कथा

प्लास्टिक की क़ब्र

वसीम अहमद अलीमी जामिया मिल्लिया इस्लामिया से गोल्ड मेडलिस्ट रिसर्चर हैं। वह उर्दू के प्रतिष्ठित अनुवादक एवं उभरते हुए अफसाना-निगार हैं। वह सुप्रीम कोर्ट व NCERT जैसी संस्थाओं के लिए अनुवाद-कार्य कर चुके हैं। उन्होंने ‘शब-ए-इंतज़ार गुजरी है’ किताब का अंग्रेजी से उर्दू में अनुवाद किया है। वर्तमान में वह केंद्रीय सचिवालय, बिहार सरकार में अनुवादक के पद पर कार्यरत हैं।

पिछले कुछ दिनों से उसने ज़रूरत से ज़्यादा इत्र लगाना शुरू कर दिया है। कपड़ों के साथ साथ उसकी तस्बीह के दाने, किताबें, तौलिया, तकिए का गिलाफ़ और जिस कमरे में वह अकेला सोता है, उसके दरो-दीवार सबको उसने मुअत्तर कर रखा है। वह कोई मौलवी नहीं है लेकिन आजकल पंजवक़्ता नमाज़ के साथ रात के पहर में पढ़ी जाने वाली नमाज़ का भी पाबंद हो गया है। बिस्तर के सिरहाने मोटी-मोटी किताबों का अंबार लगा है, जिनमें ताकतवर बनने के नुस्खे़, कम वक़्त में ग़रीबी से बाहर निकलने के गुर, ख़ुद की इज़्ज़त करवाने के तरीक़े और ख़ामोश रहने के फायदे लिखे हैं। रात उसकी ख़ुदा के ज़िक्र में गुज़रती है और सुबह मुंह-अंधेरे बग़ैर चप्पल के ही खेतों-खलियानों की तरफ़ निकल जाता है। ऐसा नहीं है कि घर में उसके हिस्से का नाश्ता नहीं बनता लेकिन आजकल उसने गांव के मुंडेर पर बनी दो-चंद दुकानों से उधार में नाशता करना शुरू कर दिया है, हालांकि यह बात बहुत बाद में मालूम हुई है।

यह खुश्बू भी कितनी अजीब चीज़ है। नथनों के रास्ते स्मृतियों के दरीचे में घुसती है और फिर अचानक यादों का एक धुवां-सा उठने लगता है। इन्सान भावनात्मक तौर पर मज़बूत न हो तो यह एक चीज़ उसको पागल कर देने के लिए काफ़ी है। खुश्बू ज़ाइक़े की ही एक किस्म है, जिसकी लज़्ज़त या कड़वाहट ज़बान की बजाय नाक से महसूस की जाती है। खुश्बू ख़ुद दूरियों का सफ़र करती है और दूसरों को भी करा सकती है। यहां तक कि उसकी हस्ती एक लम्हे में हज़ारों लाखों बरस आगे या पीछे ले जाने के लिए काफ़ी है। खुश्बू इन्सान के लिए हमेशा से एक टाइम मशीन की तरह काम करती है, जिस पर सवार होकर उसका वक्त का चक्र पीछे की तरफ़ लौट जाता है। बारिश की बूंदों से उठनी वाली मिट्टी की खुश्बू गांव की कच्ची सड़क पर बचपन में नंगे बदन धौल-धप्पा की याद दिलाती है। एक ख़ास किस्म की इत्र मय्यत के दिलसोज़ मंज़र सामने लाकर खड़े कर देती है, केरोसीन तेल की बू गंध की ताकत तक पहुंचते ही शाम ढलने का एहसास दिलाती है कि बचपन में हमारी शामों का इस्तक़बाल लालटेन की धुंदली-पीली रोशनी से ही हुआ करता था। किसी कश लगाते हुए बुज़ुर्ग शख़्स की बीड़ी से उठने वाले बादलों की बू उम्र गुज़ार चुके बूढ़े किरदारों की याद ताज़ा कर देती है तो नए कपड़ों की बू बचपन की ईद याद दिलाती है और मछली का बिसांद सूंघ कर वह उन दिनों में खो जाता है, जब नदी किनारे सीप का कलेजा-फाड़ करके उसके गूदे को मुट्ठी में रखकर कीचड़ से मछलियां पकड़ लिया करता था। क्या वह पैदाइशी मछुवा रहा है? नहीं, यह तो उसका वहम है। वह माहीगीरों के ख़ानदान में पैदा नहीं हुआ, लेकिन उसे मछलियों की नस्ल, अंडे, पानी की पाकीज़गी और आलूदगी, नदियों के नशेब, तैराकी और किस सीप के गर्भ में क़ीमती मोती परवरिश पा रहा है, उन सबका गहरा इल्म ज़रूर है।

