हाल के दिनों में चित्रा पंवार ने अपनी कविताओं से निरंतर हिन्दी समाज का ध्यानाकर्षण किया है। मेरठ के एक गाँव गोटका में जन्मी चित्रा संप्रति अध्यापन वृत्ति में संलग्न हैं। प्रेरणा अंशु, कथाक्रम, इंद्रप्रस्थ भारती, सरस्वती, दैनिक जागरण, कथादेश, वागर्थ, सोच विचार, परिकथा, बाल भारती, हिंदवी, समकालीन जनमत, किस्सा कोताह, पाखी, गाथांतर, वर्तमान साहित्य, समकाल, कविताकोश, मधुमती, परिंदे, वनमाली, अनहद कोलकाता, जलवायु, तज़किरा सहित अनेक पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘दो औरतें’ नाम से उनका एक कविता-संग्रह प्रकाशित है और दूसरे कविता-संग्रह ‘बारहमासा’ के प्रकाशन की सूचना उन्होंने आज ही साझा की है।

ईश्वर और प्रेम
तुम जब गले लगती हो
मैं ईद मना लेता हूं
तुम्हारी आंखों में जगमगाता प्रेमदीप देखता हूं
तो मेरी अमावस सी जिन्दगी दिवाली में बदलने लगती है
तुम खिलखिलाती हो तो
भरोसा करने का जी चाहता है
कि दुआएँ सच में कबूल होती हैंतुम्हें पाने के बाद मुझे लगा
दुनिया में चमत्कार भी होते हैं
मैं तुम्हारे घर के सामने से गुजरते हुए
झुकता हूं ठीक वैसे ही
जैसे मंदिर, मस्जिद, पीर फ़कीर के दर के सामने
कोई श्रद्धावश झुकता है
तुम्हारे हाथों को चूमते समय
मैं उस ईश्वर को छूने के अहसास से भर जाता हूं
तुम्हें देखते हुए उसे ही देखता हूं
तुमसे मिलकर मैंने जाना
कोई अल्लाह या राम जो भी कह कर पुकारे
सब प्रेम के ही अलग–अलग नाम हैं
तुम्हें चाहना
मेरे लिए उस खुदा, उस ईश्वर को चाहना है…
तुम तक पहुंचने के सभी रास्ते
मुझे उस तक लेकर जाते हैं…!

साधारण लड़के
कुछ साधारण से दिखने वाले
लड़के
प्रेम कर बैठते हैं
अपनी औकात से बाहर वाले सपनों से
वे आम सी सूरत वाले लड़के
कॉलेज की सबसे सुंदर, सबसे होनहार लड़की से
लगा बैठते हैं दिल
पढ़ाई में औसत होने पर भी
देते हैं यूपीएससी की परीक्षाएं
बार–बार औंधे मुंह गिरते हैं
प्री, मेंस, इंटरव्यू की सीढ़ी से सीधे धरातल पर
किंतु फिर भी हार नहीं मानते
साइकिल से चलते हुए मुड़–मुड़ कर देखते जाते हैं
महंगी कारों को
जो संघर्ष करते मां–बाप के दुःख पर
मन ही मन बुदबुदाते हैं
‘बस कुछ दिन और’
हां यही मामूली से दिखने वाले
सामान्य घरों के लड़के
अपनी सामर्थ्य से कहीं बड़े
सपनों का पीछा करते
पहुंच जाते हैं सफलता के शीर्ष पर
यही साधारण से मगर
जिद्दी लड़के लिखते हैं
एक दिन
संघर्ष और प्रेरणा की असाधारण सी कहानी…

