हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक और विचारक शंभुनाथ कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं। वे केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक के रूप में भी कार्य कर चुके हैं। संप्रति वे भारतीय भाषा परिषद के निदेशक और ‘वागर्थ’ मासिक के संपादक हैं।
उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं- संस्कृति की उत्तरकथा (2000), सभ्यता से संवाद (2008), रामविलास शर्मा (2011), भारतीय अस्मिता और हिंदी (2012), कवि की नई दुनिया (2012), राष्ट्रीय पुनर्जागरण और रामविलास शर्मा (2013), उपनिवेशवाद और हिंदी आलोचना (2014), प्रेमचंद का हिंदुस्तान : साम्राज्य से राष्ट्र (2014), हिंदी उपन्यास : राष्ट्र और हाशिया (2016), हिंदू मिथक: आधुनिक मन (2019), भारत की अवधारणा (2020), भारतीय नवजागरण : एक असमाप्त सफर (2022), हिंदी नवजागरण : भारतेंदु और उनके बाद (2022)। इसके अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक क्रांति के दस्तावेज (दो खंड, 2004), 1857, नवजागरण और भारतीय भाषाएँ (2007), हिंदी पत्रकारिता : हमारी विरासत (दो खंड, 2012), प्रसाद और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन (2013), हिंदी साहित्य ज्ञानकोश (सात खंड, 2019) आदि पुस्तकों का सम्पादन भी किया है।
शंभुनाथ अपने लेखन और वैचारिक अभिव्यक्तियों के लिए निरंतर चर्चा में रहते हैं, सोशल मीडिया पर भी उनके लिखे को काफी महत्व के साथ पढ़ा जाता है। ‘सबद’ के लिए युवा लेखक और चर्चित साक्षात्कारकर्ता मु. हारून रशीद खान ने उनसे यह खास बातचीत की है।

क्या इक्कीसवीं सदी में हिन्दी-कविता पिछली सदी की तुलना में विकसित हुई है?
पिछली सदी की हिन्दी-कविता ने कई बडे आंदोलन देखे हैं, जैसे- छायावाद, नई कविता, आधुनिकतावादी कविता, प्रगतिशील आंदोलन। वैसा विस्तार, युग पर गहरी पकड़ और परम्परा से विद्रोह का भाव इन पच्चीस सालों में नहीं आया है। इस सदी की कविताएँ अनिश्चय के वातावरण में लिखी जा रही हैं, लेकिन जीवन के संकट को ज़रूर उभार रही हैं। इस युग की कविताओं की एक अन्य खूबी बहुस्वरता है, नए स्थानों से बड़ी संख्या में कवियों का सामने आना है।
आज की कविताओं का मूल स्वर क्या है?
किसी भी युग में कविता का कोई एक मूल स्वर नहीं रहा है। अब ‘बिम्बों’ की जगह ‘आवाज़ों’ ने ले ली है, आज अनगिनत आवाजें है और कविता का कोई तय आकार-प्रकार नहीं है। कहा जा सकता है कि आज का कवि भुलावों और भय का सामना करते हुए लिख रहा है। इन दिनों बौद्धिक छायावाद बढ़ा है; हर तरफ हिंसा है, शोर है। आम नागरिक चाबी वाले खिलौने बना दिए जा रहे हैं, गरिमाहीन लोग ‘हम-वे’, ‘बाहरी-भीतरी’ में विभाजित हो रहे हैं। एक बड़ा दर्दनाक समय है। फिर भी अनिश्चय के दर्द के बीच आखि़र मनुष्य तो होते ही हैं, जो नई राह खोजते हैं। फिलहाल लोगों का दुख-दर्द भी विभाजित हैं, लक्ष्यों में टकराव है। आज की कविता एक नए दौर के विभाजन को विभिन्न स्वरो में वाणी दे रही है।
क्या फिर हिन्दी-कविता इस सदी में किसी संकट का सामना कर रही है?
आज की कविता के सामने सबसे बडा संकट संवेदना का संकट है। पिछले कुछ दशकों में स्त्री-दलित-विमर्शों ने स्वानुभव को महत्व दिया था। स्वानुभव सिकुड़कर सामुदायिक अनुभववाद में सीमित हो गया ‘उन पर’ कृत्रिम ‘पर’ बनने लगे। इसलिए साहित्य-संसार में जरूरी हो गया है कि ‘स्वानुभव’ का अतिक्रमण करके ‘संवेदना’ में वापसी हो। समाज में संवेदना के ह्रास को एक बड़े संकट के रूप में देखने की जरूरत है। दरअसल, जब भौतिक विकास के साथ ज्ञान और नैतिकता का विकास नहीं होता, बल्कि इनका ह्रास होता है, तो संवेदना का भी ह्रास होने लगता है। आज के जीवन और कविता दोनों के सामने यह एक बड़ा संकट है कि ‘उन पर’ का पुनर्निर्माण कैसे हो।
इन दिनों पाठकों का संसार बदल गया है, जो कवि हैं वे ही कविता के पाठक भी हैं। इस पर आपकी क्या राय है?
