कथेतर

कोई भी आलोचक किसी पत्थर को कवि नहीं बना सकता : एकान्त श्रीवास्तव

बहुमुखी प्रतिभा के धनी एकांत श्रीवास्तव जी का जन्म 08 फरवरी 1964 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ। वे मूलतः कवि हैं। वे हिन्दी-साहित्य की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘वागर्थ’ के दो बार संपादक रहे। उनकी अनेक कृतियों का अनुवाद विदेशी भाषाओं में भी हुआ है। उनके सृजन पर अनेक शोधार्थी शोध कर रहे हैं। प्रचार-प्रसार से दूर रहने वाले एकांत जी को अनेक पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है। प्रस्तुत है मु. हारून रशीद खान की एकांत श्रीवास्तव जी से बातचीत के अंश :

कविता, कवि और पाठक के बीच क्या सम्बन्ध है?
तीनों परस्पर सम्बन्धित हैं। कवि की कविता पाठक समाज में ही स्वीकृत या अस्वीकृत होती है। पाठक समाज ही कविता का लोक समाज है क्योंकि कृषक पर लिखी कविता को कृषक कहाँ पढ़ता है, उसे तो प्रबुद्ध पाठक ही पढ़ता है। मारीना तस्वेतायेवा की कविता – पुस्तक का नाम है – ’दिन आएंगे कविताओं के’…. क्या सचमुच!
कभी न कभी तो वो सुदिन आएगा, जब एक कृषक पर लिखी कविता को कृषक पढ़ेगा। कविता, कला और साहित्य की असली सार्थकता तो तभी है। कृषकों की नई पीढ़ी बहुत हद तक पढ़ी लिखी है लेकिन रचना के संस्कार न होने से वह रचनात्मकता तक नहीं पहुंच सकती या इसका आस्वाद नहीं ले सकती। इसके कई कारण हैं। प्रमुख तो हमारी  शिक्षा-व्यवस्था ही हैं जो कविता या रचना से विद्यार्थियों को संस्कारित नहीं करती। स्पष्ट है कि सरकारी व्यवस्था है। यह सरकार का दायित्व है। लेकिन सत्ता तो सच्चे साहित्य से डरती है क्योंकि साहित्य उसकी पोल खोल देता है।

कविता के पाठ में अर्थ कहाँ स्थित होता है? और पाठक उसे किस तरह ग्रहण करता है?
यह कविता की प्रकृति पर निर्भर करता है और कहीं भी स्थित हो सकता है। आरम्भ में, मध्य में या अंत में। कविता में जितना कहा होता है, उससे अधिक अनकहा होता है। इस अनकहे को सुनने-पढ़ने के लिए दीक्षित संस्कारित कान और दृष्टि चाहिए। कविता का अर्थ मंच से अधिक उसके नेपथ्य में मौजूद होता है और वह जो कहा गया है ’ बिटविन टू लाइन्स-दो पंक्तियों के बीच कहीं कविता का अर्थ होता है। अंग्रेजी आलोचक आई-ए-रिचडर्स की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं। ’कविता शब्द का पद चिन्ह मात्र है। असली कविता शब्दों के पीछे कहीं छुपी हुई है। पाठक अपने परिवेश और प्रकृति के अनुसार कविता के अर्थ को ग्रहण करता है। यह ’अर्थ’ ’ठीक वही नहीं’ होता जो कवि द्वारा कविता में प्रक्षेपित अर्थ होता है। इसलिए आक्टोविया पाज मैक्सिकों के कवि-ने कहा है कि ’प्रत्येक पाठक एक दूसरा कवि है।’

क्या कविता अपना पाठ स्वयं प्रस्तावित करती है और यह निपट एकार्थवाची पाठ होता है? अथवा पाठक अपनी संवेदना और ज्ञान के द्वारा उसका निजी पाठ निर्मित करता है।
जी हाँ, एक पाठ तो वह स्वयं प्रस्तावित करती है जो अर्थ कवि के मन में होता है। किन्तु समय और संदर्भ के अनुसार उसका भिन्न पाठ भी हो सकता है। कभी-कभी वह दूसरा और तीसरा अर्थ कवि के अचेतन में ही रह जाता है। मुखर होकर कवि मन मे, कविता में वह सामने नहीं आता। पाठक इसकी खोज करता है। कविता का पाठ एकार्थवाची नहीं होता। पाठक के संवेदनात्मक ज्ञान से उसका अपना निजी पाठ निर्मित होता है, यह सच है।

