब बताओ, क्या बोलना बाकी है?” वह बोली — “जाओ, मुझे बात नहीं करनी है.” मैंने कहा — “अरे यार, ज़रूरी काम कर रहा था.” वह बोली — “हां, तुम कार्पोरेट ऑफिस में जॉब करते हो न?” मैंने कहा — “अरे, ये क्या बात हुई? मैं क्या मोबाइल भी नहीं चला सकता?”

किसी तरह हम आगे बढ़े. तभी मेरी नजर सड़क पर गई — एक घोंघा सड़क पार कर रहा था. मैंने उसकी कुछ तस्वीरें लीं. थोड़ा और आगे बढ़ा तो देखा कि कई घोंघे लोगों के पैरों के नीचे काल-कवलित हो गए हैं.

उफ़्फ़! सड़क पार करने के लिए क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो सकती छोटे कीड़ों और जंतुओं के लिए? इतना सोचने का किसके पास समय है. मैंने उसे उठाकर दूसरी ओर किया और गेट नंबर पाँच की तरफ बढ़ा — तभी मुझे एक ऐसा कीड़ा दिखा जो मेरी स्मृतियों से लुप्त हो चुका था.

उसे हम गांव में ‘भुढ़ुरी’ कहते थे. उसके बाल भुवे की तरह होते हैं; वह शरीर के किसी हिस्से पर अगर रेंग जाए तो खुजली होने लगती है. उसका फोटो मेरी स्मृतियों के लुप्त होते जा रहे दृश्यों को बचाने के लिए ज़रूरी था.

हम बाहर आ गए. रास्ते में “माही” मिल गए — अरे वही महेंद्र सिंह धोनी. नगर निगम ने जो वॉल पेंटिंग कराई है, उसमें एक तरफ बस खिलाड़ियों की पेंटिंग हैं.

मैं पता नहीं क्यों अपनी दोस्त पर गुस्सा हो जाता हूं. उससे कहा कि — “बैटरी रिक्शा से चलते हैं चुंगी.” उसने कहा — “चलते रहो, रास्ते में बात करते हुए चलते हैं.”

मैं बिफर पड़ा — “अभी पता नहीं कितनी बात करनी है. चलो अब पैदल बालसन तक.” वह फिर नाराज़ हो गई मुझसे.

दरअसल, जब भी मेरे दिमाग में कुछ कौंधता है तो मैं पहले तो चुप हो जाता हूं, फिर एकांत खोजने लगता हूं — वही उस समय मेरे साथ हो रहा था.

अब मैं आपको और पीछे ले चलता हूं — ग्यारह अक्टूबर की सुबह. आज आइसा का विश्वविद्यालय ईकाई सम्मेलन होने वाला था. विश्वविद्यालय परिसर में तो इस तरह की कोई जगह रही नहीं. पहले छात्रसंघ भवन का हॉल था — कभी बैठकी के लिए सबसे मुफ़ीद जगहों में से एक हुआ करता था. यहां हमेशा कुछ छात्रनेता और छात्र आपस में बहस करते हुए मिल जाया करते थे. यह जगह विश्वविद्यालय की वह जगह हुआ करती थी, जहां कोई भी आ सकता था — किसी आईकार्ड की जरूरत नहीं होती थी. इधर का मुख्य गेट तो हमेशा खुला ही रहता था.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय

छात्रसंघ भवन के हॉल की महत्ता आप इसी से समझ सकते हैं कि इसका उद्घाटन 8 अगस्त 1939 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत के प्रीमियर (प्रधानमंत्री) गोविंद वल्लभ पंत ने किया था. आप जानकर आश्चर्य करेंगे कि इसका नाम था — “डिबेटिंग हॉल.” जब विश्वविद्यालय में पढ़ने आया, तब तक यह अपनी अवधारणा को चरितार्थ करता रहा. बहुत से भाषण और वक्तव्य यहां लोगों के सुने.

आज जब किसी कार्यक्रम को आयोजित करने के लिए हॉल के किराये का दाम सुनकर पसीने छूट जाते हैं, तब यह आम छात्र को भी एक छोटी सी फीस में आराम से उपलब्ध हो जाता था.

18 सितम्बर 1949 को इस हॉल का नामकरण “शहीद लाल पदमधर” के नाम पर तत्कालीन संयुक्त प्रांत विधानसभा के अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन ने किया. तब से यह हॉल उन्हीं के नाम पर जाना जाता है. इसके चारदीवारी पर खड़े होकर न जाने कितने नेताओं ने दक्षता भाषण दिया है — जो बाद में देश के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री तक बने. कुछ आईएएस भी बने.