उसकी सूंघने की शक्ति अन्य लोगों से बहुत मुख़्तलिफ़ है। यह नय्यर मसऊद के किरदार की तरह भी नहीं कि जिसके सीने में इत्रियात के नायाब नुस्खे़ महफ़ूज़ हैं और जिसको इत्र काफ़ूर सूंघने पर वीरानी में कुछ दिखाई देने लगता है और न उसकी नाक मंटो के अफ़साना ‘बू’ के रणधीर सिंह से समानता रखती है, वह जिसे अपने ही पसीने की बू से सख़्त नफ़रत है लेकिन बरसात के दिनों में जब खिड़की से बाहर पीपल के पत्ते नहा रहे थे तब उसने एक घाटन लड़की के जिस्म की बू को उम्र-भर के लिए अपने ज़हन-ओ-दिमाग़ में महफ़ूज़ कर लिया था।

वह घर में सबसे छोटा था उम्र में लेकिन ख़ुराक उसकी सबसे टाइट थी, चावल से ज़्यादा गोश्त और रोटी से ज़्यादा सब्ज़ी खाना उसके लिए आम बात थी लेकिन अब उसने खाना भी कम कर दिया है। दस-दस रोटियां खाने वाला लड़का मुश्किल से दो रोटियां ही खाता है और अगर घर का कोई फ़र्द उसे मज़ीद खाने की ताकीद करे तो वह एकाएक कह उठता है,

“कम खाना औलिया-ए-किराम का तरीक़ा है। दुनिया में मौजूद उन लाखों भूखे-प्यासे इंसानों के बारे में सोचें, जिन्हें ये दो रोटियां भी मयस्सर नहीं हैं।”

आजकल उसकी हर बात मानवीय स्वभाव के मुताबिक होती है जैसे कोई सूफ़ी फ़क़ीर दहाइयों की इबादत के बाद अपनी ज़िंदगी को शरीयत के आईने में ढाल ले।

जिस्म-ओ-जिस्मानियत और डील-डौल से वह हट्टा-कट्टा नौजवान है लेकिन उसकी शख़्सियत में तेज़ी से होने वाली तब्दीलियों से वह भीतर से कमज़ोर होता जा रहा है जैसे किसी बहुत मज़बूत दरख़्त को दीमकों का पूरा एक क़बीला अंदर से चाट रहा हो।

उसकी तालीम ज़्यादा नहीं हो सकी। बारहवीं का इम्तिहान घर से ही पास किया लेकिन ग्रेजुएशन में दाख़िला के बावजूद कई बरसों से मुकम्मल नहीं हो सका। पढ़ने में बचपन से ज़हीन था लेकिन स्कूल से भागने की आदत ने उसका भविष्य चौपट कर दिया। बचपन में हॉस्टल से भागता तो घर भी नहीं आता, गांव में किसी ग़रीब के घर जाकर खा-पीकर सो जाता। अम्मी हाथ पैर बांधकर मारतीं, क़मची तोड़ देतीं लेकिन वह उफ़ तक न करता।