आज़ादी का सूर्य
भेड़ों को दुलार रहा है गड़रिया
मंगा रहा है दूर जंगल तक की मीठी घास
ले जाओ
लो ओर खाओ
सब तुम्हारा है!!
खुश हैं भेड़ें
बाड़े से आजाद होकर भी
गड़रिए के पदचिन्हों का अनुसरण करती
कंधे झुकाए चल रही हैं गुलाम भेड़ें
मिमयाते मेमनों को उपद्रव करने पर
मार की जगह मिल रही है
प्यार भरी हल्की चपत यानी अप्रत्यक्ष शाबाशी
रेवड़ की आरामतलब भेड़ें
खाती हैं, सोती हैं
शेष बचे समय में
गाती हैं गड़रिए के गुणगान
चर्बी चढ़ी भेड़ों को तोलता है गडरिया
अपने ऊंचे होते कद की तराजू पर
भेड़ों को रंग, नस्ल अनुसार खेमों में बांटकर
आपस में लड़वाना
फिर सुलह का अभिनय करना
आजकल गड़रिए के अति प्रिय कार्यों में से एक है
उसके लिए स्वामिभक्त भेड़ें पुल का काम करती हैं
जब वह जीतने निकलता है पहाड़, नदी, कबीलों को
यही भेड़ें सीढ़ी बन पहुंचाती हैं उसे शिखर तक
इसके पुरस्कार स्वरूप
गडरिया धूप का डर दिखा
उनके हिस्से के सूरज का मुंह
मोड़ लेता है अपनी ओर
जंगल कब्जाने निकले गड़रिए की सुरक्षा में तैनात भेड़ें
हिंसा का शिकार बन मृत्यु को प्राप्त होती हैं
वह कहता है यह हत्या नहीं शहादत है
इतना सुन भेड़ों की रीढ़ की हड्डी झुक जाती है
हाथ भर नीचे
चेहरे पर उतर आता है कागजी दर्प
गड़रिया भेड़ों के मुंह में मुफ्त का चारा भर कर
काट लेता है उनकी जुबान
गूंगी भेड़े गाती हैं
गडरिए के मनुष्य से दिव्य पुरूष
फिर साक्षात ब्रह्म
बन जाने तक की यात्रा पर
भावनात्मक गीत
गड़रिया चिल्लाता है
मैं उद्धारक हूं तुम्हारा, पालक हूं तुम्हारा, रक्षक हूं तुम्हारा
विश्वास करो मेरा!!
इसके साथ ही
कुएं में लटकती भेड़ों के गले में बंधी रस्सी
खिसकती जाती है एक हाथ ओर एक हाथ नीचे
आंखों पर श्रद्धा और भक्ति की पट्टी बाँधे
नित जयजयकार करती भेड़ें
एक दिन भ्रम के कुंए में डूब कर मर जाती हैं बेमौत
गड़रिया शोक सभा में बैठा आंसू बहाता
प्रेम और अपनेपन की बड़ी–बड़ी बातें कर रहा है
मरी हुई भेड़ों का मांस नोंचकर मदमस्त हुए कौवे
कांव–कांव कर गडरिए के पक्ष में
तैयार कर रहे हैं माहौल
सियार कवि बन भेड़ों के बलिदान और
गडरिए के दुःख पर लिख रहे हैं कविता
लोमड़ी शेष बची भेड़ों से कह रही है
ये पालक है तुम्हारा, रक्षक है तुम्हारा, ईश्वर है तुम्हारा
बची हुई भेड़ें फिर जा बैठी हैं गड़रिए की शरण में
तुम पालक हो हमारे, रक्षक हो हमारे, ईश्वर हो हमारे!!
गड़रिया फ़िर मंगवा रहा है
सुदूर जंगल तक की मीठी घास
पूरब में अस्त हो रहा है
आज़ादी का बूढ़ा लाचार सूर्य…