दक्षता भाषण के दिन इस जगह की खूबसूरती देखते ही बनती थी. यह जगह नारों से गूंजायमान हो जाती. जब अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद के प्रत्याशी इसकी चारदीवारी पर खड़े होकर भाषण देते, तो एक गज़ब की ऊर्जा का आभास होता था.

मैं तो दिन भर इसी माहौल में रहता था. अब विश्वविद्यालय का सूनापन कचोटता है — कि जो विश्वविद्यालय कभी नारों और बच्चों की किलकारियों से गुलज़ार रहता था, आज वहां एक अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता है.

मैं जहां बैठा हूं, वहां कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वरिष्ठ छात्र नेता बैठे हुए मिल जाया करते थे. पहले तो हमें लगता था कि क्या बेफ़ज़ूल यहां बैठे रहते हैं. आज जब यह जगह सूनी है, तब मुझे उनकी उपस्थिति की महत्ता याद आती है. मेरे सामने ही पदमधर जी की मूर्ति है — जिनके नाम के साथ ही किसी छात्र नेता के भाषण की शुरुआत होती थी —

“शहीद लाल पदमधर अमर रहें!”

आप शहीद पदमधर के बारें में जानते हैं?

रीवा से पढ़ाई के लिए प्रयागराज गए लाल पद्मधर सिंह ने आजादी के आंदोलन से छात्रों को जोड़ा. 12 अगस्त 1942 को इलाहाबाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों की रैली लेकर वह जा रहे थे. उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी थी कि इलाहाबाद की जिला कचहरी (कलेक्ट्रेट) में तिरंगा झंडा फहराएंगे. उनके साथ बड़ी संख्या में छात्र सड़कों पर उमड़ पड़े थे.

वह आगे बढ़ ही रहे थे कि इसी दौरान बीच रास्ते में अंग्रेज पुलिस ने रोक लिया. वापस जाने के लिए कहा गया, लेकिन वह पीछे जाने को तैयार नहीं थे. अंग्रेजों की पुलिस ने ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी. पहले उन्होंने साथ में गए छात्रों की जान बचाने के लिए सभी को लेट जाने के लिए कहा.

उस दौरान नयनतारा सहगल (पंडित नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित की पुत्री) के हाथ में बड़ा तिरंगा था. उनकी ओर बंदूक तानी गई तो नयनतारा को बचाने के लिए पद्मधर सिंह ने तिरंगा हाथ में लिया और उन्हें लेट जाने को कहा तथा आगे बढ़ने लगे. इसी बीच उन्हें भी गोली लगी और वे गिर पड़े.

इस दौरान उन्होंने झंडे को नीचे नहीं गिरने दिया. उनकी शहादत के बाद दूसरे छात्रों ने झंडा थामा और ऐसी शहादत के बाद आक्रोश और भड़क उठा. कई दिनों तक विश्वविद्यालय के छात्र शहर की सड़कों पर प्रदर्शन करते रहे. इसका असर देश के दूसरे विश्वविद्यालयों और कॉलेजों तक भी पहुंचा और देश में नया छात्र आंदोलन खड़ा हो गया.

नारा सुने न जाने कितना अरसा गुजर गया. यह नारा सभी विचारधाराओं के लिए एक समान था.

मुझे क्रांतिकारी शायर दुष्यंत कुमार की वो पंक्तियां याद आ रही हैं, जिन्हें आमतौर पर छात्र नेता अपने भाषणों में प्रयोग करते थे —

“हो गई है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए. सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए.”

इसके आगे की पंक्तियां भी वह प्रयोग करते. शुरूआत में मुझे लगता था — वाह, क्या पंक्ति लिखी है छात्र नेता ने! बाद में मुझे पता चला कि ये पंक्तियां दुष्यंत कुमार की हैं. इस तरह दुष्यंत कुमार अपनी पंक्तियों के साथ सत्ता के खिलाफ बोलते हुए मिल जाया करते थे. अब तो इन पंक्तियों को कोई पढ़ने वाला भी मिल जाए तो बड़ी बात है. मुझे पता नहीं क्यों यह ग़ज़ल किसी भी क्रांतिकारी शायर की ग़ज़ल के बरक्स बड़ी दिखाई देती है. इसे किसी परिधीय गांव के परिधीय लोगों के बीच भी पढ़ा जाए तो वे उसके मानी को समझ सकते हैं — उनसे जुड़ सकते हैं.