खेल-कूद में बिल्कुल भी अच्छा नहीं था। क्रिकेट खेलता तो पहले ओवर में ही आउट हो जाता, फील्डिंग करता तो अपनी तरफ़ आती हुई गेंद ख़ाह रफ़्तार वाली हो या सुस्त डायरेक्ट मुश्किल से ही पकड़ पाता। आमतौर पर कहें तो वह एक भोंदू किस्म का बच्चा था, जो जिस्मानी तौर पर सेहतमंद था लेकिन ज़हनी तौर पर बीमार। और क्यों न हो कि घर में हम चार-पांच भाई बहनों के अलावा चार-पाँच फूफियों के भी दस-बारह बच्चे पलते थे। मेरा घर उन बच्चों का ननिहाल था तो उनकी गलतियां भी उसी पर लाद दी जाती, क्योंकि वह सबसे छोटा था और उन बच्चों ने बिला-वजह उसे बदमाश घोषित कर रखा था। वह जो कहते हैं ना खेत खाए अधा मार खाए गधा। घर के सब बड़े उसके लिए विलैन थे, कोई भी उसको थप्पड़ लगा देता, दादा के पॉकेट से पैसे चोरी हों, लालटेन का शीशा फूट जाये, चूल्हे से पटाखा बरामद हो, साइकिल की चैन उतरी हुई मिले, या किसी बड़े बच्चे की किताब-कापी फटी हुई मिले उन बच्चों के हुजूम में बिना किसी तहक़ीक़-ओ-तफ़तीश के इल्ज़ाम आसानी से उसी पर डाल दिया जाता और घर का कोई बड़ा ख़ुद को जज महसूस करते हुए उसे दो-चार तमांचे रसीद कर मामला रफ़ा-दफ़ा कर देता।

ऐसा ही था मेरा घर, एक ख़ैराती यतीमख़ाना की तरह जहां सब बच्चे ऐश से रहते, खाते-पीते, पढ़ते-लिखते कि यह उनके नाना-मामूं का का घर था और हम लोग अपने ही घर में यतीम की तरह डरे-सहमे गुज़ारा करते अगरचे हमारे माँ-बाप सही-सलामत थे। और उसकी हालत तो आप जान ही चुके हैं कि वह अपने ही घर में किस क़दर किसी अजनबी की-सी ज़िंदगी गुज़ार रहा था।

सुबह जब परिंदे खुले आसमानों में क़तार बंद उड़ते चले जाते हैं, आधी सर्दी के साथ हल्की-हल्की हवा चलती है, ज़मीन पर बड़े-छोटे पत्ते ओस में नहाए होते हैं और अंधेरा पूरी तरह छंट जाता है, अब कि हम आँख मलते हुए उठेंगे और अपने कामों में लग जाएंगे अचानक एक असहनीय बदबू चारों तरफ़ हवा में फैल गई। हमारे नथनों में जलन महसूस हुई। यूं कि सांस लेना भी दुश्वार मालूम होने लगा। मानो किसी ने हवा में ज़हर घोल दिया हो।

अम्मी तो अल्लाह मियां की गाय थीं, जिन्हें बस खूंटे से बंधा रहना था और सुबह दिन नमूदार होने से पहले चूल्हा चौका में लग जाना था, यह डयूटी रात को ख़त्म होती जब पूरा ख़ानदान भर पेट खाकर मस्त होकर अपनी अपनी ख़ाबगाह में लेट जाता। संयुक्त परिवार में बहू कुछ बोले वह आज़ादी अभी गांव तक नहीं पहुंची थी। ऐसे में अपने बच्चों के अधिकार के लिए कुछ बोल पाना ओखली में सिर रखने के बराबर था। बल्कि कभी-कभी तो दूसरे बच्चों को ख़ुश रखने के लिए बिना किसी ग़लती के अपने बच्चों को अपने ही हाथों से पीटना होता था।

अब ऐसे माहौल में जो बच्चा पले बढ़े उसके जज़्बाती, मनोवैज्ञानिक और समाजी विकास की दास्तान कौन लिखे और कैसे लिखे?

अभी वे सब बच्चे पढ़-लिखकर अपना अपना कैरीयर बना चुके हैं, और वह बंदा घनी जवानी में कपड़ों में इत्र, हाथों में तस्बीह और ज़हन में गहरी तन्हाई लिए किसी रुहानी ताक़त को क़ब्ज़े में लेने की तदबीर कर रहा है।

सितंबर के आख़िरी दिन थे, धूप ज़रा नरम हो गई थी, आसमान में बादल उड़ रहे थे और कभी-कभी ज़रा हल्की-सी हवा चल जाती थी। वह ज़ोहर की नमाज़ अदा करके मस्जिद से घर नहीं लौटा, अब तो कुछ देर में असर की अज़ान भी पुकार दी जाएगी। हम लोग उसकी तलाश में निकले तो गांव के क़रीब वाले मार्किट में लोगों की एक बड़ी भीड़ इकट्ठी थी, क़रीब जाकर देखा तो पाया कि एक दूकानदार के साथ गुथा हुआ पड़ा है। कच्ची सड़क में दोनों एक दूसरे पर धूल, कीचड़, ग़ुबार और धक्कड़ से उलट-पलट हो रहे हैं।