कविता के समीप जाने के लिए क्या पाठक को कोई तैयारी करनी होती है? क्या कविता सहज बोध गम्य होनी चाहिए? या उसे एक संस्कारी पाठक चाहिए।
यह कवि और कविता पर निर्भर है। केदारनाथ अग्रवाल की ’वह चिड़िया’ और भवानी प्रसाद मिश्र की ’सतपुड़ा के घने जंगल’। जैसी कविताओं के लिए कोई तैयारी की आवश्यकता आवश्यकता नहीं। लेकिन मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय जैसे कवियों को पढ़ने के लिए कविता  के संस्कार या दीक्षित नेत्रों की आवश्यकता है। अगर कविता सहज बोधगम्य है तो अच्छी बात है। अधिक पाठकों तक पहुँचेगी। लेकिन इसे अनिवार्य शर्त या प्रतिमान की तरह नहीं देख सकते। अपेक्षाकृत जटिल कविता के लिए संस्कारी पाठक तो चाहिए।

पाठ बहुलता अक्सर कविता की नियति है तो क्या किसी सर्वसम्मत पाठ की सम्भावना हो सकती है जो कवि के पाठ के आसपास पहुँच सकती हो? अथवा कवि के पाठ से दूर हो जाने में पाठकीय पराक्रम है? कविता का प्रामाणिक पाठार्थ क्या संभव अथवा आवश्यक भी है?
पाठ बहुलता का अर्थ अब यह भी नहीं कि कविता के अर्थ का अनर्थ किया जाए। सर्व सम्मत पाठ प्रायः लोकतांत्रिक है क्योंकि यह बहुमत के साथ है। अब ’राम की शक्ति पूजा’ (निराला) तो  एक सर्व सम्मत पाठ तक पहुँच चुकी है। इसके वाक्यों या अंशों का चाहे नया पाठ हो जाए लेकिन समग्र कविता को उसके संदर्भ में हम युद्ध की पृष्ठभूमि में ही देख सकते हैं। तब भी और अब भी। कवि के पाठ के आस पास तो रहना ही चाहिए। इतनी दूर की कौड़ी लाने का क्या अर्थ कि कवि का मूल मंतव्य ही पीछे छूट जाए। कवि के पाठ से बहुत दूर हो जाना कदापि उचित नहीं हैं। ऐसा पराक्रम स्वीकार नहीं हो सकता।  कविता का प्रामाणिक पाठार्थ बिल्कुल सम्भव है। ऐसा कहना कवि, कविता और पाठक के हित में आवश्यक है।