वहीं दूसरी तरफ जिन्हें बड़ा क्रांतिकारी शायर माना जाता है — मुझे वे फलसफों में बड़े तो लगते हैं, लेकिन आम जन के लिए उनका कोई मतलब नहीं निकलता. हां, उन्हें विद्वानों के बीच जरूर पढ़ा और सराहा जा सकता है, लेकिन किसी मजदूर के लिए उसका अर्थ समझ पाना बड़ा ही मुश्किल है.

वहीं दुष्यंत कुमार किसी मजदूर या किसान के लिए भी उतने ही सरल हैं जितने किसी विद्वान के लिए.

छात्रसंघ भवन के पीछे की जगह आराम के क्षणों में बैठने की बहुत बढ़िया जगह हुआ करती थी. वहां कोई वर्कशॉप कर रहा होता, तो कोई गीत-संगीत गा रहा होता था. वहां हमने भी बहुत बैठकी की. अब वहां कोई पूछने भी नहीं जाता.

छात्रसंघ भवन सिर्फ एक ईंटों की इमारत नहीं है — वह इंकलाब का भी प्रतीक है, जिसकी लौ में अभी तेल नहीं है.

आइसा विश्वविद्यालय इकाई के उद्घाटन सत्र में कवि मृत्युंजय और हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय में हुए छात्रसंघ चुनाव में आइसा की उम्मीदवार रहीं अंजली के भाषण सुने. कवि डॉ. मृत्युंजय ने अपनी बात रखते हुए कहा कि — “देश में हिंसक संस्कृति का निर्माण किया जा रहा है. झूठ परोसकर भ्रामक चेतना का निर्माण किया जा रहा है. और यह सब देश में हो रही लूट के खिलाफ एकजुटता न बनने देने के लिए किया जा रहा है. इसके खिलाफ छात्र-युवा इस लड़ाई को लड़कर अपना अधिकार और बेहतर समाज का सपना हासिल करेंगे.”

मैं उसके बाद वहां से विश्वविद्यालय की संगोष्ठी में आया. प्रणय कृष्ण और रामजी राय को सुनने के बाद मैं ‘मैनेजर पांडेय’ की स्मृति में हो रहे दो-दिवसीय स्मरण दिवस के उद्घाटन सत्र में शामिल होने के लिए हिंदुस्तान एकेडमी चला गया.

अवधेश प्रधान ने महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया, जिसे आगे कई वक्ताओं ने समृद्ध किया. इसमें रामजी राय का दिया गया संबोधन विशेष रूप से महत्वपूर्ण था.

इसके बाद उसी परिसर में प्रवीण शेखर निर्देशित नाटक ‘पक्षी और दीमक’ का मंचन हुआ — जो मुक्तिबोध की इसी शीर्षक कहानी के एक छोटे से हिस्से पर आधारित था. रंग और रूप-सज्जा से नाटक बिल्कुल जीवंत हो गया. इसका कारण उसका खुला परिवेश था, जहां सबकुछ वास्तविक था. अमरूद के पेड़ की डालियां एक वास्तविक संसार सृजित कर रही थीं.

अब मैं रोज़ विश्वविद्यालय या शहर की तरफ़ आते-आते थक गया था. बारह की तारीख बस कमरे पर सोए ही गुजर गई. तेरह को फिर विश्वविद्यालय की संगोष्ठी में पहुंचा. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजभाषा अनुभाग ने हिंदी साहित्य के छह साहित्यकार — डॉ. रघुवंश, जगदीश गुप्त, मोहन राकेश, कृष्णा सोबती, श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत — का जन्म शताब्दी वर्ष मनाते हुए उन्हें स्मरण किया. इसमें देश के कई आलोचक, नाटककर्मी, शोधार्थी और छात्र प्रतिभागी थे.

अब तो मैं यहां यह बताकर कत्तई नहीं बोर करूंगा कि वहां कौन क्या बोला. वैसे भी, पाँच दिनों की संगोष्ठी में जो कुछ हुआ उसे याद रखना मुश्किल है.

जब हम दो मिनट पहले कौन-सी रील देखी थी यह दूसरे मिनट भूल जाते हैं, तो पाँच दिन में क्या बोला गया — वह कहाँ याद रहने वाला है. फिर भी, मैं कुछ-कुछ बता देता हूं, आप ज़्यादा-से-ज़्यादा समझ ही जाइएगा.

