कथा

अजगर : ज्ञान चंद बागड़ी

ज्ञान चन्द बागड़ी प्रसिद्ध मानव-शास्त्री और लेखक हैं, वे विगत 32 वर्षों से मानव-शास्त्र और समाजशास्त्र के अध्ययन और अध्यापन में संलग्न रहे हैं। उपन्यास, कहानी, यात्रा-वृतांत, संस्मरण और कथेतर लेखन के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन। वाणी प्रकाशन, दिल्ली से “आखिरी गाँव” उपन्यास प्रकाशित। सेतु प्रकाशन से “दिल्ली दयार” (उपन्यास), रे माधव आर्ट से “बातन के ठाठ” (कहानी संग्रह), दशनामी नागा और रेवड़वाली और अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह) प्रकाशित। आधार प्रकाशन से “सफ़र में धूप तो होगी” (यात्रा वृतांत) और संस्मरण “जो सम्भव हुआ” (संस्मरण) प्रकाशित। जनजातीय  समाज, सूफ़ी दर्शन और खेलों के मानव-शास्त्र पर विभिन्न पत्रिकाओं में शृंखलाबद्ध लेखन।

घास के नुकीले सिरों पर ओस की बूंदें सुबह की पहली किरन के इंतज़ार में थीं। लॉन के किनारे लगे गुलमोहर ने अबकी बार ज्यादा ही फूल गिरा दिए थे, मानो किसी थके हुए प्रोफेसर ने सारे कागज़ फेंक दिए हों। वहीं, लॉन के एक कोने में – ढीली कुर्सियों पर पीठ टिकाए – हम शोधार्थियों की मंडली जुटी थी। हवा में चाय की गंध थी, बातचीत में विश्वविद्यालय की वही पुरानी सड़ांध।

यूनिवर्सिटी का लॉन अकसर गपबाज़ शोधार्थियों से भरा रहता था। गाइडों की चुगलियाँ, कॉमिक चुटकुले और रिसर्च के बीच की राजनीति — यह हमारी रोज़मर्रा थी।

“और सुनाओ डॉक्टर अमन, कल आप तो ऐसे टट्टू बने लौट रहे थे जैसे अपने प्रोफेसर के लिए सब्ज़ी मंडी से महीने भर का राशन उठा लाए हो!”

हंसी उठी, जैसे झाड़ियों में बैठे परिंदे एक साथ उड़ जाएं।

“आप भी कुछ कम नहीं”, अमन ने जबाब दिया, “दूध की थैलियों से लदे दिखे थे… बताओ, खीर तो मिली या सारा दूध वहीं बह गया?”

“सच तो यह है,” जे. पी. भाई बोले, “हम सब शोधार्थी नहीं, इन विभागाध्यक्षों के अस्थायी नौकर हैं—एक कॉल पर तैयार, एक चाय पर बंधे।”

“आप तो फिर भी खुशकिस्मत हो जे. पी. भाई!” राकेश ने हँसते हुए कहा, “आपका गाइड तो संत है, न घर बुलाता है, न काम करवाता है। और मेरा हाल पूछो तो अब तो कैंटीन में भी किस्से बन रहे हैं।”

“कौन सा किस्सा राकेश भाई?” एक साथी उत्सुकता से बोला।

राकेश ने एक सांस ली और अभिनय भाव से कहा– “कहते हैं यूनिवर्सिटी के तीन नम्बर गेट के पास एक सांप लेटा था। तभी मैं उधर से गुज़रा। सांप फुफकारा—‘काट लूं तुझे।’ मैं बोला—‘क्यों काटते हो भाई, मैं तो पहले ही मर-मर के जी रहा हूं। मेरा गाइड मुझे दूध-सब्ज़ी ढोने में लगाता है, फेलोशिप के पैसों से चाय- पानी, मिठाई निकलवाता है। ऊपर से पूछता है—शोध फंड से मुझे क्या मिला?’

सांप ने मुझे देखा, लंबी सांस ली और कहा—‘जा बेटा, तू तो पहले ही डसा हुआ है।’

“फिर?” किसी ने हँसी दबाते पूछा।

“फिर, थोड़ी देर बाद मेरा प्रोफेसर उधर से गुज़रा। सांप फुफकारा—‘अब तुझे डसूंगा।’ प्रोफेसर गुर्राया—‘जानता भी है मैं कौन हूं? दुनिया की नामी यूनिवर्सिटियां बुलाती हैं, सैकड़ों शोधपत्र छप चुके हैं मेरे।’

सांप बोला—‘तुम कहीं राकेश के गाइड तो नहीं?’