कविता को समझने और समझाने की प्रक्रिया में समीक्षक का क्या योगदान है? क्या प्रबुद्ध पाठक समीक्षक की भूमिका को सीमित अथवा खत्म नहीं कर देता?
उत्तर-कविता की व्याख्या में समीक्षक का योगदान बिल्कुल है लेकिन समीक्षक तो कवियों, लेखकों के बीच ही पढे जाते हैं।  कवि और पाठक के बीच आलोचक नहीं होता। कोई भी पाठक आलोचक को पढ़कर कवि को नहीं बन। मैं विशुद्ध पाठकों की बात कह रहा हूँ जो लेखक कवि नहीं है। अपवाद स्वरूप एकाध अत्यन्त लोकप्रिय आलोचकों जैसे नामवर सिंह जी को छोड़ दीजिए तो विशुद्ध पाठक को आलोचक और आलोचना से कोई लेना देना नहीं होता। वह सीधे रचना पढ़ता है, कविता पढ़ता है – ऐसे पाठकों की संख्या चाहे कम हो। पाठक तो तेल देखता है और तेल की धार। फिर कोई भी आलोचक किसी पत्थर को कवि नहीं बना सकता।
आलोचक को भी अपनी आलोचना के लिए अच्छे कवि और अच्छी कविता की आवश्यकता होती है। अन्यथा उसकी आलोचना पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है। नएपन के लिए, कुछ नया करने  की इच्छा से मित्रतावश, सहानुभूति से या किसी ऋण से उऋण होने के लिए यदि आप औसत और साधारण  कवियों पर लिखते हैं तो इससे आपकी आलोचना की मूल्यवत्ता कम होती है। नुकसान आपका ही होता है। सब किया धरा पानी में चला जाता है। एक दो आलोचकों में मुख्य धारा के चर्चित कवियों से बचने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। लेकिन भूस के ढेर में अन्न के दाने भला कहां से मिलेंगे। प्रबुद्ध पाठक अपना समीक्षक स्वयं होता है चाहे वह आलोचना न लिखता हो। उसे समीक्षक की आवश्यकता नहीं है। कविता पाठक से सीधा संवाद है। कविता सीधे, अपनी गहरी भावप्रवणता (और विचार से भी) पाठक के हृदय को संवेदित करती है। यहाँ उसे आालोचना की वैशाखियाँ नहीं चाहिए। आलोचक की आवश्यकता कवि को होती है। स्वयं को, और स्वयं की कविता को दूसरी दृष्टि से देखने और समझने के लिए।

आलोचक को भी अपनी आलोचना के लिए अच्छे कवि और अच्छी कविता की आवश्यकता होती है। अन्यथा उसकी आलोचना पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है।

छांदस चेतना कविता के सम्प्रेषण और प्रचार में बाधक नहीं, बल्कि साधक है। एक कवि के रूप में चाहे जितना भी होऊँ - मैं स्वयं अपराधी हूँ और कटघरे में खड़ा हूँ।

कविता के आस्वाद में पाठक के वैचारिक आग्रहों की क्या भूमिका हैवे आग्रह किस हद तक पाठ प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं?
कविता के आस्वाद में वैचारिक आग्रहों की बड़ी भूमिका होती है। उदाहरण के लिए यदि कोई बडे़ बाँधों का जैसे सरदार सरोवर बाँध का समर्थक हो, सरकार का समर्थक हो। इसके लिए आदिवासियों के विस्थापन को जो अनुचित न समझता हो, उस पाठक को इन सबके विरोध में और मेधा पाटेकर के समर्थन में लिखी कविता कैसे पसंद आ सकती है? उस पाठक के आग्रह उसे ऐसा करने से यानी कविता को स्वीकार करने से रोकेंगे।
अंध हिन्दुओं को, आर.एस.एस. के लोगों को कट्टर भाजपाईयों को हिन्दू धर्म की संकीर्णताओं और सीमाओं को उजागर करने वाली रचना या कविता क्यों स्वीकार होगी। जात-पाँत, छुआ छूत, वर्णाश्रम के चार वर्ण ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जैसी पतित व्यवस्थाएँ हिन्दू धर्म में ही इतनी कट्टरता से देखने को मिलती हैं। मनुष्यों को विभाजित करने वाली यह व्यवस्था एक धार्मिक कुरीति है, पाखंड है, यह धर्म नहीं है। धर्म तो उच्चतम मानवीय गुणों का समुच्चय है।
इस तरह से, वैचारिक आग्रह पाठ प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं । जिस बचपन से सौतेली ने माँ के अत्याचार सहे हैं, उसे प्रतिनायिका की तरह देखा हो, वह ममतालु माँ पर लिखी  कविता को शायद ही स्वीकार करे। मनुष्य की प्रकृति और परिवेश ही इन आग्रहों का निर्माण करते हैं।