चचाजान ने उसे खींचकर बाइक पर बिठाया और किसी तरह भीड़ से निकलकर हम लोग वापस घर लौटे। कपड़े फटे हुए, चेहरा धूल से लथ-पथ और बांहों में एक-दो जगह खरोंच के निशान… वह ग़ुस्सा से लाल-पीला हो रहा था और बड़बड़ाते हुए दुकानदारों को गाली दे रहा था।

“जो भी दुकानदार प्लास्टिक की बोतल में पानी, प्लास्टिक पैकेजिंग के साथ चिप्स, कुरकुरे, नमकीन, भुजिया बेचेगा सब हरामज़ादों को ऐसे ही जॉनसिना की तरह पटख़-पटख़ के मारुंगा। सालों ने धरती को प्लास्टिक से बांझ बना कर रख दिया है… जहां देखो वहीं प्लास्टिक, न सड़ने का नाम न गलने की नीयत… कोई भी प्लास्टिक का कारोबारी अब मेरे हाथ से नहीं बचेगा।”

वह रास्ता भर बड़बड़ाता रहा और हम लोग यह सोचते रहे कि अचानक उसके अंदर पर्यावरणवादी की रूह कैसे बेदार हो गई। घर लाने के बाद नहला-धुलाकर कपड़े बदलवाए और बालों को सौ-फ़ीसद शुद्ध सरसों तेल से भिगोकर बीच की मांग निकाली गई, जिससे देखने में वह बिलकुल शरीफ़ और मासूम लगने लगा।

रात ने स्याह चादर ओढ ली थी। गली-कूचों में चंद कुत्ते वक़फ़े-वक़फ़े से लंबी हुंकार लगा रहे थे जब मोअज़्ज़िन ने इशा की अज़ान पुकारी।

उसे खिला-पिलाकर और बहला-फुसलाकर सुलाया गया।

सुबह जब परिंदे खुले आसमानों में क़तार बंद उड़ते चले जाते हैं, आधी सर्दी के साथ हल्की-हल्की हवा चलती है, ज़मीन पर बड़े-छोटे पत्ते ओस में नहाए होते हैं और अंधेरा पूरी तरह छंट जाता है, अब कि हम आँख मलते हुए उठेंगे और अपने कामों में लग जाएंगे अचानक एक असहनीय बदबू चारों तरफ़ हवा में फैल गई। हमारे नथनों में जलन महसूस हुई। यूं कि सांस लेना भी दुश्वार मालूम होने लगा। मानो किसी ने हवा में ज़हर घोल दिया हो। हम तेज़ी से अपने-अपने कमरों से बाहर निकले कि देखें तो ये धुआं-सा कहां से उठता है। घर के पिछवाड़े में वह अपने हाथों में एक बड़ा-सा डंडा लिए जलती हुई ढेर को ज़ोर-ज़ोर से पीट रहा है। जैसे नदी के किनारे किसी ज़िद्दी लाश को जल्द-अज़-जल्द जलाकर राखकर देने की कोशिश की जा रही हो। उसके लगाए हुए अलाव से उठने वाला धुआं पेच खाते हुए बुलंद हो रहा है, धुआं के मरगोले स्याह हयूलों में तब्दील होकर हवा से बातें कर रहे हैं।

उसने कुछ भी बाक़ी नहीं छोड़ा, प्लास्टिक से बना हुआ घर का हर साज़-ओ-सामान हमारी आँखों के सामने आग और धुआं की तेज़ लपटों में था। प्लास्टिक की कुर्सियां, बोतलें, किचन के बर्तन, डिब्बे-डिबियां, प्लास्टिक का क़लमदान, मच्छर-दानी, साबुन दानी, मोबाइल का कवर, प्लास्टिक की थैलियां, चमचे, औरतों के सजने संवरने के प्लास्टिक के सभी प्रसाधन, शैंपू का डिब्बा, प्लास्टिक की कंघी ग़रज़ कि हमारी दुनिया पर अपने नुकीले पंजे गाड़ती प्लास्टिक से बनी वे सभी चीज़ें जो आजकल हमारे घरों की खूबसूरती बनी बैठी हैं, सबको उसने आग के हवाले कर दिया था। और उन जलती हुई चीज़ों पर ग़ुस्सा से डंडा मारते हुए कहता था,