‘हां,’ प्रोफेसर मुस्कुराया, ‘बहुत प्रतिभाशाली छात्र है वो मेरा।’

इतना सुनना था कि सांप ने उन्हें डस लिया…… और डसते ही सांप खुद मर गया।”

लॉन में ठहाके गूंजे, लेकिन इन ठहाकों की जड़ में कोई कांटा चुभा रह गया था। हर बार हँसी के बाद कुछ देर की चुप्पी छा जाती थी—जैसे सब जानते थे कि यह चुटकुला जितना मज़ाकिया था, उतना ही सच था। इस विश्वविद्यालय में सत्ता की दीवारें किताबों की अलमारियों से ऊंची थीं और वहां लिपटे थे कुछ ऐसे अजगर, जिनकी आंखें ज्ञान से नहीं, भूख से चमकती थीं।

लेकिन वह ठहाकों से भरा लॉन, रश्मि की कहानी का मंच नहीं था। उसके जीवन में, जो चुप्पी रिसर्च के नाम पर भर दी गई थी, वह किसी चुटकुले की पैरोडी नहीं थी। उस पर तो एक अजगर बैठा था — असली, थका देने वाला और जीवित।

रश्मि की पहली झलक अब भी मेरे भीतर किसी उजली सुबह की तरह दर्ज है—जैसे खिड़की से अचानक कोई सुनहरा धूप का टुकड़ा भीतर गिर पड़े। वह तेजस्विता से भरी थी—न केवल रूप में, बल्कि अपनी बुद्धिमत्ता और आभा में भी।

वह चलती तो उसके पीछे किताबों की महक चलती थी। हर क्लास में सबसे पहले उत्तर देने वाली, हर नोटिस बोर्ड पर अव्वल स्थान पर उसका नाम। जिन दीवारों पर उसने अपने हाथ रखे थे, वहां दीमक नहीं चढ़ती थी—ऐसा मानना था हम सबका।

जब उसने शोधकार्य के लिए सूक्ष्मजीव विज्ञान के अपने विषय का चुनाव किया और मार्गदर्शक के रूप में प्रोफेसर आर.एस. चौहान का नाम बताया, तो किसी को कोई संशय नहीं था। प्रोफेसर चौहान – एक नाम, जो विज्ञान की ऊंची दीवारों पर खुदा हुआ था। तीस से अधिक किताबें, अस्सी अंतरराष्ट्रीय शोध पत्र और सैकड़ों सेमिनारों में छाई छवि। हम सबको लगा, रश्मि ने सूरज से हाथ मिलाया है।

शुरुआती महीनों में सब कुछ वैसा ही था—सुव्यवस्थित, गरिमामय और आश्वस्त। रश्मि प्रयोगशाला में प्रवेश करती तो उसके सफेद कोट की उजली चमक, कांच के फ्लास्कों में पड़े रसायनों से भी अधिक पारदर्शी लगती। वह मुस्कुराती थी—वैज्ञानिकों जैसी गंभीरता में लिपटी हुई, फिर भी सौम्य। लेकिन धीरे-धीरे प्रयोगशाला की रोशनी मद्धम पड़ने लगी।

नियंत्रण पटल की बत्तियाँ वैसे ही टिमटिमाती रहीं, लेकिन भीतर की आँखें बुझने लगीं। उपकरण वैसे ही खड़े थे—नीरव, लेकिन अब उनकी खामोशी में कुछ भय था। सेंट्रीफ्यूज मशीन की घूमती गति अब एक बेचैन घनघनाहट जैसी लगने लगी थी।

रश्मि अब अधिक शांत रहने लगी थी। जब भी मैं उसे देखता, उसकी हँसी में एक अधूरापन होता—जैसे कोई सूत्र गलत जुड़ गया हो। पहले जहां वह अपने डेटा की बातें उत्साह से करती थी, अब उसके होंठों पर जैसे किसी ने ‘सावधानी’ टांक दी हो।

“कुछ मिला?”

“नहीं,” वह सिर झुका लेती।

“कोई प्रयोग?”

“अभी… कुछ खास नहीं।”

साल भर बीत गया। उस तेजस्वी लड़की ने अपने शोध का एक पन्ना भी नहीं लिखा था। जब मैंने उससे पूछा तो उसने कहा—”सर ने कोई काम ही नहीं दिया। बस चाय के कप, और मुस्कराहटें।”

उसने कहा, “पहले तो लगता था कि गाइड मेरे काम से प्रसन्न हैं। अब लगता है, मैं ही उनका ‘काम’ हूं।”

रश्मि पॉल — सुंदर, प्रतिभाशाली, आत्मविश्वासी। कॉलेज के दिनों से मेरी मित्र, मेरी मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर बैठकर यूनिवर्सिटी आती थी। हमने नाटकों में साथ काम किया, सपने साझा किए।

शोध का टेढ़ साल बीत गया। एक शाम,  जब मैं उसे कमला नगर के निरोज़ रेस्टोरेंट में छोले-भटूरे खिलाकर लौटा रहा था, रश्मि ने कहा — “अमन, एक लाइन भी काम नहीं किया मैंने।”

मैंने बाइक रोक दी। “क्या?”