क्या समाज वैज्ञानिक अथवा साहित्येत्तर पूर्व धारणाएँ कविता की आस्वादन में मदद करती हैंअथवा कविता को खालिस कविता की शर्तों परउसकी स्वायत्ता का सम्मान करते हुए पढ़ा जाना चाहिए।
समाज वैज्ञानिक धारणाएँ या साहित्येत्तर पूर्व धारणाएं जिनसे हम दीक्षित हुए या जिनसे हमारे संस्कार बने हमारी जो शिक्षा व्यवस्था है, जो सामाजिक परिवेश है, हमारी दृष्टि का निर्माण तो यही सब मिलकर करते है। ये धारणाएं प्रगतिशील या निःगतिशील हो सकती हैं। तो कुल मिलाकर यह जो निर्मित, विकसित या संस्कारित दृष्टि है – इसी से तो हम किसी कविता को, किसी रचना को आपाद मस्तक देख सकते हैं। निस्संदेह ये धारणाएँ, कविता के आस्वाद में मदद करती हैं। कविता को खालिस कविता की तरह, उसकी स्वायत्तता का सम्मान करते हुए पढ़े जाने वाली बात सुनने कहने में अच्छी तो लगती है किन्तु आप बताएँ कि यह कैसे होगा? कैसे सम्भव है? क्या कँवल के फूल की भीनी सुरभि का आस्वाद लेते हुए उस सरोवर को भूला जा सकता है? जिसमें वह खिला है?
क्या किसी भी फूल को उसके वृत से उस के पौधे से अलग करके देखा जा सकता है? क्या किसी वृक्ष के सौंदर्य को उस वन के सौंदर्य से विलग करके देखा जाना संभव है, जिस वन समाज का वह वृत नागरिक है।

क्या बिम्ब प्रतीकनिजंधर या मिथक के उपयोग से कविता जटिल हो जाती हैअथवा उनका प्रयोग काव्यानुभव की जटिलता को सुलझाने में मदद करता हैकविता में जटिलता या कठिन होना कवि का अवगुण है अथवा कठिन कविता का सामना करने से बचना पाठक की कमजोरी है?

बिंब, प्रतीक और मिथ के प्रयोग से कविता जटिल नहीं आसान होती है। इनसे निरा अभिधात्मक वक्तव्य काव्यात्मक हो उठता है: बल्कि कविता, के ये घटक ही तथाकथित कविता या कविता नुमा गद्य को कविता बनाते हैं। ये ही कविता के, काव्यात्मकता के रक्षा कवच हैं। अन्यथा गद्य बहेलिया कविता का आखेट कर लेगा य बिम्ब, प्रतीक, मिथ में और चीजों को भी जोड़ा जा सकता है जैसे – भाषा, शिल्प, संवेदना और विचार – हालांकि संवेदना और विचार कविता की आंतरिक संरचना में यानी उसकी आत्मा में भी घुले मिले होते हैं।
आपने गाँव में पहले जो मिट्टी के घर बनते थे, उन्हें देखा होगा। विचार की मिट्टी में संवेदना का शब्द मिलाइए फिर उसमें पेरउसी, यह छत्तीसगढ़ी का छंद है जिसका अर्थ है-  पैरा या पुआल पर धान के सूखे पौधे जिनके दाने अलग किये जा चुके हैं। इसी पैरा या पुआल को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है। इसे ही पेरउसी कहते हैं – (पैरा से  पेरउसी बना) मिला दीजिए ताकि मिट्टी बँधी रहे। इन नन्हें नन्हें सूत्रों के द्वारा। फिर दीवाल खड़ी कीजिए। एक पात सूखने के बाद, दूसरी फिर तीसरी परत। धीरे-धीरे मिट्टी का घर यानी कविता का घर तैयार होता है। उपर्युक्त काव्य घटक ’पेर उसी’ पुआल का काम करते हैं जिससे कविता की दीवाल, कविता का घर बंधा रहता है अन्यथा वह भरभराकर गिर पड़ेगा।
कविता में जटिल होना कवि की प्रकृति है, उसका अवगुण नहीं। जैसे मुक्तिबोध की कविता। अब यह दीगर बात है कि मुक्तिबोध जैसे महाकवियों का अनुगमन कर समकालीन हिन्दी कविता के कुछ कवि भी अपनी अनुभव-विपन्नता और काव्यगत असफलताओं को छुपाने के लिए तथाकथित बौद्धिक जटिलता की ओट में छुपकर कविता लिखते हैं। लेकिन आप जानते है कि बाजार में नकली घी नहीं चलता। इस सम्बन्ध में पाठक की कोई कमजोरी नहीं है। जो कमजोरी है वह कवि की कमजोरी है। वैसे अपवादों को छोड़ दें तो मुझे लगता है कि सरल लिखना अधिक कठिन कार्य हैं।