“ये प्लास्टिक नहीं, ब्लास्टिक है
ये बला की छड़ी, ये तबाही की लड़ी
अज़ल से आबाद दुनिया को
अबद तक के लिए बांझ बनाने
का आला है ये साला
इसे ख़ुदा ने नहीं, आदम ने ईजाद किया
मनों, कुंतलों प्लास्टिक का कचरा
निगल जाएगा फ़िज़ा के हुस्न को
सड़क पर आवारा फिरती मासूम गायों के थनों से
समुंद्र में अटखेलियां करती मछलियों के पेट तक
नालियों की गंदगी से
मतली पर उकसाने वाली बदबू तक
ये काली घटिया रूह की तरह
हमारे लुक़्मे और घूंट को
सांस और ख़ून के बहाव को
पेशाब की झुरझुरी से
फुज़लात के अनासिर तक
सबमें भर चुकी
ये ब्लास्टिक, बला की छड़ी
ये तबाही की लड़ी
दुनिया को एक हब्स ज़दा
क़ब्र में बदल कर रख देगी
और दफ़न हो जाएंगे इसमें
उलटती साँसों के साथ
हमारे मुस्तक़बिल के सब ख़ाब।

٭

वह ग़ुस्से में गुब्बारे की तरह भरा हुआ था। ऐसे में हम उसे आगे बढ़कर रोकते तो वह हम पर ही हमलावर हो जाता।

दे-दनादन डंडे वह अपने ही लगाए हुए बड़े से अलाव पर ख़ूब झमाझम बरसा रहा था।

प्लास्टिक के ख़िलाफ़ उसके इस ऐलान-ए-जंग पर हमें कम ताज्जुब हुआ, हैरानी की बात तो यह थी उसको मेरी लिखी नज़्म प्लास्टिक की क़ब्र जो कि ख़ुद मुझे भी मुकम्मल याद नहीं है, वह कैसे मैदान-ए-जंग में डींग मारते योद्धा की तरह रज़मिया अंदाज़ में चीख़-चीख़कर पढ़ रहा है और उस भड़की हुई आग को और हवा देते जा रहा है।

वह शदीद ग़ुस्से में था, उसे किसी तरह बहला-फुसलाकर घर लाया गया। वह अब भी अनजान दिशा की ओर मुंह घुमा-घुमाकर डांट रहा था, “जो भी प्लास्टिक का सामान यूज़ करेगा उसका मैं यही हश्र करूंगा… जिधर देखो उधर ही प्लास्टिक… ऐसा लगे है दुनिया में और कोई चीज़ बाक़ी ही नहीं रही… सबकी मत मारी गई है, प्लास्टिक का करोबार करने वाली कंपनियों ने बाण चलाकर नज़रबंद कर दी है सबकी।”

हम लोगों को उसकी ज़हनी हालत पर शुबह होने लगी। ख़ानदान के लोगों ने मश्वरा करके मनोचिकित्सक के यहां ले जाने का फ़ैसला किया। हम उसे एक बंद लग्ज़री कार में मनोचिकित्सक के यहां ले गए।

घंटों क़तार में खड़े रहने के बाद हमारा नंबर आया। कंपाउंडर ने मरीज़ के साथ सिर्फ एक आदमी को डॉक्टर के चैंबर में दाख़िल होने की इजाज़त दी।

उसके साथ मैं अंदर गया।

डॉक्टर साहब मैच्योर उम्र में दाख़िल हो चुके थे और शक्ल-ओ-सूरत से एक भरपूर ज़िंदा-दिल इन्सान लग रहे थे।

दाख़िल होते ही उन्होंने मरीज़ का नाम लेकर पुकारा, “हां भई, बताओ क्या परेशानी है?”

