सुवन चंद्र : 1995 से सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियो मे सक्रिय। ‘इप्टा’ से जुड़कर नाटको का मंचन, ‘जनमोर्चा’ मे राजनीतिक और इतिहास पर लेख लेखन, उत्तर प्रदेश की खत्म होती लोक-कलाओं पर कुछ आधा-अधूरा शोध और कविता लेखन। कुछ कविताएँ इधर-उधर अखबारों और पत्रिकाओं मे प्रकाशित। मूलचंद गौतम जी की पत्रिका ‘परिवेश’ मे अंक 36 और अंक 40 में कुछ कविताएं प्रकाशित ।फिर कई सालों बाद ‘कथादेश’ के अक्टूबर 2010 के अंक मे दो कविताएं प्रकाशित। ‘वागर्थ’ के अगस्त अंक 2021 और जनवरी 2022 के अंकों मे कविताएँ प्रकाशित। ई-पत्रिका ‘शब्दांकन’ के अप्रैल अंक मे कुछ कविताएँ प्रकाशित। आजीविका के लिए एक कॉलेज मे अध्यापन।
सुवन चंद्र की ये कविताएं सामाजिक परिदृश्य और वैयक्तिक जीवन में विन्यस्त निराशा के विभिन्न दृश्यों को अभिव्यक्त करती हैं। उनकी कविताओं में समय एक विलंबित चाल में चलता है, अतीतजीविता में पीछे मुड़कर देखता हुआ-सा। उनके भीतर जैसे एक बेचैनी है जो रह-रहकर क्रोध के आलाप में तब्दील होती हुई दिखती है। अकविता के शेड्स को छूती हुई उनकी कविताओं में एक अनूठी भंगिमा है जो अपनी बेपरवाही, शिथिलता के माध्यम से एक अलहदा किस्म की काव्यात्मक व्यग्रता को सृजित करती है।

अभी तो शाम उतर रही है
अभी तो शाम उतर रही है तालाब के मटमैले पानी में
और रात, लटकी हुयी है उल्टी, ताड़ के पत्तों पे
एक अजनबी इंतजार की चादर लपेटे
सुबह, जाने कहाँ गुम हो चुकी है पीले आसमानों के पीछे
अभी तो शाम उतर रही है…
घिसी हुई चप्पलों, खौराए जूतों की रगड़ से
सड़कें गर्म होने लगी हैं
और अजीब-सी खौफनाक आवाज़ें भी निकल रही हैं
उनकी रगड़-घिस्स से
खुरदुरे हाथों की लकीरों, आंखो की झूलती पीली रौशनियों में
तमाम सारे काले-भूरे धब्बे उभर रहे हैं
बेरंगे–पुते, पपड़ाए चेहरों का झुंड गुजर रहा है तेज़ी से
पसीने से भीगी हुयी साड़ियाँ, बार-बार/गिर रही हैं
पसीने से ही तर-ब-तर ब्लाउजों से
जो आदी हो चुकी हैं गिरने और सम्हलने की!
एक छोटी बच्ची एक गीत याद कर रही है बार-बार
लेकिन उसकी चमकीली आँखें
तलाश रही हैं लगातार
उस गुम हो चुकी सुबह को
उसकी बेचैनी उसके होंठो पर अनायास ही
उठ गिर रही है
उस गीत के आगे अदृश्य दीवार-सी !
एक उदास बोझिलपन, एक ऊबन सी खुद रही है
हवाओं की सूखती-सिकुड़ती रूहों पर
तमाम सारी चहल-पहल को ज़िबह कर रहा है कोई बार-बार
और बार-बार वो जी उठ रही है !
किसी को किसी की एक मुख्तसर सी याद
अचानक आईने की ओर ले जा रही है
कोने मे रखे रिकॉर्ड पर तलत महमूद गा रहे हैं –
“एक मैं हूँ, एक मेरी बेकसी की शाम है”
सुबह के कुछ टुकड़े, अभी भी
कुछ मकानात की, अधखुली खिड़कियों की,
पतली दराजों मे पड़े है, सिकुड़े हुए से
छूटे हुये समय की तरह ताकते
फिलहाल…
अभी तो शाम उतर रही है
तालाब के मटमैले पानी में …

मानसिकता
एक लंबी शानदार चमचमाती
लाल रंग की कार के पीछे
बहुत सारे कुत्ते पड़े हुए हैं
भौंक रहे हैं गुस्से से लगातार
नहीं… नहीं…. साथियो!
कार का मालिक नहीं चला रहा है उसे
उसका नौकर चला रहा है कार
कुत्तों को सख्त नापसंद है यह!

