कविता
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पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग, मेघालय में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत भरत प्रसाद साहित्य की विभिन्न विधाओं में समान रूप से सक्रिय हैं। उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं और हिन्दी के कई महत्वपूर्ण सम्मान उन्हें प्राप्त हो चुके हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ।
ऊँचाई
बड़ा हो जाने से
नहीं सिद्ध होती ऊँचाई
वह हासिल होती है-
जमीन के हृदय में धँसने की जिद्द से
धरती को आकाश मानने वाली
उल्टी निगाहों से।
ऊँचाई!
चुपचाप नीचे उतरने की
असीम गहराई है।
अनगढ़ मैदान थे पिता!
पिता का सांवला बदन
अनगढ़ मैदान था
उपजाऊ किन्तु उबड़-खाबड़
अटपटे नंगे पैर
मानो धरती की मोहमाया में धंसे हुए
अंग-अंग पर उभरी हुई नसें
जड़ों की तरह फैली थीं
परिवार को रक्त से सींचने के लिए।
कद की गहराई बूझ पाना
उनकी आत्मा में उतरे बगैर
असंभव था।
पिता के शरीर से अद्भुत गंध झरती थी
जो दरख्तों की छाल में होती है
जंगली झरने के पानी में
या फिर पकी हुई फसलों की सोंधी माटी में।
जीते जी जान ही न सका
पिता कितनी सीधी राह थे
पिता को खोकर
रोज-रोज पाता हूँ भीतर
पिता के नये-नये अर्थ।
अंधकार से लड़ते दीया में
हरी से पीली होती फसलों में
विदा करने के बाद
बेआवाज़ बेहिसाब रुलाई में
सूखे तालाब की फटी बिवाइयों में
भोर आने के ठीक पहले
आकाश के जगाव में
चिरई-चुरुंग की उड़ानों में भी
पा ही लेता हूँ
पिता होने का पता ।।
अघोषित विश्वयुद्ध
दिशाओं के पोर-पोर में
अपूर्व भय का सन्नाटा नियति की तरह,
दिखाई कुछ भी नहीं देता,
सिवाय विदा लेती अपनों की आंखों के
भरोसा उठता जा रहा कल की सुबह से!
बेखौफ है, केवल पक्षियों की उड़ान
जिन्हें मृत्यु की कोई खबर नहीं,
सारी हरियाली जैसे सहमी हुई
मानो आहट मिल गयी हो
किसी अघोषित विश्वयुद्ध की!
पृथ्वी के पैरों में कांटे चुभ गये हैं
लड़खड़ा कर नाचती हो जैसे,
सूर्य की परिक्रमा करते हुए,
आदमी भविष्य के आगे इतना विवश कभी नहीं रहा,
कभी नहीं हुआ इतना स्वप्नविहीन
आजकल की रातों के पहले!
संपर्क : 9077646022, 9383049141
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आदमी भविष्य के आगे इतना विवश कभी नहीं रहा,
कभी नहीं हुआ इतना स्वप्नविहीन
आजकल की रातों के पहले!
राजनीति सुनहरे और भ्रामक भविष्य की बात करती है, साहित्य स्वप्नविहीनता का संकेत करता है। साहित्य सच कहता है। वर्तमान की उपेक्षा से भविष्य खो गया है, कम-से-कम अदृश्य तो जरूर हो गया है।