“सर उसे प्लास्टिक से एलर्जी हो गई है, बहुत ग़ुस्सा करता है और अजीब-ओ-ग़रीब हरकतें भी…”

मैं और बहुत कुछ बताने की कोशिश कर रहा था कि डॉक्टर ने एक नागवार इशारा के साथ मुझे रोक दिया।

“मरीज़ कौन है?” डाक्टर ने हैरान होकर पूछा।

“वह है सर!” मैंने मरीज़ की तरफ़ इशारा करके कहा।

“तो उसे बोलने दो भई… तुम क्यों बोल रहे हो? वह गूंगा है क्या?” फिर डॉक्टर ने उसे बोलने का मौका देते हुए कहा, “चलो बताओ जनाब!…”

“सर मैं क्या बोलूं, बोलने से ये लोग मुझे पागल समझते हैं।”

“तुम बोलो तो सही क्या परेशानी है, मैं हूं ना?” डाक्टर ने उसकी हिम्मत-बढ़ाते हुए कहा।

“सर क्या ये सही नहीं है कि माइक्रो-प्लास्टिक की ज़्यादा मात्रा इन्सानी शरीर में जाकर कैंसर, दिल की बीमारी और गर्भ में पलते शिशु की ख़राब नशो-नुमा समेत सेहत के मसाइल पैदा कर सकती है। क्या ये सही नहीं है कि खाने के नाम पर हम तरह-तरह की चीज़ों में मिला हुआ माइक्रो प्लास्टिक खा पी रहे हैं। माहौल को गंदा कौन कर रहा है, प्लास्टिक के शॉपिंग बैग या मैं? समुंद्री जानवरों की आंतों तक प्लास्टिक के टुकड़े किसने पहुंचाए? मैंने?”

वह जैसे-जैसे बोल रहा था, उसकी आवाज़ बुलंद होती जा रही थी, हाथ पांव-कांप रहे थे। जलीय कीड़े की तरह उसके मुंह से राल टपक रही थी और आँखें लाल होती जा रही थीं। मानो कोई साइको मरीज़ अदालत में बिना देर किए इक़बाल-ए-जुर्म कर रहा हो, क्योंकि उसकी अपनी दलीलों के मुताबिक़ वह सब कुछ ठीक है, जो उसने आज तक किया।

“तुम करते क्या हो?” डॉक्टर ने उसके रसयान-विज्ञान से प्रभावित होकर पूछा।

“सर में गांव में बारहवीं के स्टूडेंट को ट्यूशन पढ़ाता था लेकिन अब उन लोगों ने मेरी प्लास्टिक के ख़िलाफ़ ऐलान-ए-जंग को पागलपन समझ लिया है, मुझे जानवर की तरह खूंटे से बांधकर रखते हैं, बड़ी-सी थाली में खाना रखकर मेरी तरफ़ पैर से ठकेल देते हैं, जैसे कि मैं इन्सान नहीं कोई आदमख़ोर दरिन्दा जानवर हूं। अब आप ही बताइए सर क्या मैं पागल हूं? पागल हूं मैं? क्या मेरी मत मारी गई है? क्या मैं दीवाना हो गया हूं? सौदाई हूं मैं?”

ये सब कहते हुए वह बहुत ज़ोर से चीख़ने लगा, उसकी रगें फूल गईं, आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं और वह लरज़ते हुए वहीं कुर्सी से बेहोश होकर गिर पड़ा।

डॉक्टर ने मरीज़ को इंजेक्शन लगाते हुए हमारी तरफ़ नागवार नज़रों से देखा और सत्रहवीं सदी के मशहूर अंग्रेज़ी ड्रामा-निगार सिरिल टूरनेर का यह क़ौल पढ़ा-

”Surely we are all mad people, and they Whom we think are, are not”

(यक़ीनन हम सब पागल हैं, और जिन्हें हम पागल समझते हैं हक़ीक़त में वही लोग होश में हैं।)

शहादत युवा कथाकार और अनुवादक है। उनके अभी तक दो काहनी संग्रह ‘आधे सफ़र का हमसफ़र’ और ‘कर्फ़्यू की रात’ प्रकाशित हो चुके हैं। उर्दू शायर ज़हीर देहलवी की आत्मकथा ‘दास्तान-ए-1857’, मकरंद परांजपे की किताब ‘गांधी मृत्यु और पुनरुत्थान’ और उर्दू अफ़सानानिगार हिजाब इम्तियाज़ अली के कहानी संग्रह ‘सनोबर के साये’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। इन दिनों अपने पहले उपन्यास ‘मुहल्ले का आख़िरी हिंदू घर’ पर काम कर रहे हैं। संपर्क : 786shahadatkhan@gmail.com

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