“सर ने काम दिया ही नहीं। चाय पिलाते हैं, तारीफ़ करते हैं, और बस… और अब तो उनसे मिलने का मतलब है घंटों उनके सामने बैठे रहना, उनके निजी मज़ाक और टपकती नज़रें सहना।”

प्रयोगशाला की दीवारें अब भी सफेद थीं, पर उन पर एक अनकहा स्याहपन छा चुका था। जहां पहले रश्मि बैठती थी, अब वह हमेशा सामने की मेज पर बैठने को मजबूर थी—प्रोफेसर की निगाहों की सीधी रेखा में। उसके गले तक बटन बंद रहते थे, पर वह जानती थी कि निगाहें कपड़े नहीं पढ़तीं।

कांच की शीशियाँ अक्सर उसके हाथ से गिर जातीं। कोई रसायन छलकता और वह चौंककर पीछे हट जाती—जैसे किसी अजाने डर से।

किसी ने कुछ नहीं कहा, पर सबने देखा।

वह कहती—”अमन, मैं लैब में अब सुरक्षित महसूस नहीं करती। मैं वहां उपकरणों से नहीं, निगाहों से डरती हूं। जब भी मैं सिर उठाती हूं, मुझे लगता है प्रोफेसर की आंखें मेरे भीतर घुस रही हैं।”

रश्मि के लिए विज्ञान अब सूक्ष्मजीवों का नहीं, सूक्ष्म शोषण का अध्ययन बन गया था।

जिस लैब को उसने अपनी साधना का मंदिर समझा था, अब वह अजगर की मांद लगने लगी थी—धीरे-धीरे लिपटती, कुंडली कसती और हर सांस को कड़ा बनाती।

प्रोफेसर चौहान का केबिन एक प्रयोगशाला नहीं, एक जीवित अजगर की देह था।
बंद खिड़कियों से छनती रोशनी अंदर आते ही मानो दम तोड़ देती थी।

लकड़ी की भारी मेज़ — काँच से ढकी — उस अजगर की पीठ की तरह थी,
ठंडी, चमकती और निर्दयी।

दीवारों पर जमी डिग्रियों की कतारें उसके फन के जहर की चिट्ठियाँ थीं — हर प्रमाणपत्र एक चेतावनी, “यहाँ कोई सवाल मत पूछो।”

रश्मि जब भीतर दाखिल हुई थी, तो उसकी नज़र सबसे पहले पड़ी थी उस कुर्सी पर —
जहाँ चौहान बैठा करता था। वह कुर्सी हिलती नहीं थी, वह झपट्टा मारती थी। उसके हत्थे अजगर की कुंडली की तरह धीरे-धीरे लिपट जाते थे सोचने वाले के मन पर।

उस दिन भी, जब वह अपनी फ़ेलोशिप रिपोर्ट लेकर गई थी — प्रोफेसर ने उसकी ओर देखा।

वो आँखें नहीं थीं। वो दो रेंगती सर्पिल रेखाएँ थीं — ठंडी, खामोश, निर्विकार।

रश्मि को लगा, जैसे वह केबिन में नहीं, किसी अजगर के उदर में खड़ी है —
जहाँ हर चीज़ की नमी निचोड़ ली गई है।

“सब कुछ ठीक है न?” चौहान ने पूछा था।

उसके लहज़े में वही मृदुता थी, जिससे शिकारी अपने शिकार को पुकारता है।

रश्मि की उंगलियाँ काँप गई थीं। उसने रिपोर्ट थमा दी थी और कहा था, “हाँ… सब ठीक है।”

उसने झूठ बोला था। क्योंकि उस समय कोई भी सच बोल नहीं सकता था —
जब अजगर अपनी कुंडली में कसने लगे।

रश्मि अब कम बोलती थी। लेकिन जब भी बोलती, उसकी बातें अक्सर सपनों से शुरू होकर डर पर खत्म होतीं। “उसने एक दिन कहा, ” कल रात मैंने देखा… एक भारी अजगर लैब के मेज़ों के नीचे से सरक रहा था। उसके शरीर की त्वचा वैसी ही थी जैसे हमारे फर्श पर चढ़ा हुआ टाइल—मज़बूत, ठंडा, चमकदार। वह मेरे पास आया और बिना कुछ कहे मेरी कुर्सी के पैरों से लिपट गया।”

“और?” मैंने पूछा, मेरी उंगलियाँ उसके काँपते हाथ पर ठहरी रहीं।

” और कुछ नहीं,” वह बोली। “मैं चीखना चाहती थी। लेकिन जैसे गले में किसी ने रुई भर दी हो। मैं आंखें खोल नहीं पा रही थी। बस उस अजगर की साँसों की गर्मी महसूस कर रही थी।”

उस दिन उसने फोन पर कहा, “हम आज कॉलोनी के उस पुराने पार्क में मिलें। वही जो मुख्य सड़क से थोड़ी दूर है…”