क्या छांदस चेतना ….आज की कविता के सम्प्रेषण और प्रचार में सचमुच बाधक है। अथवा उससे सम्प्रेषण अधिक बोधगम्य होता हैया फिर छंद अनुभव की कंडीषनिंग करते हैंइसलिए उनसे मुक्ति अपरिहार्य है।

समकालीन हिन्दी कविता में छंद लगभग अनुपस्थित है। छांदस लेखन वाले गिनती के इक्का दुक्का कवि हो तो हों। सन् 1947 की राजनीतिक मुक्ति के बाद जैसे कविता ने धीरे-धीरे छंदों से भी मुक्ति पाली यद्यपि इसका आगाज सन् 1947 से पहले ही निराला ने कर दिया था। मुक्त छंद के प्रवर्तक अग्रदूत वहीं थे यानि मुक्त छंद को हिन्दी में लाने का श्रेय उन्हीं को है। यद्यपि अंग्रेजी से मुक्त छंद बांग्ला कविता में पहले आ चुका था। रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा। बांग्ला से हिन्दी में लाने का काम निराला ने किया। लेकिन स्वयं निराला ने अपनी कविताओं में मुक्त छंद के साथ-साथ छंद को बचाये रखा। यहाँ तक कि उनकी लम्बी कविता ’राम की शक्ति पूजा’ में छंद देखने को मिलता है। बाद में क्रमशः धीरे-धीरे छंद गायब होते गए। किन्तु इस तथ्य को एक दुर्घटना की तरह हिन्दी कविता के इतिहास में रेखांकित किया जाना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का सीधा प्रभाव जो गैर साहित्यिक या गैर संस्कारित पाठकों पर पड़ता थाय वह कम होता चला गया। वरिष्ठ कवि इसे समझते थे – भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर और अज्ञेय के यहाँ कुछ छंदबद्ध कविताएँ देखने को मिलती हैं। केदारनाथ सिंह ने ’आज पिया रात भर पिछवारे पहरू ठनका किया’ और ’धान पकेंगे कि प्रान पकेंगे…।’ जैसी छंदबद्ध कविताएँ लिखी। सर्वेश्वर ने ’सुहागिन का गीत’ लिखा। गीतकारों, नवगीतकारेां की पीढ़ी साथ-साथ चलती रही। हरिवंशराय बच्चन, दुष्यंत कुमार, अश्वघोष, नईम, शील, रमेश रंजक, रामानाथ अवस्थी, आरसी प्रसाद सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, शान्ति सुमन आदि। सम्पूर्ण सूची तुरन्त प्रस्तुत करने में असमर्थ हूँ। स्मृति की सीमा है। अनेक नाम छूट रहे होंगे। आगे चलकर अदम गोंडवी का नाम जुड़ता है।
लेकिन राजेश जोशी, अरूण कमल, उदय प्रकाश, मंगलेश, डबराल, असद जैदी, इब्बार रब्बी, विष्णु नागर, नरेन्द्र जैन, अजीत चैधरी और उनके पहले विष्णु खरे, चन्द्रकान्त देवताले, विनोद कुमार शुक्ल, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्रपति अशोक वाजपेयी, लीलाधर जगूड़ी, विजेन्द्र, ऋतुराज, वीरेन डंगवाल आदि के कविता परिदृश्य में छंद कम होते गए। अपवाद स्वरूप रघुवीर सहाय की ’रामदास’ उदय प्रकाश की ’ताना बाना’ डबराल की लोकगीत से प्रेरित एक कविता में कुछ प्रयोग देख सकते हैं। कुमार विकल के यहां तुकों का सार्थक इस्तेमाल दिखता है।