संगोष्ठी के देश-विदेश में पहले दिन काशी ही हावी था. उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संगठक कॉलेज थे. बाकी वक्ता देश के विभिन्न शहरों से आए थे.

एक सत्र में बैठा तो सोचा — “सुनते हैं कि क्या बोला जा रहा है.” एक वक्ता की बातें सुनकर लगा कि मुझे भी कुछ न कुछ बोलना ही चाहिए.

उन्होंने कहा — “देखिए, मैं कोई कहानी-कविता पर बोलने नहीं आया हूं, लेकिन स्मरण ही करना है, तो मैंने न्योता स्वीकार कर लिया.”

मैंने सोचा — कितना बढ़िया है न यह कह देना कि “मैं तो बस यूं ही हाथ झुलाते हुए चला आया.”

फिर भी यह संगोष्ठी बहुत महत्वपूर्ण थी. यहां के अनुभव के आधार पर मैं यह कह रहा हूं कि हिंदी आलोचना का सबसे ख़राब दौर आना अभी बाकी है.

आलोचना अभी कहीं बची है तो वह वरिष्ठ या सेवानिवृत्त हो चुके विद्वानों के पास ही है.

विजय बहादुर सिंह ने मोहन राकेश के ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक के माध्यम से लेखक के सत्ता संबंधों पर बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं. प्रणय कृष्ण, रामजी राय, संतोष भदौरिया, अखिलेश, अजय जेटली, श्रीप्रकाश शुक्ल, प्रभाकर सिंह, विनोद तिवारी, मुश्ताक अली — सभी ने महत्वपूर्ण आलोचकीय वक्तव्य दिए. लेकिन युवा आलोचकों ने निराश किया. वे सिर्फ लेखन की सतही व्याख्या कर रहे थे — जिसे देखकर मुझे निराशा हुई. उन्हें गुरुओं की गुरुअई करने की जगह थोड़ा अध्ययन करना चाहिए.

मैंने देखा कि सभी युवा वक्ता एक ही डाली पकड़-पकड़ कर झूल रहे हैं — कोई दूसरी डाली पकड़ना ही नहीं चाहता. मैं भी क्या विद्वानों जैसी बातें करने लगा! अरे छोड़िए, मैं आपको स्वप्न लोक की दुनिया में लेकर चलता हूं.

उसके लिए नींद में जाना जरूरी था — तो मैंने सोचा, अब एक नींद लेना तो बनता है. अब जो मैं कहने जा रहा हूं वह देखा हुआ एक सपना है. इसका किसी व्यक्ति, संस्था, धर्म या विचार से कोई लेना-देना नहीं है.

मैंने सपना देखा कि भाई लोग पता नहीं कैसे युवा आलोचक कहानियों को उधेड़-उधेड़ कर ऐसी-ऐसी व्याख्या कर रहे थे कि अगर कहानीकार खुद बैठा होता, तो उन पर भी एक कहानी लिख देता, जिसकी शुरुआत वह करता — “अमा, मैंने लिखते समय भी नहीं सोचा था. मेरी कहानी की इतनी दुर्दशा मुझसे नहीं देखी जा रही है.मुझे न ही याद करते तो क्या मैं मर जाता!”

खैर, छोड़ो भी इन फालतू बातों को. अब हम अपना ध्यान वहां केंद्रित करते हैं जहां होना चाहिए. कहां होना चाहिए? अरे भाई — पंडाल की तरफ, जहां खाना मिलेगा.

“लेकिन साले, तुम खाओगे कैसे?” “मतलब?” “मतलब कि तुम्हारे पास टोकन है?”
“भक्क, भों…ड़ी के! खाना खाने के लिए टोकन थोड़े न चाहिए.” “फिर क्या चाहिए, बताओ तो गुरु?”