हम प्रतिबद्ध लोग जो ठहरे ...
हम तमाम घिसे हुये काम एक साथ कर रहे हैं
जैसे कि-
हम एक ऐसा समय बुन रहे हैं
धीरे-धीरे
कि, जिसके धागे
पेंदीदार कनस्तरों के बेसुरा बजने पर भी
कतारबद्ध खड़े हो
अपने पीले दाँतों को
खीस निपोरने के लिए बाहर निकाले हुए हैं
बिल्कुल उन अहमक़ों की तरह
जो गधे के रेंकने मेँ भी
सुर-राग-लय ढूँढने के लिए प्रतिबद्ध हैं
यूँ उनकी प्रतिबद्धता
गधे के प्रति है या उसके रेंकने के प्रति
या उस तथाकथित सुर-राग-लय के प्रति
जिसके लिए, वे अपने सिर के सफ़ेद बालों को भी
नोचने के लिए हरचंद तैयार है
इसमें उनको भी महाघोर संशय है !
हम एक ऐसा समय बुन रहे हैं
धीरे-धीरे
कि, जिसमें हमारी बंद हथेलियों मेँ
कबीर के औघड़ दोहे, बेहिसाब भस्म बनते जा रहे हैं
और हमारी हथेलियां प्रतिबद्ध हैं
उनको बदलने के लिए
उस ओपदार पालिश की शक्ल मेँ
कि, जो महान चन्द्रगुप्त मौर्य के
भव्य राजभवन के खम्भों पर
शान के साथ मौजूद थी
और जो मौजूद है आज भी
उस अशोक की लाट के खूबसूरत सिंह शीर्षों पर
उतनी ही फरेबी शान से !
हम एक ऐसा समय बुन रहे हैं
धीरे-धीरे
कि, जिसमें सुईयों के दोनों तरफ छेद है!
यूँ हम अपनी मर्जी के खुदा बनाए गए हैं
और हम प्रतिबद्ध हैं
ये बेहद जरूरी बहस करने के लिए
कि, कौन सा छेद हमें स्वर्ग तक लेके जाएगा
अलबत्ते, नोकें लापता हैं सारी सुइयों की कहीं!!
हम एक ऐसा समय बुन रहे हैं
धीरे-धीरे
कि, जिसमें दर्शनीय जूतम–पैजार , आलीशान धकम–पेल से लेकर
अभूतपूर्व खून खराबा होने की पूरी संभावना है
कि, इस बुने हुए पर कौन सोएगा सबसे पहले!
चूंकि हम पाषाण-जन्य प्रतिबद्ध है मरने के लिए भी!
गोकि ये एक अलहदा मसाइल है कि
अभी ये बुना हुआ, निर्वात में ही लटका है उल्टा सा
हमारी प्रतिबद्धताओं के प्रति प्रतिबद्धताओं की ही तरह!
हम बुन रहे हैं
धीरे…धीरे…धीरे……..
पवित्रता और ईमानदारी के साथ
सारी गतियों को हांक कर
दड़बों में बंद करते हुए/ बेहिचक
खींसे निपोरते हुए / मगर
अपूर्व अद्भुत प्रतिबद्धता के साथ
आखिरकार
हम ‘प्रतिबद्ध’ लोग जो ठहरे !!!

हाँ मुझे मालूम है!
तुम जहाँ ठहरी हो
वहाँ केवल स्मृतियाँ रहती हैं
तमाम आत्मीय शोरों से दूर
कि, जहां प्रेम झरता है लगातार
वहाँ तुम्हारी सारी सहजता
एक रूखे उजाड़ स्पर्श मे बदल जाती है
तुम जानती हो शायद
स्मृतियों का भूगोल
और उनके निषेध का आयतन
बाज़ारों की राग-आलाप
और उनका पैमाना
सारी भावुकताओं को
तर्कों की विशाल छन्नी में, छानते–छानते
खुद एक ऐसी छन्नी बन जाना
तर्कों की
कि जिसके आधे छेद बंद हो चुके हैं
सचमुच बहुत भयावह होता है
और होता है उससे भी ज्यादा भयावह
लगातार बढ़ती विराटता में
खुद को छोटा होते देखना
कि, जब तुम कहती हो
“भयों मे जीना भाता है तुम्हें”
उसके बाद की सारी हंसी
सारे पेंच खोल जाती है!
नकार की सारी उत्तेजना
एक अनचाहे सुकून मे भटक जाती है
कि, जब तुम
प्रेम की सारी परिभाषाओं, सारे किस्सों को
मिथकों की संज्ञा दे देती हो
एकदम उत्तेजित होते हुए
हाँ मुझे मालूम है
तुम ठहरी हो जहां
तुम्हारी सारी व्यावहारिकता
सिद्धांतों के जड़-विलास मे बदल जाएगी एक दिन
वहाँ से कोई नहीं लौटता कभी
तुम भी नहीं लौटोगी !!!

संपर्क : 443, अवधपुरी कॉलोनी, अमानीगंज फैजाबाद (अयोध्या), मो. 9517573560