कविता और समाज के बीच खाई चौड़ी हुई है। पाठक आज मूक दर्शक है। धन और ऐश्वर्य के बढ़ते आकर्षण, राजनैतिक सत्ता के पीछे दौड़ और तकनीकी शिक्षा की लोकप्रियता के दौर में कविता ‘बेकार की चीज़’ समझी जाती है। आज वह अरण्यरोदन है, जबकि किसी भी देश की संस्कृति मे साहित्य ही मनुष्यता की सच्ची आवाज़ हुआ करती है। प्राचीनकाल से मनुष्य ने अपनी पीड़ा, उल्लास और सामाजिक निर्माण की यात्रा में कविता को अपनी आत्मा की आवाज़ बनाकर रखा था। धर्म और दर्शन पहले से थे, फिर भी वाल्मीकि ने महाकाव्य की रचना की; पद और सबद-साखी रचे गए। दरअसल, कविता हर युग मे कृत्रिम सभ्यता से एक बडी मुठभेड़ है। वह आंखों से सभ्यता के कृत्रिम पर्दे हटाती है। यदि मूकदर्शक पाठक नही बनेंगे तो वे कृत्रिम सभ्यता के अंधेरे में होंगे।
क्या आज कविता के पाठक केवल कवियों तक सीमित नही रह गए हैं?
पाठक एक अदृश्य समाज है। आज भी साहित्य के पाठक हैं, क्योंकि मनुष्यता हाशिये पर जाकर भी मिटी नहीं है। कविता हमारी मातृभाषा की एक सुंदर दुनिया है और इसका आकर्षण समाप्त नहीं हुआ है। कविता लोगों को अपनी नजरों से दुनिया को देखना सिखाती है। आज हज़ारों कवि हैं, क्योंकि वे स्वतंत्र रूप में अपनी नज़रों से अपने आस-पास और सम्पूर्ण सृष्टि को देखना चाहते हैं। यह एक बड़ी सफलता है साहित्य की, हजारों लेखक होना।
छायावाद, नई कविता आदि के युग में कुछ ही इने-गिने कवि केन्द्र में थे। वे आपस में टकराते हैं, पर मिलते-जुलते भी थे। वे एक दूसरे की सराहना करते थे। निराला, महादेवी, पंत थे या अज्ञेय और शमशेर थे; वे आपस में संवाद करते थे। लघु पत्रिकाएँ भी नए कवियों के संवाद का मंच हुआ करती थी। अब पहले जैसी साहित्यिक संस्कृति नहीं है। सोशल मीडिया भी वस्तुतः कवियों में निकटता नहीं ला पाया है। अब जितने कवि है, उतने केन्द्र हैं। इस समय कविता का पहले जैसा आंदोलन भी नहीं है। बहुत कुछ चिंताजनक है, फिर भी हमारे कवि अंधेरे में मशालों की तरह हैं; वे आज के विह्वल संगीत की तरह हैं। कवियों की वजह से ही लेखकों का साहित्यिक संसार बसा हुआ है।
साहित्य बचा है तो कल्पना की स्वतंत्रता बची है।
साहित्य अंधानुकरण औैर झुण्ड-संस्कृति का प्रतिपक्ष है।
साहित्य में झूठ का दम घुटता है,
वह सच का दूत है।
आखिर साहित्य के इस दौर में लोकप्रिय न होने के क्या कारण हैं?
