
दिल्ली में जन्मे बिमल सहगल, आई एफ एस (सेवानिवृत्त) ने दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य में ऑनर्स के साथ स्नातक होने के बाद, वह विदेश मंत्रालय में मुख्यालय और विदेशों में स्थित विभिन्न भारतीय राजदूतवासों में एक राजनयिक के रूप में सेवा करने के लिए शामिल हो गए। ओमान में भारत के उप राजदूत के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद भी वह कई वर्षों तक विदेश मंत्रालय को अपनी सेवाएँ प्रदान करते रहे। कॉलेज के दिनों से ही लेखन के प्रति रुझान होने से 1973 में छात्र संवाददाता के रूप में दिल्ली प्रेस ग्रुप ऑफ पब्लिकेशन्स में शामिल हुए। कॉलेज और विदेश मंत्रालय में संस्थानिक पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। अखबारों और पत्रिकाओं के साथ लगभग 50 वर्षों के जुड़ाव के साथ, उन्होंने भारत और विदेशों में प्रमुख प्रकाशनगृहों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और भारत व विदेशों में उनकी कई सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। वर्ष 2014 से 2017 तक उन्होंने अन्तर्राष्ट्रिय अंग्रेजी अखबार ओमान ऑब्जर्वर के लिए एक साप्ताहिक कॉलम लिखा। काव्य संग्रह ‘अनुभूति से अभिव्यक्ति तक’ प्रकाशनाधीन। लेखन के इलावा पेंटिंग व शिल्पकारी में भी रुचि रखते हैं। एक अनूठी शिल्पकला ‘फ्लोरल-फ़ौना’ के प्रचलन के लिए भी जाने जाते हैं।
अवयस्क सपने
मात्र वयस्क या अश्लील नहीं थे
सभी अवैध सपनों के अनुमान;
विडम्बना यह रही कि अवयस्क सपने ही
यहाँ अवैध करार दिये गए।
कहाँ मिल पाया अधिकार
हर किसी को सपने बुनने का;
यथार्थ के बिछौने पर लेटे, आँखें मूंदे,
पलक झपकने ही नहीं दी
साथ बैठी विपन्नता की कंटीली चुभन ने
किन्हीं सपनों की उन्मुक्त उड़ान भरने।
सामाजिक वंचन की कगार पर थमे
सन्तति के वर्गीकृत पाँवों का
वर्जित ही रहा, देखना तक
सांझे सपनों की सोपान की ओर
किसी ऊँची पायदान पर
मनचाही चढ़ान चढ़ने।
और अस्वीकार्य ही तो रहा, सदियों से
औरत जात का देखना सपने
समान सामाजिक अधिकार के लिए।
हकदारी की हदों को
अनधिकृत रूप से लांघते
इस जहान के अवयस्क सपने
यूं अवैध ही बने रहे, सदैव से
दुनियावी नज़रों में, क्योंकि
उन्निद्र आँखों में घर बसाने का
कभी उन्हें कोई अधिकार ही नहीं मिला।

जागी आँखों के सपने
सुनते आए हैं हमेशा से कि
भोर के उनींदे सपने, अक्सर जाग कर
काल्पनिक दुनिया से बाहर चले आते हैं।
कोई स्वप्नशास्त्र भी रहता है
जो बेशक चेताता है उन्हें अपने ज्ञान से कि
यदि कोई महल दिखाया हो किसी को सब्ज़ बाग़ में खड़ा
तो ऐसे में सारी इच्छाएं तो पूरी करनी ही हैं
साथ में धन भी लाना है जमानत में, उसकी रखरखाव के लिए।
खैर, यह तो हुई पलायनवाद की विचारधारा
मगर जागी आँखों के सपने पलायनवादी नहीं होते;
वे होते हैं कर्मठ जो यथार्थवाद को ही जीते हैं।
इन सपनों की उड़ान में अपने पंख भी होते हैं
इरादों की मंज़िल को परवाज़ करने।
बेशक, सुबह की नींद भरी आँखों में कैद, अलसाए सपने
जहां भुगत रहे होते हैं सज़ा झूठ और भ्रम फैलाने की,
वहीं, जागी आँखों की वास्तविक दुनिया में पलते सपने
निरकुंश विचरते हैं,
उपलब्धियों की अपनी मंज़िल को नापते।
सच है, अपनी टाँगो पर खड़े दृढ़-निश्चयी कर्म
कभी भी यथार्थ से मुंह मोड़
भाग्य की चादर ओढ़े
कहीं चैन से सोये नज़र नहीं आते।

न दुख अपने, न सुख पराए
दूर खड़ा दुख,
परायों की टेक लगाए
मासूम सा दिखता है
बहुत कुछ सुख जैसा ही
जबतक कि पास आकर
अपना निर्मम रूप
खुद से न वह दर्शाए।
जरूरी नहीं,
चुंबकीय ध्रुवों की तरह
रूठे ही रहें एक-दूसरे से सदैव,
और मिलने से रहें कतराते;
विरोधी होते हुए भी मगर
दुख और सुख
चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में
मिल लेते हैं सौहार्दवश
अकेले में अक्सर
जीवन की विषमताओं से किए
व्यक्तिगत समझौतों को बखूबी निभाते।
सच ही सुना है, यह कि
दुख की आंच में तप कर
सुख के रूप में निखार आता है
और तभी तो बहुधा
पारस्परिक व्यवहार की दरकार में
दुखों को भी छिपाए रखता है यह
अपनी आड़ में।

सोया हुआ शहर
शहर खामोश था
जब उसे माँ के पेट में ही मिटाया गया
और तब भी, जब वह मारी गयी
दुनिया में बिन-बुलाये चले आने पर।
शहर खामोश रहा
जब उसको पैदा करने वालों ने, शर्मसार हो,
उसे पर्दों में छुपा, अज्ञानता के अँधेरों में धकेला।
शहर खामोश ही था
जब उसके अपने भगवान ने,
समाज और धर्म का हवाला दे,
उसे बंद दरवाज़ों के पीछे कैद कर डाला-
उसे कम आँका, उसका तिरस्कार किया।
शहर सो रहा था जब वह बैठी थी
भूखे बच्चे के साथ गली में भीख मांगती
और अवसरवादियों को उसमें
शिकार ही दिखा- बलात्कार किया।
शहर की नींद न खुली
जब उसे नंगा कर बीच बाज़ार रुसवा किया गया।
और यूं औरत रोती रही उम्र भर अपने होने पर
मगर जब भी वह पहुँची
ऊपर वाले के दरबार में दुहाई देने
और फिर थक-हार कर
जब-जब उसके होने पर ही उसने सवाल उठाए
तब-तब शहर नींद से जाग कर,
बौखलाए हुजूम की शक्ल में
बह निकला हर तरफ से
अपने-अपने भगवान की ओर से
उसके दिव्य अस्तित्व होने की गवाही देने;
और उनके अपने ऊपर वाले के
सर्व-भूत, सर्व-शक्तिमान, अपार दयालु,
सब का रखवाला होने का दावा भरने
और साथ ही में
दूसरों के भगवानों को अमान्य भी ठहराने।
और यूं गुस्साया शहर,
औरत की हर अमान्य गुहार को
अपने व्यथित शोर से दबा,
भटकी हुई आस्थाओं के कंधों पे सवार हो
भिड़ता रहा है आपस में सदियों से
वर्गीकृत भगवान के नाम पर
एक-दूसरे का गला काटते।

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