तो यह एक दुर्घटना थी। छांदस चेतना कविता के सम्प्रेषण और प्रचार में बाधक नहीं, बल्कि साधक है। एक कवि के रूप में चाहे जितना भी होऊँ – मैं स्वयं अपराधी हूँ और कटघरे में खड़ा हूँ। मुझे लगता है, छोटे-छोटे काव्यानुभवों को तो छंदो में दर्ज किया जा सकता है, चाहे लम्बी कविता  (जैसे कुआनों नदी, सर्वेश्वरदयाल, सक्सेना) में छंद बाधक है। यद्यपि यहाँ भी अदम गोडवी की लम्बी कविता ’चमारो की गली’ अपवाद स्वरूप देखी जा सकती है। प्रत्येक समकालीन हिन्दी कवि को जो मुक्त छंद में ही लिख रहा है – कुछ कविताएँ छंदबद्ध लिखने की आज आवश्यकता है ताकि हिन्दी कविता से छिटक गए पाठक फिर उसके निकट आ सकें।
नामवर सिंह ने एक बार कहा था कि निश्किल होकर ही खड़ी कविता लिखी जा सकती है। आप छंद की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाइए कि मुक्त छंद की कविता के आलोचक और कवि भी जब व्याख्यान देते है तो प्रायः अपने विचारों को प्रभावी बनाने के लिए गालिब, मीर, दुष्यंत कुमार जैसे कवियों की गजलों को उद्धृत करते हैं, वे मुक्त छंद की कविता को उद्धृत नहीं करते हैं कम करते हैं।
मुक्त छंद के कारण प्रत्येक पांचवें घर में एक कवि पैदा हो गया है। अपने विचार का एक पैराग्राफ गद्य में लिखिए और उसे कविता के साँचे में, छोटी-बड़ी पंक्तियों में सजा दीजिए। बन गई कविता। मैथिली शरण गुप्त ने जो लिखा है ’राम’ की जगह ’मुक्त छंद’ को रख दीजिए। ’राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य हैं, कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।’
इधर हिन्दी में गद्य कविता के पैरोकार बहुत बढ़ गए हैं। तो क्या छंद में न लिख पाने की अपनी विफलता और अनुभवों की कभी को छुपाने के लिए? ये तो राम जाने। लेकिन उनसे विनम्र आग्रह किया जा सकता है कि फिर आप गद्य ही लिखिए। बेचारी कविता की गर्दन तो छोड़ दीजिए। रघुवीर सहाय ने मजेदार चुटकी ली है – ’सुकवि की मुश्किल/सुकवि की मुश्किल/किसने कहा था, आपसे/आइए कविता लिखिए।’  लेकिन समर्थ कवियों ने मुक्त छंद में भी अनिवार्य काव्य उपादानों की रक्षा की है। और कविता को कविता बनाए रखा। किन्तु यह सत्य है कि छंद अनुभव की कंडीशनिंग भी करते हैं क्योंकि प्रत्येक दूसरी पंक्ति में छंद और तुक के निर्वहन की आवश्यकता (विविधता) होती है। ऐसे भी हमारा ध्यान छंद पर तुकों की खोज में चला जाता है भाव-विचार पीछे छूट जाते हैं। गांव का तुक तो! पाव, छाव, नाव से जोड़ना ही पड़ेगा तो आपके विचारो को, संवेदनाओं को भी तुकों के हिसाब से ढलना होगा समायोजित होना होगा। ऐसे में छंद का स्वछंद प्रवाह तो जगह-जगह बांध बनाने में बाधित होगा ही।
मुक्त छंद की लोकप्रियता का यही कारण है कि उसमें आपके आवेग बेरोक टोक आते है। लेकिन मुक्त छंद का भी छंद है। उसके अनिवार्य काव्य घटक हैं। उनका अनुपालन आवश्यक है। तभी कविता, कविता के रूप में बच पायेगी। कागज पर भी और पाठक की स्मृति में भी।