“अमा यार, देखो, तुम मुझे… मैं दिखाता हूं तुम्हें अपना जुगाड़.” “क्या करोगे तुम?” “कुछ नहीं करूंगा, बस जाऊंगा किसी से प्लेट मांग लूंगा जो खाकर रखने जा रहा हो.” “अबे साले, तुम्हें किसी का जूठा खाते हुए शर्म नहीं आएगी?” “भों..ड़ी के, तुम वो अमनवा का जूठा मुंह में भकोसे पड़े हो और हमें ज्ञान पेल रहे हो कि झूठा न खाओ?” “मतलब, तुम कहना क्या चाहते हो?”
“अबे भों..ड़ी के, दिमाग नहीं है क्या तुम्हारे पास? अरे ऊ शिलवा त पहले अमनवै से न पटी थी ना. फिर तुम उसे पटा लिए. अब वो हुई न जूठी.” “साले, तुम्हारा दिमाग खराब है. कहां की बात कहां घुसा रहे हो?”

“चल हट, ज्यादा न बोल. थाली का जुगाड़ करने दे.”

“दीदी, नमस्ते!” “कौन हैं आप?” “अरे दीदी, आपका जूनियर हूं.” “अच्छा, मैंने तो नहीं देखा तुम्हें कभी?” “मैं आपको रोज़ देखता हूं.” “मतलब?” “अरे, आप कवि हैं ना, तो आपको पढ़ता हूं.” “अच्छा बताओ मेरी किसी कविता का शीर्षक?” “वो शीर्षक तो नहीं याद है लेकिन एक कविता जरूर याद है, जिसमें आप प्रेम को ठगी बता रही हैं और कह रही हैं कि हमें प्रेम करना बंद करना होगा, तब इन मुर्खों को प्रेम का मतलब पता चलेगा.” “अरे मैं तो न लिखी ऐसी कोई कविता. कहां पढ़ लिए भाई तुम?” “अरे दीदी, वो पत्रिका में………” “किस पत्रिका में?” “नाम नहीं याद आ रहा है.” “चलो, हिंदी की किसी एक पत्रिका का नाम बता दो?” “क्या दीदी इतना छोटा सवाल? कुरूक्षेत्र.” “शाबाश बेटा, उसमें कैसी कविताएं छपती हैं?” “बहुत अच्छी दीदी, बहुत अच्छी.”

“बेटा कुरुक्षेत्र मैं भी पढ़ती हूँ. तो बकलोल न समझना मुझे.“

“अरे दीदी गलती हों गई.“ “हां तो चलो बताओ, क्या काम है?” “ज्यादा कुछ नहीं दीदी, बस आपकी थाली चाहिए थी. वो क्या है न कि हमारे पास थाली नहीं है.” “तुम्हें मेरी जूठी थाली चाहिए?”
“हां दीदी, दे दीजिए.” “तो सीधे बोलना था न बेवकूफ. मैं दे देती. यह क्या दुनिया भर की बकैती कर रहा है. मैं कविता नहीं लिखती गधे. ले ले जा थाली. और हां आगे से ऐसे मत बेवकूफ बनाना किसी को. कुछ लड़कियां चप्पल पहनकर चलती हैं.”

“देखो साले, हो गया न जुगाड़. चलो माना कि आज तो हो गया, लेकिन कल से क्या करेंगे?”
“हां यार, कल से तो खाने के लिए लाले पड़ जाएंगे.”

अबे जानते हो, जब मैं विश्वविद्यालय में आया था, तब क्या दिन थे! छात्रसंघ के चुनाव में महीनों खाना फ्री में मिलता था, वो भी वैरायटी में — अलग-अलग. अध्यक्ष पद के प्रत्याशियों में होड़ लगी रहती थी कि किसके यहां खाना बढ़िया बनेगा. फिर हम वैरायटी के आधार पर तय करते थे कि खाना किसके यहां खाना है.

क्या दिन थे यार! न खाने की दिक्कत, न घूमने की. किसी के काफिले में शामिल हो जाओ और घूम लो पूरा शहर. हुड़दंग मचाने का मौका अलग से मिल जाता था. डेलीगेसी और छात्रावास का भेदभाव मिट जाता था.

महामंत्री के प्रत्याशियों की तो पूछो मत. महामंत्री मतलब ही मठाधीश होता था — जो मठाधीशी कर सके, वही महामंत्री पद का उम्मीदवार होता था.