उसकी आवाज़ में एक थरथराहट थी—जैसे कोई दबा हुआ सागर बोल रहा हो। मैं समझ गया था, कुछ असामान्य है। लेकिन मैंने सवाल नहीं किया। कभी-कभी चुप रह जाना सबसे बड़ा साहस होता है।

सामान्य परिस्थितियों में उस दिन बाहर निकलना मुश्किल था लेकिन उसकी आवाज़ से मैं डर गया था। दिल्ली में दो दिन पहले तूफान आया था—इतना भयावह कि शहर के नक्शे बदल गए थे। पेड़ उखड़कर कारों पर गिर पड़े थे, कुछ कारें पेड़ों पर टंग गयी थीं और गलियों में पानी ऐसा बहा कि सड़कें नदियों में बदल गईं। जन-धन का नुकसान तो हुआ ही, पर सबसे ज़्यादा जो टूटा था, वह था इस शहर का संयम।

उस दिन भी मौसम ठीक नहीं था। बादल गरज रहे थे और हवा लगातार चीख रही थी। मैं समय से पहले पार्क पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था, जैसे किसी ने पूरे वातावरण को रोक कर रख दिया हो।

वह आई—भीगे बाल, सूजी हुई आंखें और चेहरे पर थकावट की गहरी परछाइयाँ। कुछ देर वो मुझे देखती रही, फिर चुपचाप आकर सिर मेरे कंधे पर रख दिया। अचानक वो हिलने लगी—सिसकियाँ थी, जो टूटे हुए आत्म-सम्मान की गूँज थीं।

मैंने कुछ नहीं पूछा।

मित्रता की सबसे बड़ी परीक्षा वहीं होती है, जहाँ शब्द फिजूल लगने लगें। मैंने बस उसकी पीठ सहलाई और कुछ देर बाद कहा, “जानता हूँ… पर तुम अकेली नहीं हो।”

मैंने उसे कई कहानियाँ सुनाईं—ऐसी लड़कियों की, जो चुप नहीं रहीं।

“जानती हो,” मैंने कहा, “प्रोफेसर मल्होत्रा, जो ज़ूलॉजी लैब में हैं, जब भी अपनी किसी शोध छात्रा को बुलाते हैं, लैब में बाहर से ताला लगवा लेते हैं। पर अब कुछ लड़कियाँ हैं जो इन प्रोफेसरों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना सीख गई हैं।”

मैंने उसे एक घटना सुनाई—पिछले हफ्ते की। वनस्पति शास्त्र विभाग की एक छात्रा को उसका प्रोफेसर बुलाता है। जैसे ही वह पहुंचती है, बिना डरे, उसके सामने खड़ी हो जाती है: “किसलिए बुलाया है?”

प्रोफेसर घबरा जाता है। “अरे, सबके सामने ये क्या…” वह नहीं रुकती। “सब छोड़ो। बताओ, क्यों बुलाया है मुझे? चूहा कब का मर चुका है, लेकिन आपको तो मुझे सामने बैठाना है… क्यों?” प्रोफेसर की जुबान बंद हो गई। लड़कियाँ अब डरती नहीं।

फिर मैंने उसे बताया—बस चार दिन पहले की बात है। एक यूनिवर्सिटी के उपकुलपति के कमरे से एक लड़की चीखती हुई निकली थी। और उसके पीछे-पीछे उपकुलपति भागे थे—अर्धनग्न अवस्था में।

सड़क पर लड़की ने चप्पल निकाली और उसे पीटना शुरू किया। जब चप्पल टूट गई, तो वो भीतर से कुकर उठाकर लाई… और फिर वही कुकर चला—उन सभी हाथों पर जो ‘पद’ की आड़ में शरीर तक पहुँचने लगे थे।

वह चुपचाप सुनती रही। उसकी सांसें अब कुछ संतुलित हो रही थीं। मैं जानता था, उस दिन मैंने उसे कोई समाधान नहीं दिया—पर उसे यह एहसास जरूर कराया कि तूफानों से केवल पेड़ ही नहीं गिरते, कभी-कभी भीतर की चुप्पियाँ भी टूटती हैं।

रश्मि की आँखें भारी थीं। नींद नहीं आई थी — बस छत घूरती रही। हर करवट में वही चेहरा। हर परछाईं में वही हाथ। वो सपना नहीं था। वो दस्तावेज़ की तरह दर्ज था उसकी देह पर। कलाई से काँधे तक कोई अदृश्य आकृति खिंच गई थी, जो मिटती ही नहीं थी। शब्द सारे खत्म हो चुके थे। अब बस एक मौन था — भीतर घिसता हुआ, जैसे चाकू की धार। प्रयोगशाला में वह अब पहले की तरह देर तक नहीं रुकती थी। प्रोफेसर की उपस्थिति में उसकी पीठ सीधी नहीं रहती थी—वह सिकुड़ जाती थी, जैसे अपने भीतर समा जाना चाहती हो। लेकिन सबके सामने वह अब भी एक सामान्य शोध छात्रा बनी रहने का अभिनय करती रही।