इधर विकसित हो रहे … ज्ञानाश्रयी समाज (नालेज बेस्ड सोसायटी) में कविता का क्या स्थान दिखाई देता है।सभ्यता की गति प्रौद्योगिकी और उससे जुड़े सांस्कृतिक बदलाव के साथ वह किस तरह से कदम मिला सकेगी?
आपका आशय संभवतः तकनीकी दृष्टि से दक्ष पीढ़ी और उसके इस नव्य समाज से है – कम्प्यूटर क्रान्ति और मोबाइल क्रान्ति के बाद की दुनिया प्रौद्योगिकी में दीक्षित वर्तमान जन समाज। यहाँ भी आप देखें कि कविता का स्थान तो कोई लेने नहीं जा रहा क्योंकि फेसबुक, व्हाटएसप्प यानी सोशल मीडिया में हिन्दी का साहित्य (और कविता भी) भरपूर दिखाई देता है। उनमें सार्थक-निरर्थक दोनों तरह की रचनाएँ है यानी आपको भूस को अलग करना पड़ेगा। तब जाकर आप अन्न के दानों को प्राप्त कर सकेंगे।
किन्तु सोशल मीडिया में कविता की उम्र दैनिक समाचार पत्रों की तरह एक दिन की दिखाई पड़ती है। चीजे वहाँ स्थायी या दीर्घायु नहीं है। थोड़ी-थोड़ी देर में दृश्य बदल रहे हैं। पाठक दर्शक का चित्त चंचल और अस्थिर है-अभी यह और अभी वह।
यह अवश्य है कि गूगल ने उत्तम वैश्विक साहित्य और कविता तक पहुँचने के लिए रास्ते बहुत आसान कर दिए गए हैं। प्रिंट साहित्य को फर्क तो पड़ा है किन्तु ऐसा भी नहीं कि प्रिंट साहित्य के लिए खतरा पैदा हो गया हो और उसका अस्तित्व ही दाँव पर लग गया हो। भारत में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की किताबें निरंतर आ रही है। अमेजन, फ्लिपकार्ट जैसी सुविधाओं के चलते किताबों की सुलभता दूरस्थ गाँव, कस्बों के लिए भी आसान हो गई।
सभ्यता और समाज की मूल चिंताएँ वही हैं – मनुष्य को मनुष्यता की, रक्षा। सांस्कृतिक बदलाव के साथ कविता की यात्रा जारी है। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि प्रत्येक समय, प्रत्येक दौर और काल में सार्थक साहित्य और विशेष रूप से कविता का पाठक समाज बहुत बड़ा नहीं रहा है। छंद मुक्त होने पर वह और भी सिमट गया है। किन्तु सच्ची, सार्थक, लोकतांत्रिक कविता प्रत्येक समय रही है रहेगी और वह पढ़ी जाती रहेगी। और अब तो कृत्रिम मेधा भी कविता लिख रही है, ड्राइंग कर रही है – ’तो वही न जो उसमें फीड किया गया होगा- अभी इस सम्बन्ध में अधिक जानकारियाँ उपलब्ध नहीं या मुझे नहीं पता। किन्तु क्या यह चिंता का विषय नहीं होना चाहिए? क्या इसका विरोध नहीं होना चाहिए। भारत में इस सम्बन्ध में सन्नाटा है, लेकिन पश्चिम में विरोध शुरू हो गया है। शंभुनाथ जी ने यह ठीक कहा है अभी कि कृत्रिम मेघा मनुष्य की तरह कल्पना नहीं कर सकती। फिर भी, उसे यहाँ तक पहुँचने से भी रोका जाना चाहिए। अन्यथा धनिकों का वर्ग अपने लोभ-लाभ के लिए सरकारो को खरीदकर या दबाव बनाकर पूरी सभ्यता को ही कृत्रिम मेधा के हाथों सौंप देगा। तब बच्चे, स्त्रियां, बीमार, बूढ़े, अपाहिज इस कृत्रिम मेधा की दृष्टि में फालतू के लोग होंगे। गैरलाभप्रद, हानिकारक, नान प्रोडक्टिव। वह समय अभी दूर है लेकिन क्या पता पूंजी और फासिज्म के दौर में ऐसे लोगों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाए, और उन्हें खत्म करने की प्रस्तावना तैयार कर ली जाए? यह मेरी आशंका है लेकिन निराधार नहीं है। मनुष्यता और कविता जुड़वाँ बहनें हैं। जब तक एक बची है, दूसरी भी बची रहेगी।