कटघरे में इतिहास
मुझे मत पढ़ाओ उस इतिहास का पाठ
जो पसलियों में धसी खाल, उखड़ती सांसों
और झुकी हुई कमर पर
चाबुक की मार से लिखा गया हो
तुमने उन सभ्यताओं को कहा विकसित
जो कामगारों की कमजोर कच्ची बस्ती के सीने पर
पथरीले दंभ से भरी आसमान में नाक की नोक घुसाए खड़ी रहीं
हटा लो मेरे बच्चों के सामने से
राजाओं के दरबार में कालीन बनकर बिछे चापलूस इतिहास के पन्ने
जिन्हें पढ़कर वे अंधभक्त और गुलाम के सिवा कुछ न हो सकेंगे
इतिहास तुम्हें तो कठोर किन्तु सत्य कहने वाला गुरु होना चाहिए था
परन्तु तुम तो जिन्न बन गए भाई
आका बदलते ही जुबान बदलने वाला जिन्न!
तुमने तीर और तलवारों को नाम दिया शौर्य का
फिर प्रेम क्या था दोस्त?
अपनी तेज स्मृति पर गर्व है न तुम्हें!
तो फिर बताओ
मिट्टी में कैसे उगा था अन्न का पहला दाना?
आग और धुंए से सुलगती श्मशान बनी धरा के पहली बार मां बनने पर
झूम कर नाची, गाई बारिश का आनंद लिखो
ब्रह्मांड के प्रथम उत्सव के बारे में क्या जानते हो तुम
प्रेम का पहला फूल खिलने पर…
आलिंगनबद्ध धरती–आकाश रोए थे कि हंसे थे!
गवाह के तौर पर
तुम्हें तो सब कुछ याद होना चाहिए
आख़िर प्रेम का पहली बार उगना
कोई मामूली घटना तो नहीं रही होगी!
क्या तुमने बादशाहों की प्रशस्तियां लिखने में ही खर्च कर दी सारी रोशनाई?
या फिर कुछ प्रेमपत्रों के लिए भी बचा कर रक्खी थी!
अगर हां, तो फिर दिखाओ कहां हैं वे प्रेम पत्र!
आख़िर सबसे सुन्दर और सच्चा इतिहास तो वही माने जाएंगे!
तुमने सत्ताधारियों के आदेशों के यशोगान तो खूब गाए हैं
मगर उन आदेशों के नीचे कुचल कर
गरीब प्रजा के बेमौत मरे सपनों पर चुप्पी क्यूं साध ली
ये कैसा न्याय है!
कैसी तटस्थता है ये!
गंधक, लोबान, इत्र, गुलाब, स्वर्णाभूषणों में लिपटी
रानियों के झूठे सौंदर्य बखान करने से कहीं अच्छा था
तुम पत्थर तोड़ती, हल में जुती, पसीने से गमकती
लौहवर्ण सुंदरियों के स्वाभिमानी, गर्वित मुखों का तेज लिखते
राजा, मंत्री, पुरोहित, व्यापारियों की प्रशंसा में
तुमने पत्थर से लेकर कागज तक सब भर डाले
मगर न जाने क्यों!
आम इंसानों की पीड़ाओं तक पहुंचते–पहुंचते मर गई तुम्हारी आत्मा
युद्ध में मरे सैनिकों को किसी राजा की सेना मात्र मानकर,
हार जीत की तराजू में तौलने से कहीं ज्यादा जरूरी था
तुम उनके चेहरों को गौर से देखते
उनके माथे पर मां की दुआओं के चुम्बन
होंठों पर बेटी की मुस्कान
और आंखों में प्रेम के रतजगों को पढ़ पाते तो शायद
हिंसा के हाथों अहिंसा को कभी न हारने देते
आईना जब सच दिखाना छोड़ देता है
तो फिर कितना विश्वास योग्य बचता है
तुमही कहो?
कितने में बिके भाई!
कितने में खरीदे गए तुम!
मानव सभ्यता के पहले भ्रष्टाचारी तुम्हीं हो
तुमने ही रोपा
आदमी–आदमी के बीच जाति, वर्ण, धर्म का नफरती बीज
तुमने ही शक्ति का अर्थ हृदय नहीं भुजा बताया
तुमने ही निर्बल को बनाया गूंगा
तुमने ही कहा
स्त्री को पुरुष की सेविका
जिस आग में आज जल रही है सारी मानवता
वह तुम्हारी ही लगाई हुई है
परदुखकातर लोगों के आंसुओं की जगह तुम
सत्तासीनों से उपहार में मिली स्वर्ण कलम से लिखे गए हो!
तुम गुजरे जमाने की एक सच्ची झलक भी नहीं
और बात संपूर्ण की करते हो!
बात भरोसे की करते हो!

सुन चिड़िया!
सुन चिड़िया!
विद्रोह जताने के लिए
चीखना चिल्लाना नहीं
मौन, शांत रह कर
अपनी गोल आंखों में निडरता लिए
गर्दन ताने
नन्हें पंजों को साध कर
वृक्ष के तने से सीढ़ियों की तरह
एक–एक शाखा से होते हुए
आकाश के अनंत में अपने असल ठिकाने तक
चढ़ती चली जाना
इतिहास गवाह है
सबसे बड़ी क्रांति
दबे पाँव उतरती है
युद्ध के मैदान में
जैसे पलाश वनों में धीरे से दाख़िल होती है आग
तुम वैसे ही उतरना अपने हक़ के सीने पर
चुपचाप मगर अपने होने का
शोर मचाती हुई..

संपर्क : chitra.panwar20892@gmail.com