“तुम्हें किस बात का डर है?” मैंने एक दिन पूछा। “डर?” उसने लगभग फुसफुसाते हुए कहा। “डर का चेहरा नहीं होता अमन। लेकिन उसका वज़न होता है। वह रात को छाती पर बैठ जाता है। उसे हटाने के लिए कोई औजार नहीं है, न ही फॉर्मूला।” वह उठी तो ऐसे जैसे कोई चुप्पी ओढ़कर लौटा हो। आत्मा की कोई महीन परत, उस कमरे में गिरवी रह गई थी। “प्रोफेसर के हाथ अब गालों से आगे कहीं भी फिसलने लगे।” “उसके हाथ ऐसे सरकते जैसे कोई अंधा स्पर्श किसी शिकार की आख़िरी हिचकी तक पीछा करता है। वहाँ अब सिर्फ़ देह थी — आत्मा की आवाज़ को प्रोफेसर ने एक कोने में ठेल दिया था, जैसे ग़लती से फाइल से बाहर गिरा कोई काग़ज़।”

“मैं जानती हूं, ये सब होता आया है… लेकिन अब मुझे तय करना है — क्या मैं भी उन्हीं में शामिल हो जाऊं जो इसे सामान्य मानते हैं, या कुछ तोड़ जाऊं… खुद के भीतर, या इस ढांचे में।”

रश्मि के मन में शिकायत का ख्याल आया लेकिन फिर उसने सोचा की विश्वविद्यालय के मौन गलियारों में एक अन्य शोधार्थी गीता यादव की शिकायत की कॉपी महिला प्रकोष्ठ  की फाइलों में आज भी धूल खा रही थी। प्रकोष्ठ की अध्यक्ष — प्रोफेसर मिश्रा — ने उसकी शिकायत पढ़ते ही टिप्पणी की थी: “ये लड़की शायद अपनी रिसर्च में पिछड़ रही है… मानसिक तनाव होगा… और वैसे भी शुक्ला साहब का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा है।”

काउंसलिंग की एक औपचारिक तारीख दी गई थी। पर गीता यादव उस दिन लैब में थी — जहाँ प्रोफेसर शुक्ला ने उससे पूछा था, “कुछ परेशानी है क्या? चाहो तो मेडिकल लीव ले लो…” डीन ऑफिस में एक छोटा-सा ‘गोसिप’ फैला — “उस लड़की ने न जाने क्या सोचकर शिकायत कर दी! औरतें आजकल हर चीज़ को #MeToo बना देती हैं!” किसी ने ये नहीं पूछा कि क्या हुआ था। सब यही सोचते रहे कि क्यों किया। एच आर डी कमेटी की मीटिंग में फाइल बंद कर दी गई।

“ऐसे आरोपों से संस्थान की प्रतिष्ठा गिरती है।” संकाय मीटिंग में यह बात हल्के से आई  “जाँच की ज़रूरत नहीं, हमारे बीच तो सब पारदर्शी हैं।”

कुछ दिन के मानसिक झंझावत के बाद एक बार फिर रश्मि ने रिसर्च स्कॉलर की यूनियन में अपील करने की सोची, पर उनके अध्यक्ष ने कहा:

“हम अभी वाइस चांसलर से फ़ंडिंग की माँग कर रहे हैं… यह मुद्दा उठाया तो राजनीतिक रंग लग जाएगा।” लैब वही थी। प्रोफेसर वही थे। रश्मि धीरे-धीरे चुप होती गई। पर उसकी डायरी में एक पंक्ति उभर आई थी: “यहाँ हर कोई जानता है। लेकिन हर कोई कुछ और देखने में व्यस्त है।”

एक दिन, रश्मि प्रयोगशाला में बेहोश पाई गई।

रिपोर्ट में लिखा था—”तनाव जनित थकावट”। कॉरीडोर में फुसफुसाहटें थीं—”खुद को बहुत होशियार समझती थी”, “लैब में देर तक क्यों रुकती थी?” किसी ने नहीं पूछा कि प्रोफेसर आख़िर देर तक क्यों रुकते थे। वह लौट तो आई, पर अब उसकी चाल में वह आत्मविश्वास नहीं था। आंखों में वह चिंगारी नहीं थी। वह अब किताबें नहीं पढ़ती थी, सिर्फ उन्हें देखती थी—जैसे वे कोई ऐसी भाषा में लिखी हों, जिसे वह पहले समझती थी लेकिन अब भूल गई हो।

रश्मि ने कुछ नहीं कहा था उस शाम। बस खिड़की की तरफ देखती रही — जहाँ बाहर पीली रौशनी में उड़ती धूल थी।

अमन ने चुप्पी तोड़ी। पहले धीमे, फिर अचानक: “तू बोल क्यों नहीं देती सबके सामने?” फिर खुद ही अपनी आवाज़ से चौंक गया — थोड़ा रुककर बुदबुदाया: “सॉरी… मैं बस… मैं समझता हूँ सब। पर शायद मैं भी आदत में हूँ — देखने की, सहने की, चुप रहने की। मैंने सोचा — क्या सिर्फ सहानुभूति ही मेरी अंतिम सीमा है? क्या मैं कुछ कर सकता हूँ, या मैं भी बस एक दर्शक हूँ?”