साहित्य किसी दौर में लोकप्रिय नहीं रहा है। फिर यह तेज मीडिया और विज्ञापनों का युग है। यह आंधी में तिनकों की तरह भटकने का युग है। आज लोकप्रिय केवल वह सब है, जिसका तर्क और संवेदना से सम्बन्ध नहीं है या जो मनोरंजन प्रधान है। हमारे युग का बडे़ पैमाने पर बौद्धिक सतहीकरण हुआ है। साहित्य का सम्बन्ध असहमति और ‘श्रेष्ठ’ के संरक्षण से है। साहित्य का उद्देश्य है शब्दों की आत्मा को, सामाजिकता को, कलात्मक रुचि को और अतिरिक्त आनंद को बचाना; बल्कि कुछ पीड़ाओ को भी बचाकर रखना, उन्हें सुख में खो न जाने देना।
साहित्य बचा है तो कल्पना की स्वतंत्रता बची है। साहित्य अंधानुकरण औैर झुण्ड-संस्कृति का प्रतिपक्ष है। साहित्य घटनाओं पर आँखें और खोलकर रखना सिखाता है। आखिर आज कौन सत्ताधारी है, जो यह सब चाहेगा। बडे मीडिया चैनल क्या कभी साहित्य का प्रसार करेंगे? साहित्य को कभी घृणा का हथियार नही बनाया जा सकता। यह दूसरे को नीचा दिखाने की जगह नहीं, इसलिए दुनिया भर में स्वेच्छाचारियों तथा घृणा के सौदागरों के लिए साहित्य एक वर्जित प्रदेश है। साहित्य अलोकप्रिय होकर भी एक श्रेष्ठ जगह है। वह सत्य का आखिरी ठिकाना है।
दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, आदिवासी-विमर्श आदि का क्या भविष्य है?
हिन्दी साहित्य-संसार में भी विमर्श करीब चालीस साल पहले शुरू हुए थे। विमर्श का अर्थ है संवाद नहीं करके एकतरफा बोलना, सनसनीखेज कहना। इस मामले में धार्मिक-विमर्श सबसे आगे निकल गए हैं। इसकी तुलना में स्त्री-दलित-विमर्श गतिरोध के शिकार हैं और वस्तुतः निगले जा चुके हैं। इन विमर्शों का बाज़ार जरूर फायदा उठा रहा है, जबकि स्त्रियों-दलितों के बंधन बढ़े हैं। मेरी दृष्टि में विमर्शों के युग का अंत हो चुका है। अब स्वानुभव से संवेदना की ओर, समुदाय से समाज की ओर बढ़ने के सम्बन्ध में सोचना चाहिए। इस दौर में ‘अ-पर’ का बोध जरूरी है, क्योंकि मिथ्या ‘पर’ (अदर) का निर्माण बढ़ गया है, समाज में अशान्ति बढ़ गई है।
क्या आपको लगता है कि कभी जो एक वैचारिक खाई कलावादियों और विभिन्न वैचारिक खेमों में थी, वह अब खत्म हो गई है?
वह पुराने लेखकों में अप्रत्यक्ष रूप से बनी हुई है, पर नए लेखक कला और यथार्थबोध में अंतर्विरोध नहीं देखते। वे खेमे नहीं मानते। बिना कला के साहित्य न ठीक से संप्रेषित होगा और न वह साहित्य के रूप में टिकेगा। हर कोई देख रहा है कि इस समय ‘प्रेजेंटेशन’ का, कलात्मक उत्कृष्टता का महत्व पहले से कितना अधिक है। फिर भी कई लेखक सपाट गद्य को ही पंक्तियों में तोड़कर बताते हैं कि यह कविता है। कविता लिखना आसान नहीं है, क्योंकि कविता निरा वक्तव्य या विचार नहीं है। सोशल मीडिया ने इधर हज़ारों लोगों को लेखक बना दिया है। बौद्धिक सतहीकरण की ही तरह कलात्मक सतहीपन भी बढ़ा है, जिस पर सावधान होने की जरूरत है।
यह भी देखने की जरूरत है कि भारत में कोई अन्य वाद भले फला-फूला न हो, कलहवाद खूब फला-फूला। फिर भी साहित्य कभी समाज का एकदम दर्पण नहीं है। जो साहित्य कठोर दीवारों के बीच बच नहीं सकता, वह अर्थवान भी नही हो सकता। इसकी वजह यह है कि कविता और एक तरह से सम्पूर्ण साहित्य हमेशा की सुंदरता, आजादी और भाषा की नई संभावनाओें की खोज है। वह जब रचा जा रहा होता है, शोर और चौखटों से बाहर निकल रहा होता है। साहित्य में झूठ का दम घुटता है, वह सच का दूत है।
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले युवा लेखक मु. हारून रशीद खान लंबे अरसे से रचनाकर्म में संलग्न हैं। विशेषतः साक्षात्कारों में उनकी रुचि भी है और विशेषज्ञता भी। ‘सृजनपथ के पथिक’ और ‘मेरी गुफ्तगू अदीबों से है’ शीर्षक से साक्षात्कारों की दो पुस्तकें और अन्य कई संपादित और मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘कुबेरनाथ राय रचनावली’ का भी सम्पादन किया है। उनसे मोबाईल नंबर : 9889453491 और ई-मेल : mdharoon.khangzp786@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।