“चुप बे भों..ड़ी वाले! जिया(परिवर्तित नाम) कौन-सी मठाधीश थी?” “साले, तुम्हें क्या पता? मठाधीशी सिर्फ मूंछों पर ताव देने से नहीं आती. अरे, वह तो सुंदरता से भी आ सकती है. देखा नहीं था, कितनी सुंदर थी? तभी दो हजार वोट पा गई थी. नहीं तो असली लड़ाई तो समाजवादी छात्र सभा और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में ही होती थी. लेकिन बीच में आइसा की जिया आ गई और बाजी पलट गई.” “तुमको क्या लगता था कि एस.एफ.आई. कमजोर थी?”
“बेटा, कमजोर तो एस.एफ.आई. भी नहीं थी. याद है सांस्कृतिक सचिव के पद पर वो लौंडा… क्या नाम है उसका?” “अरे वही जो कला-वला बनाता था, शिवम मौर्य.” “हां, शिवम! पंद्रह सौ से ज्यादा वोट पाया था सांस्कृतिक सचिव पद पर. अगले सालों में इनका रुतबा बढ़ने वाला था. लेकिन साला, बताओ — जज की बिटिया की शादी में छेड़छाड़ करने की क्या जरूरत थी?”
“अरे, खाना तो खा ही रहे थे रोज. उस दिन भी खाते और शांति से चले आते. किसने कहा था कि लड़की छेड़ो?” “तुम्हें क्या लगता है कि उसी दिन ही लड़की छेड़ी थी? अरे, वह तो पहले भी छेड़ते थे. बस शादी किसी जज की नहीं पड़ी थी, वो भी उच्च न्यायालय की जज की. बेटा, उस बार दांव उल्टा पड़ गया था. पहले तो मारकर आ गए, लेकिन रात में जो पुलिस की रेड पड़ी, सब कूट दिए गए.”

“याद है वो भोला-भाला लड़का, जिसे लगता था कि मैं लीगल छात्र हूं, मैं क्यों भागूं? बेचारे को कितना पीटा था पुलिसवालों ने और ऊपर से जेल भी भेज दिया.” “मैं कहते-कहते रह गया कि भाई, भाग—लीगल-ऊगल कुछ नहीं होता — लेकिन वह ठस्स पड़ा रहा. दस दिन बाद जमानत पर बाहर आया. उसके बाद से छात्रावासों पर काले बादल मंडराने लगे.”

यही थी वह दरार, जिससे छात्रसंघ के टूटने की शुरुआत हुई. अगले दिन प्रशासन हरकत में आया और छात्रावास वॉशआउट का फरमान जारी कर दिया. सभी छात्रों ने पुरजोर विरोध किया कि यह छात्रावास की संस्कृति और परंपराओं पर हमला है.

“इसे हम नहीं सहेंगे!” फिर क्या — बिगुल बजा और शुरू हो गया छात्रसंघ पर धरना-प्रदर्शन. छात्रसंघ ने बागडोर संभाली. अगले दिन से गांधीवादी तरीके से प्रदर्शन होने लगे.

सभी बड़े मठाधीश छात्रनेता भाषण देने आते और इस तरह दिन गुजर जाता. कुछ छात्रों ने तो आमरण अनशन शुरू कर दिया. बीच में कुछ को भूख बर्दाश्त नहीं होती, तो वे रात में कुछ अल्पाहार कर लेते. इस तरह छात्रसंघ गुलजार रहने लगा.

चूंकि लड़कियों के छात्रावास का भी वॉशआउट होना था, इसलिए वे भी कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ रहीं थीं. यह मौका विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार आया था. एक दिन तय हुआ कि लल्ला चुंगी से सुभाष चौराहे तक कैंडल मार्च निकलेगा. भाई, क्या गज़ब की एकता थी! लल्ला चुंगी से आजाद पार्क तक बस लाइन ही लाइन.

नारे लगाने में मजा आ रहा था, पर गालियां देने में और भी मजा. हर हास्टल अपनी तरफ से नारे लगाता — फलाने हास्टल की घोषणा — “वीसी की…!”

शहर तमाशबीनों की तरह खड़ा होकर हमें देखता और कोसता — “इ साले पढ़ै न आवो ह, इ त गुंडई करत ह बस. ठीक करत ह वीसिया.”

कुछ दिन ‘ऐंडल-कैंडल’ चला, लेकिन वीसी के कान में जूं तक नहीं रेंगी. अचानक एक दिन शोर उठा और सब कुछ स्वाहा होने लगा. कहीं सीटी बस फूंक दी गई, तो कहीं प्रोफेसरों की गाड़ियां… जगह-जगह बम चलने लगे जैसे दीपावली आ गई हो.

फिर क्रिया पर पुलिस-प्रशासन ने प्रतिक्रिया दी और छात्रावासों में घुसकर घमासान मचा दिया. लड़के  नहीं मिले तो, उनके कूलर तोड़ दिए गए. जिनके पास कूलर नहीं था, उनके बदले गाड़ी का शीशा फोड़ दिया गया. जिसका कमरा खुला था, वह सब धूल-धूसरित हो गया.