रश्मि ने उसकी तरफ देखा — इस बार पहली बार। “अमन…” वह हँसने की कोशिश करता है, पर हँसी नहीं आती। केवल आँखें भीगती हैं। “मैं तुझे बचा नहीं सकता रश्मि… पर मैं तेरे साथ गिरना चाहता हूँ। क्योंकि खड़े होकर देखने वालों में रहना अब मुमकिन नहीं।”

” तुम वापस क्यों आई?” मैंने उससे एक दिन पूछा। उसने मुझे देखा। उसकी मुस्कराहट में एक थकी हुई हिम्मत थी। “क्योंकि डर एक अजगर है,” उसने कहा, “और अगर मैं भाग गई, तो यह किसी और को लपेट लेगा।”

रश्मि पहले रंगमंच पर सक्रिय होती थी। कॉलेज के नाटकों में, वाद-विवाद में, नुक्कड़ों में उसकी आवाज़ सबसे साफ़ सुनाई देती थी—शब्द नहीं, आत्मा बोलती थी।
मैंने उसे पहली बार ‘अंधायुग’ में गांधारी की भूमिका करते देखा था। उसकी चीख—“कृष्ण! तुम भी दोषी हो!”—अब भी मेरे कानों में गूंजती है।

लेकिन अब वह मंच से उतर चुकी थी। “थक गई हूं,” उसने कहा था, जब हमने उसे अगला नाटक करने को कहा। “शब्द नहीं निकलते। हर संवाद नकली लगता है।”

हम दोस्तों का एक छोटा-सा समूह था। बिखरने में देर नहीं लगी। एक दोस्त ने कहा—“रश्मि अब वैसी नहीं रही।” दूसरे ने चुपचाप ग्रुप छोड़ दिया। मैंने उससे पूछा नहीं, लेकिन महसूस किया—वह भीतर से टूट रही थी। जो कुछ उसके साथ हुआ, वह केवल शरीर पर नहीं था। वह आत्मा पर घाव जैसा था। वह अब किसी से बहस नहीं करती थी। उसकी डायरी में लिखे शब्दों में अब न रौशनी थी, न लय—सिर्फ थकान।

“तुम्हें मंच पर वापस लौटना चाहिए,” मैंने कहा था एक दिन। “वह मंच अब झूठा लगता है,” उसने जवाब दिया। “जब असली नाटक प्रयोगशाला में चलता है, जब असली खलनायक को पुरस्कार मिलते हैं, तो नकली पात्र बनना—ढोंग जैसा लगता है।” उस दिन मैं बहुत देर तक चुप रहा।

अब वह जो पहनती थी, वह कभी रंगीन होता था—अब वह बस हल्के भूरे, मटमैले कपड़े पहनती थी। उसके होठों पर लिपस्टिक की चमक नहीं रही थी। उसके कमरे की दीवारों से पोस्टर उतर चुके थे। रश्मि अब सिर्फ ज़रूरी बातें करती थी—जैसे डॉक्टर से दवा की खुराक पूछी जाती है।

मुझे कभी-कभी लगता है, उसने जीने की प्रक्रिया को — हार नहीं मानकर — बस विराम पर रख दिया है। जैसे वह किसी नई जीवन-पटकथा की प्रतीक्षा कर रही हो। वह अपने पुराने कमरे में थी — लेकिन कमरे में कोई किताब नहीं थी, कोई दीवार नहीं थी… सिर्फ़ एक आईना। और उसमें खड़ी थी वह — वैसी ही, जैसी वह नाटक के मंच पर गांधारी बनी थी — आंखों पर पट्टी, पर आवाज़ में गूंज।

‘अब भी मौन है?’ उसने पूछा। रश्मि ने सिर झुका लिया।

‘याद रख — जब मंच पर खलनायक को नायक समझा जाता है, तो दर्शक भी अपराध में भागीदार हो जाते हैं।

अब वह अजगर चौहान की कुर्सी पर नहीं था, वह मां की चुप्पी में था, प्रकोष्ठ की फाइलों में था और उन दोस्तों की आँखों में जो सब जानते हुए भी नज़रें चुरा लेते थे।”

रश्मि की मां उससे मिलने आई थीं। एक उच्च-मध्यम वर्ग की शहरी स्त्री — जैसे चमकते शीशों के पीछे की हल्की उदासी, सजग, संयमित, पर भीतर कहीं पूर्णत सचेत। उनके चेहरे पर वह व्याकुलता नहीं थी जो आमतौर पर किसी पीड़ित बेटी की मां में देखी जाती है। वह रश्मि को घेरे बैठीं, लेकिन जैसे किसी रस्म को निभा रही हों। “सब ठीक है अब?” मैंने उनसे एक दिन पूछा। उन्होंने मेरी ओर एक फीकी मुस्कान उछाली।