इन दिनों हिन्दी कविता … ठहर-सी गई लगती है। एक ही तरह की बने बनाए ढर्रे वाली कविताएँ लिखी जा रही है। काफी समय से कोई नया प्रयोग नहीं दिखता। इसकी क्या वजह मानते हैं आप?
क्योंकि कवि जीवन ठहर गया है। वह अधिक खाता-पीता, अघाया हुआ, सुखी, शान्त और बहुत हद तक कुलीन होता चला गया है। ऐसे में गतिरोध हटे कैसे? अच्छी कविता और नये प्रयोग हो कैसे? जैसे प्राचीन समय में किसी वन प्रांतर से गुजरते हुए किसी वृक्ष के नीचे सत्तू या चना चबेना (और अब पिज्जा, बर्गर)। खाकर बटोही सुस्ताता था। अपनी गठरी को सिरहाना बनाकर और उसकी झपकी लग जाती थी। तो कवि भी जैसे अपनी कविता की गठरी एक ओर रखकर प्रायः सुस्ताता दिखाई पड़ता है। तो प्रत्याशा की जानी चाहिए मुम्बईया फिल्म के हीरो की तरह या देवदूत की तरह, निराला की तरह कोई सबल और समर्थ कवि आए और ऐसे कवियों के मुँह में एक घूंसा मारकर इनकी झपकी तोड़े। हिन्दी कविता का समकालीन परिदृश्य यानी इसका सत्तर प्रतिशत हिस्सा ऐसे ही ठहरे हुए कवियों की ठहरी हुई कविता से भरा पड़ा है – उसमें शाइनिंग इंडिया तो है, भारत वर्ष गायब है (आप मुझे भी इस में सम्मिलित समझें, इससे पहले की लोग मुझ पर टूट पड़ें) लेकिन बाकी तीस प्रतिशत हिस्सा समर्थ कवियों की अच्छी कविताओं से भरा पड़ा है -अभी ’आलोक धन्वा’ की ’मुलाकातें’ की बात कीजिए या अरूण कमल की ’रंग साज की रसोई’ की। कुछ नये लोगों में भी जो दूरस्थ भारत के सामने आ रहे हैं – ताजगी हैं। शहराती कवियों में प्रायः (अपवादों को छोड़कर) भाषा और शिल्प की समझ तो है लेकिन ’कंटेंट’ की दृष्टि से वे बहुत गरीब हैं।
नया प्रयोग प्रत्येक समय हो, यह आवश्यक नहीं। प्रत्येक समय कला और साहित्य में इस ’अच्छे’ का प्रतिशत कम ही रहता है। अतः यह कोई विशेष चिंता की बात नहीं। फेसबुकिया दौर में ’कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है।’ हमें भूसे से अन्न को अलग करना है।

गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले युवा लेखक मु. हारून रशीद खान लंबे अरसे से रचनाकर्म में संलग्न हैं। विशेषतः साक्षात्कारों में उनकी रुचि भी है और विशेषज्ञता भी। ‘सृजनपथ के पथिक’ और ‘मेरी गुफ्तगू अदीबों से है’ शीर्षक से साक्षात्कारों की दो पुस्तकें और अन्य कई संपादित और मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘कुबेरनाथ राय रचनावली’ का भी सम्पादन किया है। उनसे मोबाईल नंबर : 9889453491 और ई-मेल : mdharoon.khangzp786@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

2 Comments

  1. बेहतरीन, सारगर्भित एवं महत्वपूर्ण साक्षात्कार!
    आप दोनों को शुभकामनाएं एवं बधाई।

  2. सबद का, हारुन रशीद जी का और प्रतिक्रिया देने के लिए सभी लेखक- कवि और पाठकों का हृदय से आभार प्रकट करता हूं
    – एकान्त श्रीवास्तव

अपनी टिप्पणी दर्ज़ करें

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button