अब एक गोरिल्ला युद्ध शुरू हुआ. लड़के चोरी-छिपे इकट्ठा होते और छात्रसंघ पर धरना-प्रदर्शन व भाषणबाजी शुरू कर देते. फिर पुलिस आती — सबको गिरफ्तार करती और शाम को छोड़ देती.

लेकिन रात में पड़ने वाली रेड ने हमारी आँखों की लालियाँ बढ़ा दीं. रात भर पहरा दिया जाता; सुबह सब लोग सोने जाते. पैरों में हमेशा जूता पहनने का सख्त आदेश था. मैं कभी-कभी सो लेता मैदान में, घास पर लेटकर. पता था — पुलिस घास छीलने तो इधर नहीं आएगी.

जो बचा-खुचा था, उसका सत्यानाश अगले छात्रसंघ चुनाव में हो गया. परिणाम आया तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद अध्यक्ष पद पर हार गई और समाजवादी छात्र सभा जीत गई. दोनों प्रत्याशी एक ही हास्टल के एक ही विंग में रहते थे.

परिणाम आते ही अध्यक्ष का कमरा धू-धू कर जलने लगा. विश्वविद्यालय प्रशासन को एक शानदार मौका मिला और उसने धीरे-धीरे छात्रसंघ को हटाकर ‘छात्र परिषद’ लागू कर दिया — जिसका कोई मतलब नहीं था.

इस तरह हमारे खाने का सुख हमसे वीसी ने छीन लिया. कई सालों बाद लगातार चार दिन विश्वविद्यालय में खाने का मौका बना था. हां तो, एक ही थाली में दोनों ने जमकर खाया.

फिर नाटक देखने के लिए रुके — ना-ना, नाटक देखने के लिए नहीं — वो तो उस रील्स वाली लड़की जिसका इंस्टाग्राम यूजरनेम ‘संगम की छोरी’ है, उसको देखने के लिए रुके, जो प्रेमचंद की कहानी ‘अलग्योझा’ में बहू का किरदार निभा रही थी.

दोनों बालकनी के पास खड़े होकर देखने लगे क्योंकि नीचे सब कुछ खचाखच भरा हुआ था. इतने लोगों को देखकर उसने मान लिया था कि यहां नाटक नहीं, नौटंकी होने जा रही है.

जैसे ही शुरुआत में एक लड़की ने मंच पर पदार्पण किया, पूरा हाल चीखों और उत्तेजना से भर उठा. बगल में बैठे छात्रों का झुंड बेहद उत्साहित था. उसने आते ही अपने मित्र को बुलाया — “अरे भों..ड़ी के, इहां आ! यहाँ से बढ़िया दिखाई दे रहा है. अरे वो वाली देखो, क़ंटास लग रही है. जब वो बोलेगी तो हल्ला करना है.”

जैसे ही उसने डायलॉग बोला, एक शोर उठा. बीच में से किसी ने कहा — “जियो राजा, तू त देहाती रसगुल्ला लागत हउ.” “चुप साले, किसी ने सुन लिया तो!”

जैसे ही बहू आई, दर्शकों की तो लॉटरी लग गई. आते ही कोई हल्ला कर रहा है, कोई सीटी मार रहा है, कोई किसी लड़की के कान में चिल्ला रहा है. और कुछ तो किरदार से आगे बढ़कर पहले ही किरदारों के डायलॉग बोल रहे थे.

बहू रानी की एक्टिंग देखकर लगा कि कहीं वह दर्शकों को ‘रीलर्स’ का समूह तो नहीं मान बैठी थी. पल्लू लहरा-लहराकर दर्शकों को लहालोट करने में जो सुख उसे मिल रहा था, उसका कोई जवाब नहीं. वह बहू कम, मॉडल ज्यादा लग रही थी.