“हां बेटा, भगवान सब ठीक करता है। बच्ची पढ़-लिख जाए, यही बहुत है।”

उस “सब ठीक है” में जो रिक्तता थी, वह एक खामोश कबूलनामे जैसी लगी। रश्मि की नज़रें मां की बातों के साथ बहने के बजाय उन्हें टटोल रही थीं—जैसे वह कोई भूल सुधार खोज रही हो, कोई स्पर्श जो कहे: “मैं जानती हूं, बेटी।” पर वह नहीं आया।

बाद में रश्मि ने कहा, “मां जानती हैं सब। पर उनकी चुप्पी में एक परंपरा की जकड़ है—जिसे वो तोड़ नहीं सकतीं।” मैंने कुछ कहने के लिए होंठ खोले, पर वह आगे बोल गई— “मां भी उसी अजगर की परत हैं। बस अलग रूप में।”

एक बार फिर मां, प्रोफेसर से मिलने आई थीं। प्रोफेसर ने उन्हें चाय पर बुलाया—और पूरे समय उसी रेशमी आदर से बात की जो उसकी सबसे घातक परत थी। “आपकी बेटी बहुत होशियार है। बस थोड़ा और मार्गदर्शन चाहिए…” उनकी आंखें स्थिर थीं, लेकिन उनमें एक छलकता हुआ गर्व था—एक शिकारी जैसा, जो अपने शिकार के आत्मसमर्पण पर आत्ममुग्ध हो।

मां धीरे-धीरे सहमति में सिर हिलाती रहीं। उनके शब्द नहीं थे—पर उनकी मौन स्वीकृति जैसे प्रोफेसर की जीत को पक्की करती जा रही थी।

उस शाम रश्मि देर तक खिड़की पर बैठी रही। “कभी-कभी,” उसने कहा, “जो लोग हमारी रक्षा करने वाले होते हैं, वहीं अनजाने में हमें सौंप देते हैं उन हाथों में जिनसे हमें बचाना चाहिए था।”

उस दिन पहली बार मैंने उसकी आंखों में डर नहीं, क्रोध देखा— साफ़, ठंडा और बहुत गहरा। जैसे वह अब अजगर को सिर्फ़ पहचान नहीं रही थी, उसे नाम भी दे चुकी थी।

रश्मि अधमरी-सी नींद में डूबी है। पंखा घूम रहा है — लेकिन हवा बंद। बाहर बिजली चली गई है, भीतर कुछ और ही चला गया है। तभी… वह देखती है एक अँधेरी सुरंग… और उस सुरंग के पार एक और रश्मि खड़ी है — वैसी ही आंखें, वही बाल, वही कपड़े, लेकिन चेहरा चटक रोशनी से चमक रहा।

“तू कौन है?” रश्मि पूछती है, कांपते स्वर में।  “मैं? मैं वही हूँ जो तू हुआ करती थी। तेरी पहली कविता, तेरा पहला प्रतिकार। वो दिन जब तूने पिता से कहा था — ‘मैं शादी नहीं, पढ़ाई करूंगी।’ मैं वो ‘ना’ हूँ जो तूने पूरी दुनिया को कहा था।” रश्मि चुप।

“अब कहाँ जा रही है तू?” वह ‘पुरानी रश्मि’ पूछती है। “कहीं नहीं,” रश्मि धीमे से कहती है, “बस… थोड़ी देर चुप रहना है।” “चुप्पी मौत होती है, रश्मि। चुप्पी में वो सब जीत जाते हैं जो तुझे गुलाम बनाना चाहते हैं।”

रश्मि की आँखों से आंसू बहने लगते हैं। वह कहती है: “लेकिन मैंने सब कोशिश की। शिकायत की, चिल्लाई, कहा — ‘नहीं!’ पर हर बार मेरी आवाज़ दीवारों में घुल गई। और अब… थक गई हूँ मैं। अब सिर्फ आराम चाहिए। बस… कुछ भी मत माँगो मुझसे।”

वह ‘पुरानी रश्मि’ कुछ पल चुप रहती है। फिर धीरे-धीरे उसकी परछाईं मिटने लगती है।
“ठीक है,” वह कहती है, “लेकिन जब तू मुझे खो देगी, तो तुझे फिर कुछ भी जीतने लायक नहीं लगेगा। याद रख — समझौता सज़ा नहीं देता, वो आत्मा को विस्मृति में डुबो देता है।”

अचानक एक काँच की मेज़ गिरती है — टुकड़े बिखरते हैं। रश्मि चौंककर जाग जाती है। कमरा वैसा ही है। बिजली आई नहीं है। पर उसने ठान लिया है — अब वह सिर्फ ‘जीएगी’, महसूस किए बिना।

कमरे में अकेला बैठा है प्रोफेसर। सामने दीवार पर टंगी हैं पुरानी उपलब्धियाँ — विश्वविद्यालयों के मोमेंटो, पुरस्कार और शोधार्थियों की थिसिस जिनके ऊपर उसका नाम छपा है। वह उन्हें देख मुस्कुराता है। फिर धीमे से बुदबुदाता — “नहीं समझ पाता ये नई पीढ़ी इतनी भावुक क्यों है। शोध, ग्रांट, एक्सपोज़र… सब कुछ दिया — फिर भी खुद को ‘शिकार’ कहती हैं?” उसकी उंगलियाँ कुर्सी के हत्थे पर चुपचाप फिरती हैं। “रश्मि जैसी लड़कियाँ तो बस मौके की तलाश में होती हैं। और जब हम उन्हें रास्ता दिखाते हैं — ‘गाइड’ करते हैं — तो वो भ्रष्टाचार कैसे हो गया?”

वह उठता है, किताबों की अलमारी तक जाता है। वहाँ एक फ़्रेम में उसके दो विदेशी गुरु मुस्कुरा रहे हैं। “वहाँ — पाश्चात्य अकादमी में — यह सब सहज था। बुद्धि और आकर्षण — दोनों संसाधन हैं। उसे ‘नेटवर्किंग’ कहते हैं। यहाँ…? यहाँ तो बस शोर है — नारीवाद, उत्पीड़न, नैतिकता…” कुछ क्षण ठहर कर वह कहता है — “मैंने किसी को मजबूर नहीं किया। विकल्प दिया। अगर किसी ने चुना — तो वह उसकी स्वायत्तता थी। मेरी नहीं।” फिर वह एक पल को ठहर कर ज़ोर से दोहराता है — “मैं अपराधी नहीं हूँ।” “मैंने अवसर दिए। और यह समाज ही तो तय करता है कि अवसर की क़ीमत क्या होगी।”

फोन पर एक नोटिफिकेशन आता है — रश्मि का रिसर्च पेपर अप्रूव हो गया है। वह मुस्कुराता है। “देखा? मेरी मेंटरशिप कहाँ ले जाती है इन्हें। फिर वही लोग खुद को ‘सर्वाइवर’ और हमें ‘प्रीडेटर’ कहते हैं।” वह खिड़की की ओर देखता है — सूरज ढल रहा है। “समय के साथ इतिहास भी बदलेगा। शायद किसी दिन मेरी बात भी समझी जाएगी। लेकिन अभी… मुझे अगली रश्मि के लिए तैयार रहना होगा।”

“मैंने कभी किसी को मजबूर नहीं किया। मैंने बस गाइड किया — जैसे एक सिस्टम करता है। और सिस्टम को अपराधी नहीं कहा जाता।” कॉरिडोर में हवा नहीं चल रही थी। दीवार की घड़ी, टिक-टिक करती एक अजानी प्रतीक्षा में ठहरी थी।

प्रयोगशाला के उस कमरे की बत्ती जली हुई थी, पर उसकी रोशनी में अब जीवन नहीं था—सिर्फ़ एक पीली, थकी चमक। फर्श पर एक चप्पल उलटी पड़ी थी। एक किनारे अधजला स्कॉच का गिलास था—जिसमें उंगलियों के निशान अब भी धुंधले थे। पंखा घूम रहा था, धीरे—जैसे कोई कुंडली बना रहा हो। उसकी आवाज़ अब भी वैसी ही थी—फुफकार जैसी।

रश्मि वहाँ थी। वह ज़मीन पर बैठी थी, और उसके हाथ में एक फाइल थी—शायद उसकी ही रिपोर्ट, या कोई चार्जशीट, या शायद, कुछ और। वह उसे पन्ना-पन्ना फाड़ रही थी। धीरे, सधे हुए हाथों से। हर कागज़ के टुकड़े के साथ मानो कोई बोझ टूटकर गिर रहा हो लेकिन किसी ने कुछ नहीं सुना। वह कुछ नहीं बोली। उसके चेहरे पर न आँसू थे, न ग़ुस्सा— बस एक चुपचाप नज़र, जैसे वह हमें देख रही हो— पर हमारे पार, हमारी आत्मा के भीतर। दरवाज़ा आधा खुला था। और बाहर लॉन में लोग हँस रहे थे।

सिर्फ एक छोटी सी बात रह गई थी— उस अजगर की, जो अब भी वहाँ था—शरीर में नहीं, विचार में। संस्थान की दीवारों में, फाइलों की भाषा में और उन मौन स्वीकृतियों में जो हर माँ, हर सहयोगी, हर ‘देखने वाला’ छोड़ गया था। रश्मि नहीं गई थी। वह बस अब शब्दों से बाहर हो चुकी थी।

संपर्क : मो. 9351159540 ; gcbagri@gmail.com

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