लड़के भी तो उसके दीवाने! हर स्टेप पर हल्ला और सीटी. नाटक पूरी तरह नौटंकी में बदल चुका था — बस एक जोकर की कमी बाकी रह गई थी. जैसे ही लड़कियां मंच पर आतीं, फब्तियां कसना शुरू हो जाता. सोचो, ये लड़के कितना ‘सम्मान’ करते होंगे जब किसी लड़की को राह चलते या अकेले बैठे पाते होंगे — “बहुत सम्मान करते हैं भाई.” “तुम्हें ज्यादा पता है. साले खुद यही करते हो और ज्ञान दे रहे हो हमें.” “चल हट.” “मैं तो भई उस रीलर्स लड़की को देखने आया हूं. बवाल लगती है यार. देखो तो कैसे चमक रही है.” “तो मैं यहां नाटक देखने आया हूं?”
“अरे नहीं भाई गुस्सा क्यों हो रहे हो. दोनों भाई मिलकर देखते हैं.” “वीडियो बनाओं वीडियो.”
“भक्क भों..ड़ी के रोज तो रील्स बनाती है. वीडियो क्या बनाओगे. बस सौन्दर्य का रसपान करो बस.”

रघु का दर्द और उसकी मां की ममता गई भाड़ में. दर्शकों को चाहिए बस फुल मज़ा — वो भी, लल्लनटाप!

इतने गंभीर और मार्मिक नाटक को “द कपिल शर्मा शो” बना दिया. रघु मर गया और दर्शक हँस रहे हैं. वो भी ठीक है — कौन-सा रघु सही में मर गया जो उसके लिए मातम मनाए? मज़ा तो बस ग़म में आया है.

कितनी झूठी बात है — मज़ा तो यहाँ था, यहाँ! हर कोई मज़ा लेना चाहता था. एक बैठा हुआ लड़का दाद दे रहा था — “जिया करेजा, तू त जान ले लेबू.” बगल वाला बोला — “भक्क, भों..ड़ी के! जान दे दोगे और उस दिन चाय के दस रुपए देने में तुम्हारी नानी मरी जा रही थी!”

सीटी… सीटी… सीटी… सीटी…

ऊपर बैठकर प्रेमचंद गालियाँ पर गालियाँ दे रहे थे — “इसी दिन के लिए कहानी लिखी थी क्या कि तुम लोग उसे नौटंकी बना दोगे? अरे कुछ तो लाज़-शर्म कर लो, भों..ड़ी वालों! बहुत मार्मिक लिखा है मैंने… और वो बहू, तू तो ओवरएक्टिंग न कर. और हां यह तेरा रील्स शूट नहीं हो रहा है जो तू मटक-मटककर चल रही है. तेरे होठों पर तो अभी ध्यान गया. मैंने जिस बहू को गढ़ा है उसने लिपस्टिक का नाम भी नहीं सुना था. तुम तो लग रहा है कि सीधे पार्लर से आ रही हो. और हां यह बच्ची को बुआ किसने बना दिया. अरे गदहों वो शादीशुदा है. कुछ तो उसकी उम्र का ख्याल करो. और हां दोनों को समझाओ कि अभिनय और रील्स में अंतर होता है. जो वह मंच पर कर रही थीं, उनसे बोलना कि यह रील्स बनाते हुए कर ले — यहाँ अभिनय करो! प्रेमचंद चिल्लाएं— “बंद करो यह नंगा नाच मेरे नाम पर.”

नौटंकी समाप्त हुई.

प्रेमचंद दर्शकों की तरफ मुखातिब होते हैं और कहते हैं — अरे वो आशिक बाज, गलाफाड़ और सीटीबाज दर्शकों! तुम्हें नौटंकी और नाटक में कोई फर्क भी पता है? ग़ालिब ने तुम्हारे लिए ही लिखा था —

काबा किस मुंह से जाओगे ‘ग़ालिब’ शर्म तुमको मगर नहीं आती.

“चुप्प भों..ड़ी के! कौन बोला रे?” एक आवाज़ गूँजी. इससे पहले कि वे प्रेमचंद को पकड़कर नौटंकी का जोकर बना देते, प्रेमचंद धोती उठाकर सरपट भागे.

तभी किसी ने आकर झकझोर दिया — गोविंद! गोविंद! गोविंद! उठ भो..ड़ी के. मैं हड़बड़ा कर उठा तो देखता हूं कि सब लोग चले गए हैं. मैं कुत्ते की नींद नहीं बल्कि घोड़े बेचकर सो रहा था.

गोविंद निषाद  जी बी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के शोध छात्र हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ, कहानियाँ, संस्मरण, लेख, समीक्षा-लेख और शोध-आलेख प्रकाशित हो चुके हैं।  संपर्क : 9140730916, पता: 113 बसंत विहार, योजना  3, झूंसी, इलाहाबाद  211019

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